Thursday, February 9, 2017

गृहस्थ-योगी पं. बंशीधर बिस्सा

'माघ सुदी 9 सं. 1992 तद्नुसार 1 फरवरी, 1936 को अपने जन्मदिन पर बड़ों का आशीर्वाद लेने व लोगों से मिलने मरोट (अब पाकिस्तान में) जाने का विचार किया, इसी बीच मरोट पंचायत का पत्र मिला जिसमें मरोट के उत्तर दिशा में स्थापित आवड़माता (मावडिय़ोंजी) के मन्दिर में मुसलमान पुजारियों के बारे में निर्णय लेने के लिए बुलाया गया था। यह पत्र छठ की सायं मिला। सप्तमी-अष्टमी तिथि संयुक्त थी, मावडिय़ोंजी का वार्षिक मेला उसी दिन था। मरोट मैं उसी दिन दोपहर पहुंचा, मेले से वापस आकर लगभग सारी जातियों के लोग (पिता के देहावसान पर) संवेदना प्रकट करने आये।
नवमी को प्रात: मन्दिर व घर की दीवार से सटी हुई सामदरा पीर की दरगाह के दर्शन और बड़ों का आशीर्वाद लेकर काजी साहब परिवार के सरदारशाहजी के घर गया। उन्होंने मुझे गले से लगाकर जिस तरह अपना दु:ख प्रकट किया उसका वर्णन करना ही मुश्किल है। मुझे लगा कि पिताजी की मृत्यु का सबसे ज्यादा दु:ख उन्हीं को हुआ। उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया। काजी साहब मेरे दादाजी से पांच दिन छोटे और अविवाहित थे। पिताजी उन्हें चाचाजी और मैं दादाजी सम्बोधन करता था। दोपहर बाद पंचायत इलाके के मुसलमानों के साथ पुजारी इब्राहिम मेरे घर के सामने स्थित चौक में आ गये। इससे पहले मैंने अपने दादाजी व चाचाजी को बता दिया था कि पुजारी हटाना सही नहीं है। मैंने दादाजी से कहा कि मेघराजजी के आप पोते हैं व मैं पांचवीं पीढ़ी में हूं। उनकी तपस्या के फलस्वरूप मरोट के मुसलमान मावडिय़ा और क्षेत्रपाल आदि देवताओं को मान रहे हैं।
पंचायत ने मुझे निर्णय देने का जिम्मा दिया और मैंने बड़ों को नमस्कार करके अपना मन्तव्य प्रकट करके कहा, पुजारी इब्राहिम ही रहेंगे। मैं अपने पूर्वज द्वारा नियुक्त किये गये को हटाने के लिए तैयार नहीं हूं, इस पर सबने मुझे धन्यवाद दिया। 80 वर्ष के पुजारी इब्राहिमजी ने खड़े होकर कहा, मेघराज बिस्सा अमर है, इस लड़के ने यह साबित कर दिया है। उसके बाद काजी सरदारशाहजी ने कहा कि वे इस दुनिया को पैदा करने वाले का शुक्रिया अदा करते हैं और दरख्वास्त करते हैं कि इस मेघराजजी खानदान की शान बनाए रखें।'
                                                     —पं. बंशीधर बिस्सा 
                   (इस घटना के समय पं. बिस्सा 19 वर्ष के थे)

