चुनावी वर्ष है, दिसम्बर में
विधानसभा के और अगले वर्ष 2019 की मई में
लोकसभा के चुनाव होने हैं। विधानसभा के संभावित उम्मीदवारों की ऐसी रेलम-पेल इससे
पूर्व नहीं देखी गई। बीकानेर पूर्व क्षेत्र की विधायक जहां अपवाद हैं वहीं पश्चिम
के विधायक गोपाल जोशी अपनी 84 से ऊपर की वय
में भी उम्मीदों को हरा रखे हुए हैं, जबकि यही गोपाल जोशी 2013 का चुनाव जीतने
के बाद बहुत संतोष से कहने लगे थे कि मुझे तो अब कोई चुनाव लडऩा नहीं है। तब
उम्मीद बनी थी कि उत्तरवय के उनके राजनीतिकांक्षी मझले पुत्र गोकुल जोशी दावेदारी
करेंगे। ऐसा कुछ होता उससे पहले ही पौत्र विजयमोहन जोशी की राजाकांक्षाएं हिलोरे
मारने लगी। लेकिन थोड़ा समय क्या गुजरा, गोपाल जोशी महाभारत के ययाति की मानिंद अपना राजाकांक्षी यौवन लौटा लाए?
कहने को तो हाइकमान के निर्देश हैं, लेकिन गोपाल जोशी अपने विधानसभा क्षेत्र के वार्ड-वार्ड घूम रहे हैं। जोशी
अपने शहर को कुछ देने की सचमुच मंशा रखते तो कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या के
समाधान को सिरे चढ़ाते। लेकिन जो राज भोगने की मंशा से राजनीति में आते हैं,
उनसे ऐसी उम्मीदें कर खुद को निराश करना होता
है। जोशी दर-दर इसलिए घूम रहे हैं ताकि पार्टी उन्हें एक अवसर और दे, कल्ला फिर सामने हों ताकि रिश्ते में साले
कल्ला बंधुओं से हिसाब पूरा चुकत कर लें। अब तक पांच चुनाव जीते कल्ला को
आमने-सामने का तीसरा चुनाव हराने की मंशा जोशी शायद इसीलिए पाले हैं। तुलसीदास की
कही—'हानि लाभ-जीवन मरण,
यश-अपयश विधि हाथ' में थोड़ा परिवर्तन कर यूं कहें तो?—'जय-पराजय विश हाथ' (विश का मानी जनता से है)। इसलिए हो सकता है इस बदले माहौल में जीजा अपने सालों
से पटखनी खा जाये।
खैर। जब बात कल्ला-बंधुओं पर आ ही ली है तो उन्हें भी निराश क्यों किया जाए,
उनकी बात भी कर लेते हैं। पांच बार विधायक,
पार्टी में प्रदेश अध्यक्ष और विधानसभा में
नेता प्रतिपक्ष रह चुके
डॉ. बीडी कल्ला भी इन दिनों परिवर्तन यात्रा के नाम पर अपने क्षेत्र के
वार्डों में विचरण कर रहे हैं। यहां अपने उस आकलन को फिर दोहराने में कोई संकोच
नहीं है कि बीकानेर से कांग्रेस के दोनों बड़े नेताओं—डॉ. बीडी कल्ला और रामेश्वर डूडी को जो राजनीतिक हैसियत
विभिन्न अनुकूलताओं से हासिल है, वह उनकी पात्रता
से अधिक है, जरूरत पर कभी
विस्तार से भी लिखूंगा। आज बड़ी हैसियत के इन नेताओं की आत्मविश्वासहीनता का जिक्र
कर लेते हैं।
संक्षिप्त में कुछ बानगियां—कांग्रेस के इसी 9 अप्रेल के जयपुर के राज्यस्तरीय सांकेतिक
उपवास में सीपी जोशी समेत कुछ नेता केन्द्र से भी आए, लेकिन प्रदेश के बड़े नेताओं में शुमार तो सचिन पायलट और
रामेश्वर डूडी दो ही थे, उपवास के जो फोटो
जारी हुए उसमें पायलट अग्रिम पंक्ति में केन्द्रीय नेताओं के साथ बैठे हैं,
लेकिन डूडी की मुंडी कहीं पीछे से झांक रही है।
मतलब, नेता प्रतिपक्ष बनने के
चार वर्ष बाद भी डूडी पार्टी में अपनी ऐसी हैसियत हासिल नहीं कर पाये कि पार्टी
नेता उन्हें अग्रिम पंक्ति में तवज्जो देते। यही बात ना केवल बीकानेर क्षेत्र में
डूडी की है, बल्कि खुद के
कस्बे नोखा में भी उन्हें अपनी हैसियत जताने को बड़ी जद्दोजहद करनी पड़ती है।
