मुख्य सचिव पद से एनसी गोयल का सेवानिवृत्त होना और डीबी गुप्ता का पदभार
संभालना, कहने को एक सामान्य
प्रशासनिक प्रक्रिया है—लेकिन ऐसा लगता
बिल्कुल नहीं है। 30 अप्रेल के पूरे
दिन की प्रशासनिक बेचैनी ऐसे उच्च स्तरीय सूत्र छोड़ गई, जो तूफान से पहले की शान्ति का संकेत देते हैं। राजस्थान की
मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे चाहती थीं कि गोयल को तीन माह का सेवा विस्तार मिल जाए,
तत्संबंधी प्रस्ताव पर्याप्त समय पूर्व
प्रधानमंत्री कार्यालय भिजवा दिए गये। केन्द्र और प्रदेश में विरोधी दलों की
सरकारें होते भी इस तरह की प्रक्रियाएं अब तक सामान्य कार्यकलापों की तरह निपटाई
जाती रही हैं। इसीलिए सूबे के ऊपरी हल्कों में उम्मीद थी कि यह आदेश भी देर शाम तक
आ ही जाएगा। गोयल की चाहे फेयरवेल पार्टी चल रही हो लेकिन उम्मीद यही थी कि उनके
सेवा विस्तार का आदेश आ ही जायेगा। जब लग गया कि आदेश अब नहीं आना, तभी रात 11 बजे चार्ज हस्तांतरण की प्रक्रिया पूरी की गयी।
भाजपा प्रदेश अध्यक्ष नियुक्ति के मद्देनजर उक्त प्रकरण से स्पष्ट हो गया है
कि पार्टी के केन्द्रीय नियन्ता अपनी साख बनाए रखने के लिए किसी भी स्तर तक जा
सकते हैं। दिल्ली की केजरीवाल सरकार के साथ केन्द्र सरकार के नुमाइंदे उप राज्यपाल
की ओर से लगातार पैदा की जा रही परेशानियों को देखते हुए केन्द्र की इस सरकार से
किसी सदाशयता की उम्मीद बेमानी है। बावजूद इसके कि केजरीवाल परेशानियों की तीव्रता
से शोर अक्सर ज्यादा ही मचाते रहे हैं।
राजस्थान के सन्दर्भ में एक ही पार्टी का शासन होने के बावजूद बीते चार वर्षों
में केन्द्र-राज्य संबंध शासन और पार्टी दोनों स्तरों पर ठीक-ठाक कभी नहीं रहे।
वसुंधरा राजे का जैसा स्वभाव है, उसमें वह हाइकमान
के हस्तक्षेप के बिना काम करने की आदी रही हैं। 2003 से 2008 के उनके
कार्यकाल पर नजर डालें तो तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथसिंह को उन्होंने कभी खास
भाव नहीं दिया, बल्कि राजनाथसिंह
तब वसुंधरा के बरअक्स कई बार सकपकाते ही देखे गये। ऐसे में मोदी जैसे समकक्ष और
अमित शाह जैसे काफी कनिष्ठ रहे नेताओं का दबाव वह किस तरह बर्दाश्त करतीं। दोनों
जगह एक ही पार्टी की सरकार होने के बावजूद 'कड़ी से कड़ी जोडऩा' शायद इसीलिए जुमला भर होकर रह गया। केन्द्र-राज्य में
शासनिक तारतम्य के अभाव का खमियाजा प्रदेश को और उसकी जनता को भुगतना पड़ रहा है।
इसी के चलते रिफाइनरी स्थापना जैसी बड़ी परियोजना का कार्यारम्भ जहां लम्बे समय तक
रुका रहा, वहीं छिट-पुट कामों की एक
फेहरिस्त हो सकती है, जिन पर बीते चार
वर्षों की इन प्रतिकूल परिस्थितियों से अनमनी रही वसुंधरा राजे ने तत्परता नहीं
दिखाई।
पिछले कुछ माह से प्रदेश अध्यक्ष प्रकरण ने अमित शाह-नरेन्द्र मोदी और वसुंधरा
राजे के बीच लम्बे समय से चले आ रहे शीत युद्ध को एकदम चौड़े ला दिया। पहले तो
प्रदेश पार्टी अध्यक्ष पद से अशोक परनामी को हटाने को ही राजे तैयार नहीं हुईं,
किसी तरह तैयार हुईं तो शाह-मोदी इस वहम में आ
लिए कि राजे दबाव में आ गयीं। इसी वहम में उन्होंने राजे से बिना मशवरा किए
गजेन्द्रसिंह शेखावत का नाम प्रदेश पार्टी अध्यक्ष के लिए तय कर लिया। यही चूक शाह
के लिए भारी पड़ती दिख रही है। इस प्रकरण से लगा कि शाह-मोदी के पार्टी के भीतर
सरपट दौड़ते अश्वमेध के घोड़े की रास वसुंधरा राजे ने खींच दी है। भाजपा की
वर्तमान हाइकमान को ऐसी चुनौती का सामना संभवत: पहली बार करना पड़ा है।
राजस्थान भाजपा में पार्टी अध्यक्ष का पद एक पखवाड़े से अधिक समय से रिक्त है,
इसके निहितार्थ शाह-मोदी की कार्यशैली के
प्रतिकूल हैं। हो सकता है कर्नाटक चुनाव की चुनौती के दिखते शाह ने फिलहाल ठिठकना
ही उचित समझा हो। यदि ऐसा है तो कर्नाटक में जीतकर या कैसे भी तरीकों से भाजपा की
सरकार बन जाती है तो हो सकता है शाह-वसुंधरा का मुकाबला देखने लायक हो। और यदि
कर्नाटक में शाह ऐसा नहीं कर पाते तो ऐसी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि
वसुंधरा राजे शाह-मोदी को चुनौती देने की ठान ले। भाजपा के भीतरी सूत्र बताते हैं
कि भाजपा के लगभग वे सौ सांसद वसुंधरा खेमे में आने का साहस कर सकते हैं, जो विद्रोही नेतृत्व के अभाव में मुखर नहीं हो
पा रहे और यदि राजनाथसिंह व सुषमा स्वराज आत्मसम्मान जाग्रत कर वसुंधरा के साथ हो
लेते हैं तो पार्टी के भीतर ही क्यों, राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर रोचक दृश्य देखने को मिल सकते हैं। और यदि
लालकृष्ण आडवाणी व मुरलीमनोहर जोशी बजाय मार्गदर्शक के, वसुंधरा राजे के लिए आशीर्वाद दाता की भूमिका अख्तियार कर
लें तो अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और
शत्रुघ्न सिन्हा जैसे नेता सुकून महसूस करने लगेंगे। तब संभावित परिस्थितियों में
संघ के पास एकबारगी सकपकाने के अलावा अन्य विकल्प बचता नहीं है। सूत्र यह भी बताते
हैं कि नरेन्द्र मोदी के आकस्मिक विकल्प के तौर पर संघ वसुंधरा राजे के नाम पर
सहमत हैं।
—दीपचन्द सांखला
3 मई, 2018
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