उक्त पाठ विनायक सांध्य दैनिक में क्रमश: प्रकाशित होने वाले पं. बंशीधर बिस्सा के कॉलम 'विगत आलेखन' की उस अन्तिम और अप्रकाशित कड़ी का हिस्सा है जिसे अस्वस्थता की वजह से वे दे नहीं पाए। इसका कच्चा प्रारूप उनके निधन के बाद कागजों में मिला है। इससे पूर्व में कॉलम की जो चौदह कड़ियां प्रकाशित हुईं वे उनके निजी-पारिवारिक जीवन से संबंधित थीं। इस अप्रकाशित कड़ी तथा बाद की कडिय़ों से ही उनके सार्वजनिक जीवन की जानकारी संभवत: मिलने वाली थी।
अपने को लेकर बेहद अन्तर्मुखी और संकोची पं. बिस्सा अपने सामाजिक-सार्वजनिक अवदानों के बखान से बचते थे। जब-तब सुनाए संस्मरणों से उनके ऐसे अवदान को बरामद करना मुश्किल थाएक तो अपने बारे में कहने से वे बचते थे, दूसरा उनके अन्तिम पन्द्रह वर्षों में जब मैं संपर्क में आया तब उनका कहा कुछ अस्पष्ट पाया। उनके संस्मरणीय भण्डार से लाभान्वित होने का अवसर तब आया जब 'विनायक' का सांध्य दैनिक के तौर पर प्रकाशन शुरू किया और उनसे आग्रह किया कि वे अपने संस्मरणों को विगतवार लिख दें। इस आग्रह को उन्होंने बहुत संकोच के साथ स्वीकारा जिसकी एक वजह बाद में पता चली कि गद्य में लिखने का औपचारिक अभ्यास उनका नहीं था। फिर भी उन्होंने लिखना शुरू किया। ऐसा लगता है उन्हें कुछ आयु और मिलती और कुछ समयतक वे स्वस्थ रहते तो बीकानेर के स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित गतिविधियां और आजादी बाद की राजनीतिक घटनाओं और लोककल्याणकारी योजनाओं का छिपा तलपट काफी कुछ सामने आता।
'विगत-आलेखन' की उक्त अप्रकाशित कड़ी के अंश से आलेख की शुरुआत इसलिए जरूरी लगी कि समाज में आज जब साम्प्रदायिक सौहार्द ताक पर है तब पं. बिस्सा जैसी साख वाले व्यक्तियों की जरूरत ऐसे समय में कुछ ज्यादा ही है।
अपनी युवावस्था के उत्तराद्र्ध में मित्र बने शान्तिप्रसाद बिस्सा के पिता पं. बंशीधर बिस्सा का थोड़ा बहुत जो सान्निध्य हासिल हुआ उसमें यह लगा कि पं. बिस्सा कुछ अलग हैं और गृहस्थ जीवन में भी वे योगी सा जीवन जीते है, कभी-कभार यूं भी लगता वे हठयोगी भी हैं।
देश की आजादी के आन्दोलन में गांधी से प्रभावित पं. बिस्सा को बीकानेर के स्वतंत्रता सेनानी रघुवर दयाल गोयल का सान्निध्य मिला और इसी वजह से वे यहां के अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के सम्पर्क में रहे बल्कि वक्त जरूरत उनके सहयोगी भी रहे। ऐसे ही प्रभावों से उनका पहनावा आजीवन ना केवल खादी का रहा बल्कि अपनी पोशाक की धुलाई भी वे खुद करते थे और बिना इस्तिरी की मदद के अपने धोती-कुरते की सलवटें हथेली से निकालते भी देखे गये। खान-पान के मामले में जिद की हद तक संकल्पी थे। उनके खाने के समय एक बार घर पहुंचा तो देखा कि लकड़ी की सुन्दर बनी थाली वैसी ही थी जैसी पीतल-गिल्ट की थालियां हुआ करती थीं। तभी पता चला कि खाने के समय को लेकर वे इतने आग्रही थे कि पांच-सात मिनट की देरी पर ही उद्वेलित हो जाते! एकबार उन्होंने संकल्प कर लिया कि वही खान-पान ग्रहण करेंगे जिनका अग्नि स्पर्श न हुआ हो यानि सब कुछ कच्चा और इस संकल्प को उन्होंने तीन वर्ष निभाया।
