Friday, April 28, 2017

टीवी, अखबार, दीवाली और बाजार (20 अक्टूबर, 2011)

टीवी और अखबारों में इन दिनों तीन तरह की खबरें लगभग रोज ही देखी-पढ़ी जा सकती हैं। पहली हाई कोर्ट की सरकार को लगभग रोजाना ही कभी फटकार और कभी लताड़ की खबरें, खास कर भंवरी देवी अपहरण मामले में तो कभी-कभार आरक्षण मसले पर। दूसरी तरह की खबरें रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़े जाने की हैं। पाठकों को मालूम ही होगा कि रिश्वत लेना और रिश्वत देना दोनों ही अपराध की समान श्रेणी में आता है। बावजूद इसके आपने खबरों में शायद ही कभी पाया हो कि कोई रिश्वत देने की कोशिश करता पकड़ा गया।
तीसरे प्रकार की खबरों को आप सीजनल यानी मौसमी खबरें कह सकते हैं। मौसमी यानी त्योहारी। प्रथम नवरात्रा से दीवाली तक बाजारों में बहार होती है और भी हो तो टीवी, अखबार वाले यह बहार ले आते हैं या इसका भ्रम बनाये रखते हैं।
इन दिनों की, या कहें तो भारत में पिछले 25-30 सालों से अर्थव्यवस्था बाजार की अर्थव्यवस्था हो गई है। सबकुछ बाजार ही तय करने लगा और जो कुछ भी बाजार की चौधराहट से बचा है यकीन मानिये अगले कुछ समय में वो भी बाजार की जद में ही जायेगा।
टीवी और अखबार जिन्हें मीडिया भी कहा जाता है। इस मीडिया का खड़ा किया यह बाजार किनके लिए है? उनके लिए ही ना जिनका अपना छोटा-मोटा या दंद-फंद के चलते भारी भरकम किसी किसी प्रकार का व्यवसाय या उद्योग है, राजनीति में अपनी ठीक-ठाक हैसियत है, या छठे वेतन आयोग के बाद ईमानदारी से मिलने वाली तनख्वाह है और इसमें भी ऊपर की कमाई हो तो फिर कहना ही क्या? इसके अलावा भी इन दिनों खासकर शहरों में एक और प्रोफेशन रंग दिखाने लगा है। वह है दबंगई के चलते रंगदारी और यदि दबंग थोड़ा पॉलिश्ड हो तो उसका जमीनों संबंधी काम। इन सबको यहां खोलने का मकसद यह है कि यह बाजार जिसकी रंगत मीडिया से रोशन है, मोटा-मोट उन्हीं के लिए है जिन वर्गों का ऊपर उल्लेख किया है। और यह सभी लोग हमारे देश की आबादी का मात्र 20 से 25 प्रतिशत भी नहीं होते हैं।
हमने कभी इस पर विचार किया कि बाजार की यह त्योहारी रोशनी इस एक माह में बाकी के लगभग पचहत्तर-अस्सी प्रतिशत लोगों के साथ क्या कुछ कर गुजरती है? वो 75-80% लोग जो इस बाजार की रेस में शामिल होने की क्षमता नहीं रखते। ऐसे परिवार का मुखिया इसी जद्दो-जहद में लगा रहता है कि अपने ही परिवार के सामने उस पर अक्षम होने का लेबल चस्पा हो। ऐसे समय में वो अपना और अपने परिवार का मन-मसोसने में कामयाब होता है तो ठीक अन्यथा उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जो इस कुचक्र से निकलने के भ्रम में छोटे-मोटे आर्थिक-अनार्थिक आपराधिक कुचक्र का हिस्सा बन जाते हैं और जो ऐसा भी नहीं कर पाते हैं वो मरने को प्रेरित होते ह्ंैरजबकि इस तरह से मरने को कायरता कहा गया है। ऐसी कायरता के प्रमाण रूप में कल ही एक लाश शहर के पब्लिक पार्क में मिली है।
एक छोटे समूह और बाकी की आबादी के बीच इस बाजारवाद के चलते गहरी होती जा रही इस खाई को पाटने का या कम करने का विचार किसी के भी एजेण्डे में नहीं दीखता है। शायद यही इस समय की सबसे बड़ी विडंबना है।

वर्ष 1 अंक 53, गुरुवार, 20 अक्टूबर, 2011

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