'प्राचीन संस्कृत साहित्य में होली का उल्लेख 'वसंत महोत्सव' या 'काम महोत्सव' के रूप में मिलता है। यह प्राचीन काल से ही सब
वर्णों की निकटता का भी त्योहार रहा है। इस दिन सभी वर्णों के लोगों का परस्पर गले
मिलने का विधान है। इसे होलिका द्वारा प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठने की
कथा से भी जोड़ा जाता है। यह समझकर कि हरि भक्त प्रह्लाद जलकर मर जाएगा, राक्षस नाचने-गाने, कूदने, शोर मचाने और
मद्यपान करके अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने लगे थे। आज भी उसी घटना की स्मृति में
होलिका दहन होता है। यह देश का सबसे लोकप्रिय और मस्ती का त्योहार है।'
'भारतीय संस्कृति कोश' का उक्त गद्यांश 'होली' के बारे में है। स्थानीय बोली और मानस के हिसाब से आज होली है और कल छालुड़ी
(धुलण्डी)। मुहूत्र्त के अनुसार आज रात होली मंगलाई जायेगी। मंगलाना यानी दहन करना
यानी लोकचित्त होलिका के दहन को मांगलिक घटना मानता है क्योंकि होलिका न केवल
आततायी हिरनाकसप (हिरण्यकशिपु) की बहिन थी बल्कि उसके बुरे कामों में सहयोगी भी
थी।
जैसा कि उपरोक्त गद्यांश में बताया गया है, होलिका दहन के समय हिरनाकसप के सहयोगी यह मान कर चल रहे थे
कि आग के हवाले होते ही प्रह्लाद तो जल कर राख हो जायेगा। बिना परिणाम का इन्तजार
किये वे मद्यपान सेवन और नाचने-कूदने, शोर मचाने में मशगूल हो गये। तो क्या आजकल भी बहुत से लोग इसी मन:स्थिति में
नहीं देखे जाते! जिस तरह से होली खेली जाने लगी है, उससे पता ही नहीं चलता कि इस उत्सव में मशगूल कौन तो
हिरनाकसप के सहयोगियों की तरह मुगालते में खुशियां मना रहा है और कौन होलिका के
दहन की खुशियां मना रहा है। खेलने के ढंग में आई तबदीलियां कुछ इसी तरह का आभास जो
देने लगी हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप में इस उत्सव का उल्लेख ईसा पूर्व से भी कई सौ साल पहले का
मिलता है। उसके नाम, खेलने के ढंग और
कथाओं में समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है। मनुष्य की यथास्थितियों और एकरसता से
ऊब और कुछ समय के लिए ही सही तनावों से बाहर आने की उत्कंठा और कुण्ठाओं से
छुटकारे की इच्छाओं के चलते ही इस तरह के त्योहारों को मनाया जाने लगा। विभिन्न
रूपों में भिन्न-भिन्न समय पर वर्ष में एक से अधिक बार व्यापक पैमाने पर इन
त्योहारों का आना मनुष्य की मानसिक जरूरत को अभिव्यक्त करता है। यह त्योहार केवल
हमारे यहां ही मनाया जाता हो, ऐसा नहीं है।
सदियों से दुनिया के सभी हिस्सों में समय और मनाने के तरीके में थोड़े परिवर्तनों
के साथ ये त्योहार भिन्न-भिन्न नामों से मनाये जाते हैं। ये त्योहार इस बात के
प्रमाण भी हैं कि मनुष्य का मन एकरसता में छटपटाता रहता है।
हमारे क्षेत्र को ही लें, कभी यहां पानी को
घी से ज्यादा कीमती माना जाता था, तब होली सूखी
खेली जाती थी। नलों से पानी गवाड़-घरों में आने लगा तो गीली खेली जाने लगी। अब जब
से पानी के विशेषज्ञ यह बताने लगे हैं कि जमीन से पानी समाप्त हो रहा है तो लोक
में इसे लेकर दिखावटी चिन्ताएं होने लगी हैं। दिखावटी इसलिए कहा क्यूंकि हमने
जीवनशैली ही ऐसी बना ली कि उसमें पानी की बरबादी कई गुुणा बढ़ी है, 365 दिन जिस पानी को अंधाधुंध बरतने और बरबाद करने
में लगे रहते हैं उस ओर किसी की सावचेती नहीं देखी जाती। होना तो यह चाहिए कि
छालुड़ी के दिन ही क्यों बाकी के 364 दिन भी हम पानी के साथ अपने बरताव को ठीक कर लें। इस तरह की रस्म अदायगियों
से अपनी करतूतों को कहीं आड़ तो नहीं दे रहे हैं हम?
'विनायक', सम्पादकीय 26 मार्च, 2013
पांच वर्ष पूर्व के उक्त सम्पादकीय को ज्यों का त्यों फिर देने में कोई संकोच
इसलिए नहीं हो रहा कि—इस त्योहार को
मनाने के तौर-तरीके न सुधरे हैं और ना ही बदले हैं। बल्कि होली ही नहीं अन्य
त्योहारों की सकारात्मक तौर-तरीकों को जहां हम छोड़ते जा रहे हैं वहीं नए-नए
नकारात्मक तौर-तरीके अपनाते जा रहे हैं।
लगातार लोकप्रिय होते जा रहे सोशल मीडिया पर इन त्योहारों से संबंधित साझा की
जाने वाली कई विचार मनन को मजबूर करते लगे। मुख्य बात तो यही कि जो लोग मृत्युदंड
को अनुचित मानते हैं या वे, जो अहिंसा के
समर्थक हैं, उन्हें इस
त्योहार को होलिका के मारे जाने का दिन रूढ़ कर दिए जाने पर एतराज है। उनका मानना
है किसी की भी मृत्यु को—फिर चाहे वह
अपराधी की ही क्यों न हो—उत्सव के तौर पर
मनाना सर्वथा अनुचित है। होलिका को जला कर मार देना, वह भी चमत्कार की आड़ में, और इस घटना को उत्सव के तौर पर प्रतिवर्ष मनाया जाना इस युग
के मानवीय मूल्यों के तरफदारों के गले नहीं उतर रहा। इनमें से कुछ तो यह तक कहने
से नहीं चुकते कि आज के दिन को 'होलिका शहादत'
दिवस के तौर पर मनाया जाना चाहिए। इस तरह के
एतराजों को खारिज न कर हमें विचारना चाहिए। इस तरह के मंथन हमारी सनातन संस्कृति
में बाधक नहीं, पुष्ट करने वाले
माने जाते रहे हैं।
—दीपचन्द सांखला
1 मार्च , 2018
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