Tuesday, April 25, 2017

आन्दोलित होने को आतुर अन्ना ( 05 अक्टूबर, 2011)

अन्ना न्दोलित होने को फिर से आतुर हैं। जिस गांधी के नाम पर अन्ना अपनी दिनचर्या, जीवनचर्या और आन्दोलनचर्या चलाने की कोशिश में रत हैं, लगता है वे उस पर ज्यादा गंभीर नहीं हैं।
गांधी का कोई भी आन्दोलन और उपवास मौके का फायदा उठाने या अनुचित दबाव के लिए नहीं होता था। चोरी-चोरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन लेना या दूसरे विश्वयुद्ध के समय मित्र राष्ट्रों के प्रति गांधी का नैतिक समर्थन इसके दो बड़े उदाहरण हैं, जबकि मित्र राष्ट्रों का नेतृत्व करने वालों में ब्रिटेन भी था। इन दोनों ही मुद्दों पर उस समय गांधी की बड़ी आलोचना भी हुई थी। लेकिन सत्य को अन्तिम कसौटी मानने वाले गांधी को समय ने सही साबित किया। गांधी किसी भी साध्य के लिए साधनों की शुद्धता और पवित्रता से राई-रत्ती समझौता नहीं करते थे।
विनायक ने 27 अगस्त के अंक मेंआज की बात में अन्ना को मासूम और निर्मल मन की शख्सीयत बताया था, और आज भी कायम है, और अन्ना हैं भी। लेकिन मुद्दों पर उनकी स्पष्ट वैचारिक सोच का होना चिंता का बड़ा कारण है।
अन्ना को यह समझ लेना चाहिए कि उन को मिला अपार जनसमर्थन भ्रष्टाचार के खिलाफ है कि जनलोकपाल बिल के समर्थन में। दूसरा यह कि संसद में कैसे भी लोग पहुंच गए हों, वे पहुंचे एक संविधान सम्मत लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही हैं। इसलिए कोई भी संविधान संशोधन और कानून बनाने का हक केवल संसद को ही है। क्योंकि भारत राष्ट्र राज्य के वर्तमान संवैधानिक स्वरूप में संसद से ऊपर कोई नहीं है।
मान सकते हैं कि लोकपाल बिल को लेकर पिछली सभी सरकारों की मंशा मैली या लापरवाह रही है। लेकिन अन्ना के पिछले अनशन के बाद सरकार ने जो आश्वासन दिए हैं उस पर एक समय सीमा तक इंतजार तो किया ही जाना चाहिए।
नहीं तो होगा यह कि चुनाव जिस तरह से हमारे यहां होने लगे हैं उस तरीके में जिसके भी और जिस तरह भी ताबे लगेगी वो अन्ना का उपयोग कर लेगा। तब संभावना यह बनेगी कि जिस तरह अन्ना के पिछले अनशन के ग्यारहवें दिन किरण बेदी की कुंठा मंच पर जाहिर हुई थी वैसा ही दृश्य भविष्य में अन्ना भी दिखाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
अन्ना सभी कोणों से विचार करके यदि कोई निर्णय लेंगे तभी वह भ्रष्टाचार के खिलाफ और देश के हित में होगा। नहीं तो व्यवस्था से त्रस्त जो लोग बिना किसी राजनीतिक आग्रहों के और निर्मल मन से अन्ना के साथ हुए हैं उनकी उम्मीदें चकनाचूर होते भी देर नहीं लगेगी। अगर ऐसा होगा तो वह समय देश के लिए अच्छा नहीं होगा। पता नहीं देश फिर कब जगेगा?
वर्ष 1 अंक 40, बुधवार, 05 अक्टूबर, 2011


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