Thursday, June 1, 2017

मवेशियों की खरीद-फरोख्त के नियमों में बदलाव पर कुछ यह भी

भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने गत 23 जुलाई को पशु क्रूरता निवारण अधिनियम-1960 में बदलाव किए हैं। नये नियमों के मुताबिक मेलों व मंडियों में मवेशियों की खरीद-बिक्री से जुड़े नियमों में यह जोड़ा गया है कि इनमें अब बूचडख़ानों के लिए मवेशियों को खरीदा व बेचा नहीं जा सकेगा। वर्तमान में अधिकृत-अनधिकृत पांच हजार मण्डियां मवेशियों के व्यापार में संलग्न हैं। नये नियमों के अनुसार यदि इन्हें सज्जित किया जायेगा तो प्रति मण्डी अनुमानित 50 करोड़ रुपये का खर्च आना है। इतना खर्च लगाकर मण्डियां बन भी गई तो नये नियमों की बंदिश के चलते खरीद-फरोख्त केे लिए वे मवेशी तो इनमें आएंगे नहीं जिनको बूचडख़ानों में जाना है।
संविधान की भावनाओं को भले ही दरकिनार कर दिया गया हो, लेकिन उसके प्रावधानों को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। इन बदलावों को लेकर संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि यह राज्य के अधिकारों में हस्तक्षेप है। ऐसे बदलाव करने का अधिकार केन्द्र को नहीं क्योंकि यह विषय राज्य सूची में आता है। संविधान में कानून बनाने और नियमों में बदलाव करने के अधिकार तीन स्पष्ट सूचियों में बांटे गये हैं। कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर केवल केन्द्र ही निर्णय ले सकता है और कुछ ऐसे जिन पर केवल राज्य और अन्य कुछ विषयों को समवर्ती सूची में रखा गया है जिन पर केन्द्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं लेकिन टकराव की स्थिति में केन्द्र के निर्णय को ही अन्तिम माना जायेगा। मवेशियों के व्यापार से संबंधित कानून- कायदे बनाने का अधिकार संविधान ने स्पष्टत: राज्यों को ही दिया है। इसीलिए विशेषज्ञों की राय है कि राज्यों द्वारा न्यायालय में चुनौती दिए जाने पर ये बदलाव टिकेंगे नहीं। जिन राज्यों में भाजपा शासित सरकारें हैं, केन्द्र के इस हाउड़ा राज के चलते भले ही वे चुप्पी साध लें पर गैर भाजपा शासित राज्यों की सरकारों का इस मुद्दे पर केन्द्र से टकराव की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। नियमों में इन अव्यावहारिक बदलावों से लगता है कि वर्तमान शासकों को ब्यूरोक्रेट्स ने सलाह देना भी बन्द शायद इसलिए कर दिया है कि आगाह भी करेंगे तो ये मानेंगे नहीं।
इन बदलावों पर चार सप्ताह की पहली अंतरिम रोक 30 मई को मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ से आ भी गई। हालांकि यह रोक केन्द्र राज्य अधिकार क्षेत्र के आधार पर नहीं बल्कि व्यापक मानवीय हकों का हनन मानकर लगाई गई है। एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पीठ ने कहा है कि सरकार लोगों की खान-पान की आदतें तय नहीं कर सकती।
यह तो हुई संवैधानिक और नियम-कायदों की बात। इन बदलावों से प्रभावित संगठित-असंगठित व्यवसायों और असंगठित क्षेत्र के रोजगारों के संदर्भ में भी बात करना जरूरी है। विश्व व्यापार की बीड़ में आए भारत की विदेशी मुद्रा की मोटी आय मांस निर्यात पर निर्भर है। वर्ष 2015-16 में कुल 26,684 करोड़ और वर्ष 16-17 में 26,303 करोड़ रुपये का निर्यात केवल भैंस के मांस का किया गया है। मवेशी व्यापार में ये नये नियम लागू रहते हैं तो इस उद्योग में लगे लोगों का कहना है कि निर्यात के इस आंकड़े में भारी गिरावट आयेगी। केवल मांस का व्यापार ही प्रभावित नहीं होना है, चमड़ा, साबुन और ऑटोमोबाइल ग्रीस के उद्योग भी इन नये नियमों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे।
मांस निर्यात के प्लांट (बड़े स्तर के बूचडख़ाने और मांस पैकिंग की यूनिटें) देश के छह राज्यों (60 प्रतिशत से ज्यादा उत्तरप्रदेश में और शेष पंजाब, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना) में कार्यरत हैं। तथाकथित गो-रक्षकों के भय के चलते दुधारू मवेशियों को एक से दूसरे राज्यों में तो क्या एक से दूसरे शहर-कस्बों में ले जाना ही अब जोखिम भरा हो गया। नियमों में इन बदलावों के बाद नाकारा मवेशियों को भी इन प्लांटों तक पहुंचाना लगभग असंभव हो जायेगा।
