Thursday, February 15, 2018

उपचुनावों के परिणाम : कांग्रेस और भाजपा


राजस्थान सरकार ने बजट की औपचारिकता पूरी कर ली। मीडिया कह रहा है कि तीन उपचुनावों में सत्ताधारी भाजपा की हार की छाया इस बजट पर है, मान लेते हैं। वैसे किसी भी सरकार का अंतिम बजट आगामी चुनावों के प्रकाश में ही होता आया है, हो सकता है कि हार की छाया ने प्रकाश की तीव्रता बढ़ा दी हो। देश की आबादी का बड़ा हिस्सा आजादी के सत्तर वर्षों बाद भी बजटीय आभा से सीधे तौर पर लाभान्वित होने से वंचित ही रहा है। सरकारों का प्रयास भी यही रहा है कि इस आभा का घेरा छोटा होता जाएचाहे वे यह भ्रम भले ही दें कि इसका घेरा वे लगातार बढ़ाते रहे हैं। विशेष तौर पर 1991 के बाद अर्थव्यवस्था के जिस चक्रव्यूह में हम आ लिए हैं उसमें यह बजटीय आभा लगातार सिकुड़ती जा रही है। इन्हीं सरकारों के आंकड़े ही यह बता कर पुष्टि भी करते हैं कि देश का गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर होता जा रहा है। सरकार की बात जब बहुवचन में कर रहे हैं तो इसके मानी कांग्रेस-भाजपा सहित गठबंधन की उन सभी सरकारों से है जिन्हें राज करने के अवसर मिले हैं। सरकारें जिस तरह आ लेती हैं और चली जाती हैं, फिर आ लेती हैं। ऐसा इसलिए कि एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर न जनता ने शिक्षित होने की जरूरत समझी और न सरकारों नें जनता को लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर शिक्षित करने की। चूंकि देश में अधिकांशत: शासन कांग्रेस का रहा तो इसके लिए बड़ी जिम्मेदार भी वही है।
लेकिन जब गांधी की विरासत सम्हालने वाली पार्टी ही इस जनता की भेड़ चाल प्रवृत्ति में स्वार्थ देखने लगी तो दूसरों को दोष देना औपचारिकता होगी।
इसलिए बजट के बारे में कहने को कुछ खास नहीं है। उपचुनावों के परिणामों के बहाने बात की जा सकती है। जो राज में हैं उनके लिए चुनाव परिणाम चिन्ता के कारक हैं ही। लेकिन राजस्थान में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस यदि इसे आश्वस्तकारी मानती हो तो भूल में है। सत्ता से ऊब के वोट विपक्षियों को उनके हबीड़े में मिलते हैं। इस तरह के वोट विपक्ष को बिना कुछ किए मिलते रहे हैं। बड़ी चिन्ता में सूबे की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे हैं, ऐसा भी नहीं लगता। गुजरात विधानसभा चुनावों में भाजपा की जैसी-तैसी भी जीत के बाद वसुंधरा मान चुकी हैं कि शाह-मोदी के रहते अगले विधानसभा चुनावों के बाद कमान उन्हें नहीं मिलेगीराजे की चिन्ता इतनी ही है कि सूबे में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले उनके साथ कुछ बुरा ना हो। वैसे भी जब से शाह-मोदी पावर में आए हैं तब से राजे असहज हैं, अनमनी होकर नाकारा हुई वसुंधरा राजे का खमियाजा प्रदेश की जनता भुगत रही है। अशोक गहलोत के मुख्यमंत्रित्व काल को छोड़ दें, खुद वसुंधरा के पिछले कार्यकाल की इस कार्यकाल से तुलना करें तो 'डिलीवरी' में बड़ा अन्तर है।
