Thursday, September 29, 2016

संस्कृति-प्रेमी राजनेता अशोक गहलोत ???

शनिवार, एक अक्टूबर को पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बीकानेर में होंगे। अवसर है कवि-गीतकार हरीश भादानी के पांच खण्डों में प्रकाशित रचना समग्र के लोकार्पण का। 2 अक्टूबर, 2009 को जब भादानी का निधन हुआ उस दिन भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बीकानेर में ही थे, उन्हें जब मालूम हुआ तो वे संवेदना प्रकट करने भादानी के आवास पर पहुंचे।
अशोक गहलोत उन गिने-चुने राजनेताओं में माने जाते हैं जिन्हें यह समझ है कि पत्रकारिता और सांस्कृतिक क्षेत्र में सक्रिय लोगों की समाज को कितनी जरूरत है। उनमें भी कौन कितनी पात्रता रखता है, इसका भान भी गहलोत को भली-भांति है। इसकी पुष्टि वे अपनी उबड़-खाबड़ राजनीतिकचर्या से पलट जब-तब करते हैं।
लेकिन क्या एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में शासन और शासकवर्ग की ओर से इतना भर पर्याप्त होता है, नहीं होता। ऐसी समझ भारत के राजनेताओं में से जिनमें सर्वाधिक देखी गई, वह देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे। उन्होंने अपने शासन में शिक्षा, साहित्य, संगीत, कला और अन्य सांस्कृतिक क्षेत्रों से संबंधित संस्थानों, विश्वविद्यालयों और अकादमियों की स्थापना का महती काम किया। इतना ही नहीं, लोकतांत्रिक मूल्यों में अपने दृढ़ विश्वास के चलते उन्होंने सभी संस्थानों का स्वरूप ऐसा बनाया कि किसी भी ऐसी इकाई में शासन का हस्तक्षेप न हो। वे अपनी पूरी स्वायत्तता से काम कर सकें और निश्चित अवधि में होने वाले नियन्ताओं को बदलने में किसी भी तरह के बाहरी दबाव को न झेलना पड़े।
यह सब इसलिए लिखा जा रहा है कि अशोक गहलोत इन मामलों में अपने अधिकांश समकक्षों से बेहतर तो हैं लेकिन दो बार सूबे के मुखिया रहने के बावजूद ऐसा कुछ भी करने का समय वे नहीं निकाल पाए कि राजस्थान की अकादमियां, सांस्कृतिक संस्थान और विश्वविद्यालय पूर्ण स्वायत्तता से काम कर पायें। ऐसी व्यवस्था न कर पाने का कोई बहाना इसलिए नहीं हो सकता कि आपकी मंशा यदि होती तो ऐसा करने की गुंजाइश निकाली जा सकती थी। गहलोत के पहले कार्यकाल की शुरुआत में राजस्थान की अकादमियों के ढांचे को लेकर एक आलेख सूबे के एक बड़े अखबार के लिए नन्दकिशोर आचार्य ने लिखा था। आचार्य ने राजस्थान की अकादमियों में राजनैतिक और ब्यूरोक्रेटिक हस्तक्षेप और उनकी दुर्दशा पर चिन्ता प्रकट करते हुए सुझाव दिया था कि इनके गठन का स्वरूप नेहरू द्वारा स्थापित साहित्य अकादमी, दिल्ली जैसा कर दिया जाना चाहिए। पता नहीं उस आलेख का फीडबैक तब गहलोत तक पहुंचा या नहीं, नहीं भी पहुंचा है तो उनके 'पीआर' की ही कमी थी। लेकिन यह सब करना तो दूर, उनके दोनों कार्यकाल में संस्कृति और अकादमियों से संबंधित काम अंतिम प्राथमिकता में रहे। इस तरह की सजगता न हो तो काबिल संस्कृतिकर्मियों के प्रति उनकी यदाकदा की सदाशयता के मात्र प्रदर्शन को चतुराई से ज्यादा नहीं माना जायेगा।
बीकानेर के संदर्भ से ही बात करें तो यहां के रवीन्द्र रंगमंच का निर्माण पिछले चौबीस वर्षों से चल रहा है। यानी जो काम दो-ढाई वर्ष में निबट जाना था उसे इस स्थिति में पहुंचा देने को क्या कहेंगे। इन चौबीस वर्षों में दस वर्ष गहलोत के नेतृत्व की सरकारें रहींअपने मुख्यमंत्रित्व काल में गहलोत कई दफे बीकानेर आए। हर बार नहीं तो कई बार इस रंगमंच निर्माण की दुर्दशा के बारे में उन्हें जानकारी दी गई। पर नहीं लगता उन्होंने कभी शहर की इस सांस्कृतिक जरूरत को गंभीरता से लिया हो। अलावा इसके राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति की एक अकादमी बीकानेर में ही है, भवन के अलावा उस अकादमी का कोई अस्तित्व बचा भी है क्या। एक-एक करके इस अकादमी के लगभग सभी कार्मिक सेवानिवृत्त हो लिए। कई तो गहलोत के कार्यकाल में ही सेवानिवृत्त हुए। क्या कभी जरूरत समझी गई कि यह अकादमी सुचारु रूप से काम करे। कमोबेश ऐसी दुर्दशा को प्राप्त होने को प्रदेश की दूसरी अकादमियां भी हैं।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में कुछ बेहतर कर गुजरने के अवसर कभी-कभार ही हासिल होते हैं। उम्मीद करते हैं कि गहलोत जैसे संवेदनशील राजनेता को वैसा अवसर फिर मिले। लेकिन इस उम्मीद की उम्मीदें भी कई हैं। वे उम्मीदें इसलिए भी हैं कि प्रदेश में गहलोत अकेले ऐसे राजनेता हैं जो किसी भी गांव, तहसील, जिले में चले जाएं आज भी ऐसे सैकड़ों लोग मिल जाएंगे जो उचककर अशोक गहलोत को अपना चेहरा दिखाना चाहते हों। ऐसे में क्या यह उम्मीद करें कि उन्हें सूबे की मुखियाई फिर मिले तो वे अपने को सही मायने में संस्कृतिप्रेमी राजनेता साबित कर पाएंगे। क्योंकि ऊपर दिए गए सभी उलाहनों के बावजूद ऐसी उम्मीदों की गुंजाइश प्रदेश के किसी राजनेता में है तो फिलहाल अशोक गहलोत में ही नजर आती है।

29 सितंबर, 2016

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