संगठित और असंगठित क्षेत्र के इस व्यवसाय पर लाखों लोगों की आजीविका निर्भर है। इस व्यवसाय से जुड़े लोगों की मानें तो नियमों में इस बदलाव से 3 लाख करोड़ का स्वरोजगार प्रतिवर्ष प्रभावित होगा। गौर करने लायक बात यह भी है कि 2011 की जनगणना के अनुसार इस देश के 71 प्रतिशत लोग मांसाहारी हैं। मांसाहार और उसके व्यापार के लिए केवल मुसलमानों को ही भुंडाने वालों की जानकारी के लिए जनगणना के आंकड़े यह भी बताते हैं कि इस देश की कुल आबादी मेंं मुसलिम 14.2 प्रतिशत ही हैं। ऑल इंडिया मीट एंड लाइव स्टॉक एक्सपोर्टर एसोसिएशन के सेक्रेटरी जनरल डीबी सभरवाल की मानें तो मांस के इस व्यवसाय से आजीविका कमाने वालों में 70 से 80 प्रतिशत गैर मुसलिम हैं यानी दलित व अन्य ही ज्यादातर है।
पशुपालन और किसानी में लगे लोगों के बीच की रेखा बहुत झीनी है। प्रधानमंत्री ने घोषणा कर रखी है कि 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करनी है। नियमों में किए इन बदलावों के बाद पशुपालन में लगे किसानों की आय आधी से भी कम हो जायेगी क्योंकि या तो वे नाकारा पशुओं को आवारा विचरने को छोड़ देंगे या मंडी में मौल भाव की सुविधा समाप्त होने के चलते वे अपने नाकारा मवेशी चोरी-छिपे आधे-चौथाई दामों में बिचोलियों के माध्यम से बेचने को बाध्य हो जायेंगे। ऐसे में उनकी आय का एक मुख्य जरीया चुक जाना है, नाकारा मवेशियों के पूरे पैसे नहीं मिलेंगे तो नये मवेशी लाने की उनकी सुविधा भी बाधित होगी। आवारा पशुओं की समस्या फिलहाल भी कम नहीं है, आवारा मवेशियों के लिए काम करने वाली संस्थाओं के आंकड़े के अनुसार पूरे देश में वर्तमान में ही 50 लाख से अधिक मवेशी आवारा विचरण करते हैं। नये नियमों के लागू होने के बाद पशुपालकों ने नाकारा पशुओं को आवारा छोडऩा शुरू कर दिया तो पंचायतों और स्थानीय निकायों की पहले से ही खराब व्यवस्था चरमरा जायेगी, आमजन की परेशानियां इनसे बढ़ेंगी वह अलग।
समस्या नियमों और कानून-कायदों में बदलाव तक की ही नहीं है। इस सरकार को चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी की पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वह विचारधारा है जिसमें वे मानते हैं कि सवर्ण ही असली हिन्दू है, पिछड़े वर्ग के लोग उनके अनुगामी और दलित-आदिवासी मात्र रोबोट की भांति हैं जिन्हें उनके तय प्रोग्राम के अनुसार ही चलना है। वे राजनीतिक नफे-नुकसान की आशंका में ये बातें खुले तौर पर अब भले ही ना कहें पर इस नई सरकार के आने के बाद संघ, भाजपा और भाजपा के सभी सहोदरी संगठनों से प्रभावित लोग व्यवहार में चौफालिए (बेधड़क) होकर बरताव वैसा ही करने लगे हैं। यह अकारण नहीं है कि पशु क्रूरता निवारण अधिनियम में हाल में ही किए इन बदलावों से सर्वाधिक प्रभावित पिछड़े, दलित और कमजोर वर्गों के लोग ही होंगे। इस बार की सत्ता मिलने के बाद से ही इस विचारधारा के लोग अपने एजेंडे को लागू करने को उतावले दिखने लगे हैं। हालांकि मोदी और केन्द्र की सरकार इस उतावलेपन से खुश शायद इसलिए नहीं है कि कहीं यह दावं उनके लिए उलटा न पड़ जाए, अगर ऐसा हुआ तो जनता उन्हें 2019 में फिर से शासन नहीं सौंपेगी। ऐसे में वे अपने वैचारिक उद्देश्यों की पूर्ति करने से फिर वंचित हो जाएंगे। सत्ता की अनुकूलता मिलते ही इनकी दबी इच्छाएं उफान लेने लगी हैं और अब तो लगने लगा है कि इन पर सरकार का वश भी नहीं चल रहा है। इस असमंजस की वजह भी, मोदी और शाह यह भी अच्छी तरह समझते हैं कि ऐसी हिन्दुत्वी उम्मीदों के उफान पर सवार होकर वे केन्द्र की सत्ता पर काबिज हुए हैं और इसी उफान के चलते ही कुछ राज्यों में चुनाव जीत सके हैं। 1998 में भाजपानीत अटलबिहारी की पिछली सरकार और भाजपानीत नरेन्द्र मोदी की इस सरकार में बड़ा अन्तर यह भी है कि अटलबिहारी की सरकार हिन्दुत्व के उफान पर सवार होकर नहीं आयी थी, इसीलिए उनके शासन में देश की तासीर बदलने के खतरे नहीं देखे गये थे।
—दीपचन्द सांखला
1 जून, 2017

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