वसुंधरा के अकर्मण्य होने का कारण शायद 2013 के विधानसभा चुनावों के परिणाम हों, उन्होंने देख लिया कि अशोक गहलोत की पिछली सरकार के समय जयपुर, जोधपुर, कोटा, अजमेर में विकास के बहुत काम हुए। इसी तरह दिल्ली में शीला दीक्षित के कार्यकाल में विकास के जितने काम हुए उतने आजादी बाद नहीं हुए, पर इन सभी जगह कांग्रेस बुरी तरह हारी। ठीक विपरीत उदाहरण में गुजरात को देख लें-पिछले पन्द्रह वर्षों में विकास में गुजरात सभी क्षेत्रों में 7वें से 13वें स्थान पर था। बावजूद इसके वहां भाजपा जीतती रही है। जिस देश की जनता भ्रमित होकर वोट करती है वहां के चुनाव परिणाम उसी के पक्ष में जाते हैं जो ज्यादा अच्छे से भ्रमित कर सकता हो। संभवत: यह सब समीकरण वसुंधरा राजे के अच्छे से समझ में बहुत पहले से आए हुए हैं। शाह-मोदी की तरह भ्रमित करने की कूवत वसुंधरा अपने में नहीं पाती और उनकी हेकड़ी उन्हें हरियाणा, असम और झारखण्ड के भाजपाई मुख्यमंत्रियों की तरह कठपुतली होने नहीं देती। ऐसे में अगला चुनाव भाजपा जीते या हारे वसुंधरा के कोई बड़ा फर्क  नहीं पडऩा।
भ्रमित करके वोट लेने का फार्मूला यदि पिट भी जाता है तो शाह-मोदी के पास हिन्दू-मुसलिम फार्मूला भी है जो उत्तरप्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में अच्छे से कारगर  हो चुका है। हां, यह जरूरी नहीं सभी जगह वह अच्छे से लागू हो। हिन्दू-मुसलिम फार्मूले की उनकी पहली प्रयोगशाला खुद गुजरात में इन चुनावों में दम तोड़ती दिखी। वह तो गुजरात की जनता में कांग्रेस ने अपना भरोसा पूरी तरह जमाया नहीं अन्यथा भाजपा का बेड़ा उक्त दोनों फार्मूलों के बावजूद गर्क हो जाना था। चुनाव जीतने के एक और फार्मूले की बात लोग करने लगे हैं और वह है पाकिस्तान से युद्ध। इसकी आशंका इसलिए नहीं लगती कि युद्ध अब उतने आसान नहीं रहे जो पिछली सदी में थे। दूसरी बात यह जरूरी नहीं कि युद्ध का लाभ आपको मिले ही, वह उलटा भी पड़ सकता है।
कांग्रेस की बड़ी दिक्कत यह है कि संगठन के मामले में वह आज भी लगभग उसी पुराने ढर्रे पर है। सांगठनिक ढांचे पर कोई विशेष काम नहीं हो रहा। ऊपर से राहुल गांधी जैसे उसके नेता की छवि अभी तक पार्ट टाइम नेता की सी बनी हुई है। दूसरी ओर भाजपा के पास मोदी और शाह जैसे दो फुलटाइम नेता हैं, बल्कि मोदी तो प्रधानमंत्री मोड में कम और पार्टी के नेता रूप में नजर ज्यादा आते हैं। इधर अमित शाह के अध्यक्ष बनने के बाद से भाजपा पूरी तरह कोरपोरेट मोड में है, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके अनुषंगी संगठन यथा विश्व हिन्दू परिषद्, बजरंग दल आदि-आदि इसके नेटवर्क के तौर पर अच्छी खासी भूमिका निभाते ही हैं। ताजा उदाहरण विश्व हिन्दू परिष्द की अयोध्या से शुरू होकर दक्षिण में रामेश्वरम तक जाने वाली राम राज्य यात्रा को ही लें-यह अकारण नहीं कि उसे उन क्षेत्रों से ही गुजरना है-जहां चुनाव होने को हैं। अब तो लोग कहने भी लगे इनके रामलला भी चेतन चुनाव पूर्व ही होते हैं। शाह की कार्य प्रणाली ऐसी है कि ब्लॉक लेवल तक के पार्टी संगठन को नियमित रिपोर्ट करनी होती है। प्रत्येक जिला मुख्यालय पर पार्टी कार्यालय खुद का भवन बनने की प्रक्रिया में है।
जबकि सवा सौ वर्ष पुराना पार्टी संगठन का ढांचा और 70 वर्ष के शासन के लेबल में कम से कम 56 वर्ष राज में रह कर भी कांग्रेस उक्त सभी मामलों में भाजपा के आसपास भी नहीं फटक रही। ऐसे में कांग्रेस यदि आगामी चुनावों को अपने बूते जीतने के प्रति आश्वस्त है तो वह बड़े भ्रम में है। शासन से ऊब कर जनता भले ही कांग्रेस को जिता दे। कांग्रेस के आलस्य की हद तो यह है कि इस ऊब की अनुकूलता को भुनाने की भी कूवत वह दिखा नहीं पा रही है। शासन की असफलताओं, तथ्यहीन तर्क और झूठ के जवाब भी ढंग से देने को कांग्रेस के पास नेता तो दूर की बात कोई प्रवक्ता तक नहीं है।
दीपचन्द सांखला
15 फरवरी, 2018


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