आजादी बाद के एक दौर में जब स्वतंत्रता सेनानी का तमगा अंधिकाशत: सरकारी साधनों को भोगने का माध्यम बन गया और किसी असल सेनानी को कभी छूने भर से स्वतंत्रता सेनानी हो लेने की एषणाएं जोर मार रही थी तब पं. बिस्सा ने स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र हासिल करने का आवेदन तक नहीं किया। ऐसा शायद इसलिए कि देश के लिए कुछ भी किए को उन्होंने कर्तव्य माना होगा और वहीं उनके खास मित्र और गंगासिंह शासन में तीव्र यातना भोग चुके स्वतंत्रता आन्दोलन में बीकानेर के सिपाही दाऊदयाल आचार्य भी प्रेरक रहे होंगे जिन्होंने भी स्वतंत्रता सेनानी के तमगे की इच्छा कभी नहीं पाली। आजादी बाद पं. बिस्सा पंचायतीराज संघ में कार्यालय मंत्री रहे, खादी के लिए काम किया और राजस्थान में सहकारिता के आधारभूत ढांचे के निर्माण के वे नियंताओं में भी रहे और जब लगा कि यह सब काम रस्म अदायगी भर को हो रहे हैं तो परिवार पालक आजीविका के लिए पिता की प्रेरणा से जो ज्योतिष उन्होंने सीखी उसे ही पुरुषार्थ के तौर पर अपना लिया और जीवन के अन्तिम दिनों तक यानी 96 की वय तक परिजनों पर निर्भर नहीं रहे। इतना ही नहीं, परिजनों और परार्थ हेतु वे कुछ छोड़कर ही गये हैं। कृतज्ञता का बोध इतना था कि अंत तक अपने ज्योतिष गुरु शिवरतन छंगाणी (सीनजी) का बिना फोटो देखे अपने दिन की शुरुआत नहीं करते थे।
पं. बिस्सा के समय-संकल्प के सकारात्मक पक्ष की बानगी भी देखी है। आपके कॉलम विगत-आलेखन की हस्तलिखित प्रतियां सामान्यत: उनके पुत्र और मेरे मित्र शान्तिप्रसाद बिस्सा पहुंचाया करते थे। एक बार ऐसी व्यवस्था बैठ नहीं पाई तो वे अपनी नब्बे पार की उम्र में ऑटोरिक्शा से कॉलम पहुंचाने स्वयं प्रेस पहुंच गये। जब उनसे कहा कि फोन कर देते तो मंगवा लेता, जवाब में वे बस मुसकरा दिए।
पं. बिस्सा की छवि धीर-गंभीर व हठी-संकल्पी की ही नहीं थी। अवसर मिलने पर मजाक करने से भी नहीं चूकते थे। एक बार प्रेस के एक सहयोगी जो उनका घर नहीं जानते थे, किसी साहित्यिक आयोजन का उनके पुत्र के नाम का निमंत्रण देने उनके घर पहुंचा। पंडितजी घर के बाहर ही खड़े थे। पत्रवाहक ने उनसे पूछाशान्तिप्रसादजी का घर यही है क्या? एकबार तो उन्होंने हुंकारा भर कार्ड थाम लिया लेकिन ज्योंही अपने वाहन को स्टार्ट कर वह रवाना होने को हुआ पंडितजी ने आवाज दे वापस बुलाया और मुसकराते हुए कह दिया—'यह घर अभी तक मेरा ही है।' उनके इस कथ्य को कोरा मजाक मानना भी उचित नहीं होगा। उनका मकसद मजाक में तथ्य को दुरुस्त करना भी था क्योंकि वह घर तब तक उन्हीं के नाम था। ऐसी फितरत हर खरे आदमी में होती ही है।
थोड़ी अस्वस्थता के बाद 12 जनवरी, 2012 को पं. बिस्सा का निधन यदि नहीं होता तो देर से मिल पाए उनके सान्निध्य की व्यक्तिगत भरपाई तो मेरे लिए कुछ होती ही, 'विनायक' के पाठक भी उनके लिखे कॉलम से लाभान्वित होकर आजादी पूर्व और आजादी बाद के उनके सार्वजनिक व निजी अनुभवों से वाकिफ होते, इतना ही नहीं 12 फरवरी 1916 को जन्मे पं. बिस्सा 12 फरवरी, 2017 को शतायु भी हो जाते। उनकी स्मृति और उनसे मिले स्नेह को प्रणाम।

9 फरवरी, 2017

1 comment:

Rajendra said...

दीप जी आपका यह आलेख इतने दिनों बाद पढ़ पाया।
अतीत का जैसा वृतांत आपने पं. बंशीधर बिस्सा के लेखन के जरिये हम तक पहुंचाया उसके लिए आपको सलाम।