आत्मविश्वासहीनता का ही नतीजा है कि बीकानेर पार्टी संगठन में अग्रिम पंक्ति के
किसी नेता से उनके भरोसे के संबंध नहीं हैं।
बीडी कल्ला का मिजाज भी डूडी सा ही है। अभी चल हरी परिवर्तन यात्रा की बात
करें तो जहां कल्ला राजकुमार किराड़ू के साथ अपने को असहज पाते हैं वहीं प्रदेश
सरकार की अकर्मण्यता जाहिर करने के बजाय वे डॉ. तनवीर मालावत के साथ कहा-सुनी तक
मुखर हो लिए। इस सार्वजनिक बदमजगी के दूसरे दिन डॉ. तनवीर के साथ वैसी ही अधीरता
जनार्दन कल्ला ने भी दिखाई। तय है, इस परिवर्तन
यात्रा का मकसद बीकानेर पश्चिम से कांग्रेस उम्मीदवार को स्थापित करना तो नहीं है।
बावजूद इस यात्रा में 'हमारा विधायक
कैसा हो बीडी कल्ला जैसा हो' जैसे नारे लगाए
गए, यहां तक की डॉ. तनवीर के
भाषण के दौरान भी डॉ. कल्ला के समर्थक चुप नहीं रह सके, बदमजगी की शुरुआत यहीं से हुई।
पार्टी की प्रदेश इकाई में कल्ला को वैसी हैसियत हासिल है जिसमें तय नियम
कायदों के बावजूद उनकी उम्मीदवारी को नजरअंदाज करना आसान नहीं होगा। राजकुमार
किराड़ू और डॉ. तनवीर मालावत कभी कल्ला गुट के ही माने जाते थे। अब स्थिति यह है कि
उन्हीं के सामने किराड़ू उम्मीदवारी के लिए बराबरी का हक ठोके हुए हैं वहीं इस
घटना के बाद डॉ. तनवीर के तौर पर दूसरी चुनौती उन्होंने स्वयं खड़ी कर ली। इन्हीं
दो नेताओं की बात क्यों—बीते चालीस
वर्षों की कल्ला बंधुओं की राजनीतिक सक्रियता में उनके परिजनों के अलावा क्या कोई
एक भी नेता या कार्यकर्ता ऐसा है जिसे कल्ला बंधु लम्बे समय तक परोट पाए हों?
जब व्यक्ति को खुद पर भरोसा नहीं होता तो वह
किसी अपने पर भी यकीन नहीं कर पाता, कल्ला बंधु इसी मानसिकता के शिकार हैं।
यहां सोमचन्द सिंघवी के साथ हुए एक मामले का उल्लेख भी कर सकते हैं। मार्च 2002 में वे नगर विकास न्यास के अध्यक्ष मनोनीत हुए,
बिना कल्ला बंधुओं की कृपा के, इसे कल्ला बन्धु पचा नहीं पा रहे थे। एक दिन
आमने-सामने होते ही जनार्दन कल्ला फट पड़े। सिंघवी की नियुक्ति के लगभग एक महीने
बाद ही बीकानेर के जिला कलक्टर निर्मल वाधवानी की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई,
उनके शोक का कार्यक्रम था। अग्रज कल्ला मौके की
नजाकत का भी लिहाज नहीं रख पाए, उनका धैर्य चुक
गया। कलक्टर कोठी से बाहर निकलते ना निकलते ही सोमचन्द सिंघवी से यूं उलझ पड़े
जैसे वे इनकी गाय खोल के ले आए हों। डॉ. कल्ला की आत्मविश्वासहीनता के अन्य कई
उदाहरण पूर्व में जब-तब इसी कालम में पाठकों के साथ साझा किए हैं। कल्ला बंधुओं को
अब भी धैर्य धारण कर लेना चाहिए, अन्यथा हश्र
देवीसिंह भाटी वाला होते देर नहीं लगती, चुनाव ना लडऩे का भी कोई बहाना ढूंढऩा पड़ सकता है।
कल्ला बंधु संजीदगी नहीं रखेंगे तो वे ये भूल रहे हैं कि परिसीमन के बाद उनके
क्षेत्र की तासीर बदल गई है, मुस्लिम समुदाय
के बाद माली समुदाय से कोई दावेदार इस सीट पर उन्हें चुनौती देने आ धमका तो?
ऐसे में प्रदेश स्तरीय नेता कल्ला क्या अपने को
उस हैसियत में पाते हैं कि राजस्थान की दो-चार में से किसी भी सीट से ताल ठोक सकें?
—दीपचन्द सांखला
12 अप्रेल, 2018
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