Thursday, November 30, 2017

गुजरात चुनाव : जुझार कांग्रेस और आकळ-बाकळ भाजपा

दिसम्बर के पहले पखवाड़े में होने वाले गुजरात विधानसभा चुनाव अपने उत्सुकी दौर में पहुंच गये हैं। देश-समाज और राजनीति में रुचि रखने वाले प्रत्येक भारतीय के लिए 18 दिसम्बर को आने वाला चुनाव परिणाम किसी कौतुक से कम नहीं होगा। हालांकि उसी दिन हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों का परिणाम भी आना है, लेकिन जैसी कौतुकी प्रतीक्षा गुजरात चुनाव परिणामों के लिए होगी वैसी हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणामों के लिए नहीं होगी।
बीते 22 वर्षों से गुजरात में कहने को भाजपा का शासन है, लेकिन लगभग 19 वर्षों तक वहां शासन नरेन्द्र मोदी ने पार्टी से ऊपर होकर किया है। गुजरात छोड़ केन्द्र की राजनीति में आने से पूर्व तक अति-महत्त्वाकांक्षी और हेकड़ीबाज मोदी को यह भान ही नहीं होगा कि वह जिस आडम्बरी आवरण में गुजरात को संजोए हुए थेउनके जगह छोड़ते ही वह अनावृत होने लगेगा। इस तरह के आकलन को चुनाव परिणामों की घोषणा ना मानें। मगर विधानसभा चुनावों के मद्देनजर गुजरात में जो राजनीतिक परिदृश्य बना है, उसे अपनी तरह से देखने की एक कोशिश जरूर है।
डेढ़-दो माह पूर्व तक गुजरात के चुनावी परिदृश्य के जो अनुमान थे, वह सब ओझल होने लगे हैं। अचानक लगने वाला यह परिवर्तन आकस्मिक नहीं था। अपने पंजाब प्रभार के समय भी कांग्रेस महासचिव अशोक गहलोत ने ऐसे हालातों में ही अपनी पार्टी के लिए अनुकूलता बनाई लेकिन उसका उल्लेख इसलिए नहीं हुआ क्योंकि वहां सत्ता विरोधी लहर इतनी प्रबल थी कि गहलोत को श्रेय मिल नहीं पाया। पंजाब में भी इस बात की प्रबल संभावना थी कि सत्ता विरोधी लहर का लाभ आम आदमी पार्टी ले जा सकती थी, जिसे संभव नहीं होने दिया गया।
गुजरात की स्थितियां कमोबेश भिन्न हैं, यहां हाल तक मोदी के बनाए आडम्बरी आवरण के चलते सत्ता विरोधी लहर वैसी दिखाई नहीं दे रही थी जैसी कि पंजाब में। स्वयं मोदी को भी ये भान नहीं था कि विकास के गुजरात मॉडल के गुब्बारे की हवा यूं निकल जाएगी, बावजूद इस सबके, गुजरात में सत्ता विरोधी लहर से इनकार नहीं किया जा सकता। इसे 2012 के विधानसभा चुनाव परिणामों से समझ सकते हैं कि जब सांगठनिक तौर पर लगभग लुंज-पुंज कांग्रेस को तब भी 182 में से 57 सीटें मिली थी। कांग्रेस यदि तब आज जैसे जोशो-खरोश में होती तो सरकार भले ही ना बना पाती, विधानसभा में बराबरी का जोर जरूर करवा देती। कांग्रेस में आज के जोश-खरोश का श्रेय प्रभारी महासचिव अशोक गहलोत को जाता है। वे पिछले एक वर्ष से मृतप्राय संगठन को तहसील स्तर तक संजीवन देने में जुटे हैं। अलावा इसके, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस का प्रभावी चुनाव अभियान और पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी के बदले किरदार के लिए भी अशोक गहलोत की संगत का असर मानने में संकोच नहीं करना चाहिए। इस जुझारू चुनाव अभियान के बावजूद गुजरात में कांग्रेस पार्टी सरकार बना लेगी या नहीं, यह चुनाव परिणामों पर निर्भर करेगा। सरकार यदि ना भी बन पाए तो कांग्रेस के लिए गुजरात चुनावों की बड़ी उपलब्धि राहुल का बालिग हो जाना माना जा सकता है। ये भी उल्लेखनीय कम नहीं है कि गुजरात के पिछले तीन विधानसभा चुनावों का मुख्य मुद्दा हिन्दू-मुसलमान ही रहा है लेकिन इस बार ये मुद्दा हाल तक सिरे से गायब है। हालांकि कुछ भी पार पड़ती नहीं देख भाजपा अपने इस पुराने तरीके को आजमाने की तजबीज में लगी हुई है।
उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के कांग्रेस अभियान का स्मरण करें तो राहुल गांधी में आए इन बदलावों को अच्छे से समझ सकते हैं। उत्तर प्रदेश में तब चाहे उन्होंने यात्रा की हो या चुनावी रैलियां, राहुल के हाव-भाव से यही लगता था कि उन्हें खुद पर भी भरोसा नहीं है, वहीं जनता में भी राहुल को लेकर कोई खास उत्साह नहीं देखा जाता था। सकारात्मक माहौल जननेता और जनता की परस्पर की कैमिस्ट्री से बनता है। जननेता होते जा रहे राहुल के सन्दर्भ से ऐसी कैमिस्ट्री गुजरात में अब देखी जाने लगी है।
वहीं कांग्रेस से उलट कैडर आधारित कहलाने वाली भाजपा जब से मोदी एण्ड शाह एसोसिएट बनीतब ही से कैडर की हैसियत कलपूर्जों से अधिक की नहीं देखी जा रही। मुद्दे में सावचेत संघ लगातार मिल रही सफलताओं और असल एजेन्डे के लिए बनती अनुकूलता के आभास से मुग्ध है तो नरेन्द्र मोदी भारत जैसे देश के प्रधानमंत्री हो लेने भर की खुमारी से ही निकल नहीं पा रहे। स्थानीय कहावत में समझें तो जैसे सेर की हांडी में सवासेर ऊर दिया गया हो। असल में कहें तो संघ और मोदी की इस मुग्धता ने अमित शाह को बहुत कुछ की गुंजाइश दे दी है। अमित शाह निजी फर्म की मानिन्द पार्टी को जिस तरह चलाने लगे हैं उससे लगता है कि वे अब संघ और मोदी दोनों पर हावी हैं। कभी वे ठिठकते लगते भी हैं तो यह उनकी रणनीति का ही हिस्सा माना जा सकता है।
गुजरात चुनाव के परिणाम अगले वर्ष होने वाले राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनावों को तो प्रभावित करेंगे ही, 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों की आधार भूमि भी तय करेंगे। गुजरात में कांग्रेस अगर जीतती है तो मोदी-शाह के तौर-तरीकों पर पार्टी के भीतर से आवाजें मुखर होने लगेगी। ऐसी पूरी संभावना है वहीं कांग्रेस ऐसी अनुकूल परिणामों के बाद न केवल आगामी विधानसभा चुनावों में पूरे आत्मविश्वास के साथ उतरेगी वरन् लोकसभा चुनावों की तैयारी के लिए भी जोशो-खरोश जुटा लेगी।
दीपचन्द सांखला

30 नवम्बर, 2017

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