वर्ष 2014 के लोकसभा
चुनावों से पूर्व और दिसम्बर, 2013 में राजस्थान
सहित पांच विधानसभा चुनाव के परिणामों के बाद डूबती कांग्रेस के कारणों पर चर्चा
करते हुए सांध्य दैनिक 'विनायक' ने 18 जनवरी, 2014 के अपने अंक में
'जिसे डूबना हो डूब जाते
हैं सफीनों में' शीर्षक जो
सम्पादकीय लिखा था, उसी आलेख को
उत्तरप्रदेश सहित हाल के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणामों के बाद
पुन: पढ़ा जा सकता है। बल्कि 2014 में हुए लोकसभा
चुनावों और बाद में आए छिटपुट चुनाव परिणामों में कांग्रेस की लगातार होती दुर्गति
तब के 'विनायक' के इस सम्पादकीय की पुष्टि ही करती दीखती है।
हाल ही के चुनाव परिणामों के बाद भी कांग्रेस अपने को नहीं संभालती है तो मोदी
एण्ड शाह एसोसिएट के 'कांग्रेस मुक्त
भारतÓ के नारे को वह पुष्ट ही
कर रही होगी। व्यावहारिक भारतीय राजनीति को कांग्रेस अब तक किसी न किसी चामत्कारिक
व्यक्तित्व के भरोसे जिस तरह हांकती रही है, उसमें राहुल गांधी कहीं फिट नहीं होते दिख रहे हैं।
राजनीतिक विकल्पहीनता के चलते देश का लोकतंत्र जैसी भी दुर्गति को हासिल होगा उसकी
बड़ी जिम्मेदार कांग्रेस को भी माना जाएगा। वही कांग्रेस जिसकी संगठनात्मक क्षमता
के भरोसे ही देश को आजादी हासिल हुई थी। खैर! 'विनायक' तीन वर्ष से भी
ज्यादा पुराने इस सम्पादकीय को उसी पुराने शीर्षक के साथ पाठकों के लिए पुन:
प्रकाशित करना प्रासंगिक मान रहा है।
'चूहों की बेचारगी की एक कथा प्रचलित है जिसमें बिल्ली के उन
पर झपटने और खाए जाने से बचने की युक्ति तो उन्हें सूझ गई पर ये नहीं सूझा कि
युक्ति के अनुसार बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौने? ऐसी-सी बेचारगी इन दिनों तमाम कांग्रेसियों में
देखी जा सकती है, बल्कि इनकी
स्थिति तो और भी बदतर है। अपने तईं ये सभी जानते हैं कि 2014 के चुनाव का बेड़ा राहुल गांधी के चलते पार
नहीं लगने वाला, बावजूद इसके इस
बात की हिम्मत कोई नहीं कर रहा—जो कहे कि नेतृत्व के अन्य किसी विकल्प पर विचार तो कर लें। लगता है सभी
कांग्रेसी प्रणव मुखर्जी के 1984 के सबक को हिये से लगाए बैठे हैं, सभी जानते है कि नेतृत्व की आकांक्षा करने भर से ही मुखर्जी
को पार्टी से बाहर का रास्ता देखना पड़ा गया था।
राहुल को प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित ना करने की
रणनीति चाहे किसी कारण हो पर सभी जानते हैं कि बिल्ली के भाग का छींका यदि टूट गया
तो दही पर लपकने का विशेषाधिकार किसे होगा? पांच में से चार विधानसभाई चुनावों के बाद और आगामी लोकसभा
चुनावों से पहले कल दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक हुई जिसमें
राहुल गांधी लगभग 'जंजीरी' अमिताभ के रूप में प्रकट हुए। चूंकि राहुल अपने
अमित अंकल की तरह अभिनय में पारंगत नहीं हैं सो कल भी और इससे पहले की विभिन्न आम
सभाओं में इस रूप के पूर्वाभ्यासों में भी वे बनावटी लगते रहे हैं। राहुल को अभी
तक यह समझ नहीं आया है कि कांग्रेस इस गत में पहुंची कैसे और यह भी कि जिन अधिकांश
कांग्रेसियों को इसकी समझ है वे या तो चूहों की सी सहमी और भयभीत स्थिति में हैं
या जो चतुर हैं वे सभी उस कथा के दरबारी की तरह हैं जिसमें राजा को एक चतुर द्वारा
सुझाई गई 'अदृश्य पोशाक'
पहन कर दरबार में आने पर
उन्हें नंगा कहने की हिमाकत कोई दरबारी इसलिए नहीं करता कि रहना इसी रियासत में है
सो राजा को नाराज कौन करे।
राहुल की मां और सप्रंग चेयरपर्सन सोनिया गांधी भली महिला
लगती हैं। उन्हें भी असल स्थिति का भान नहीं है, जितना उन तक पहुंचाया जा रहा, वह उसे ही सच मान रही हैं। कांग्रेसी इमारत को दरकने से
बचाने की जिन टगों का जिक्र कल राहुल ने उक्त बैठक में किया, लगता नहीं है उनमें से कोई उसे बचाने में कारगर
होगी। महंगाई-भ्रष्टाचार कम करने का भरोसा, महिलाओं को पुरुषों के समान भागीदारी, 'आपÓ पार्टी की तर्ज पर लोगों से पूछ कर उम्मीदवार तय करना और
चुनावी घोषणापत्र बनाना, अनुदानित एलपीजी
सिलेंडरों को बढ़ाने जैसे उपायों से ही कुछ होना जाना था तो कम से कम राजस्थान में
कांग्रेस इक्कीस विधायकों के आंकड़े में नहीं सिमटती। कांग्रेस नेतृत्व में पिछले
दस साल से केन्द्र में चल रही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार की साख दरअसल इस
कदर खराब हो चुकी है कि बड़े-बड़े निष्पक्ष विशेषज्ञों को भी इस खराबे से उबरने के
उपाय नहीं सूझ रहे हैं। राहुल के सलाहकार प्रतिभाहीन-प्रतिभाशाली जैसे भी हों वे
सब सिर्फ और सिर्फ ठकुर-सुहाती कहने में लगे हैं और राहुल उस विवेकहीन निर्वस्त्र
राजा की मुद्रा में। विडम्बना देखें कि राहुल की ऐसी मुद्रा पर कांग्रेसियों के
चेहरों पर हंसी तो दूर मुसकराहट की सहज प्रतिक्रिया भी नहीं देखी जा रही है। ऐसे
में 'विनायक' असदुल्लाह खां साहब 'गालिब' का स्मरण भर ही कर सकता है।'
मुझे रोकेगा तू ऐ नाखुदा गर्क होने से
कि जिसे डूबना हो डूब जाते हैं सफीनों में
—दीपचन्द सांखला
16 मार्च, 2017
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