Thursday, July 28, 2016

चुनाव तो अभी दूर, फिर भी जबानी लप्पा-लप्पी में संकोच कैसा --(3)

बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र के संभावित उम्मीदवारों की चर्चा में कुछ और नामों के बिना बात अधूरी रह सकती है। सत्यप्रकाश आचार्य के शहर अध्यक्ष बनने के बाद उनसे उम्मीद रखने वालों में से कई उन्हें अगला विधायक बतलाने लगे हैं। वृद्ध होते सत्यप्रकाश आचार्य वयोवृद्ध गोपाल जोशी को दो बार टिकट मिलने के बाद उम्र को आड़ भले ही ना मानें लेकिन 1998 के चुनाव में पार्टी उम्मीदवार रहते जमानत जब्ती के साथ उनकी हार जरूर आड़े आ सकती है। लेकिन इन वर्षों में जिस तरह की राजनीति होने लगी है उसमें कुछ भी संभव है। अब देख लें तीस से ज्यादा वर्षों तक जयपुर में शासन सचिवालय की नौकरी भोगते और वहां के कर्मचारी वर्ग की नेतागिरी करने वाले बड़बोले महेश व्यास पिछले दो चुनावों से बीकानेर पश्चिम से भाजपा के टिकट की उम्मीद करते आए हैं। लगभग जयपुर के हो चुके व्यास पैराशूटी उम्मीदवार बनने का मन इसीलिए रखते हैं कि इस राजनेताई व्यवसाय में जबरदस्त पोल है और जनता इस पोल में बजने वाले ढोल से बेपरवाह।
एक अन्य कर्मचारी नेता भंवर पुरोहित भी बीकानेर पश्चिम से ही चुनावी राजनीति करने की इच्छा पालते हैं। ऐसा सुना भी जा रहा है कि सेवानिवृत्ति बाद के आर्थिक हितों के सुरक्षित हो जाने के साथ ही अगले चुनावों से पूर्व ही वीआरएस लेकर चुनावी अखाड़े में उतरने के लिए लंगोट वे भी बांध लेंगे। कर्मचारियों की नेतागिरी के साथ वे अब शहरी समस्याओं के मुद्दे भी लगातार उठा रहे हैं। लेकिन इस बात में भी दम है कि इस तरह के 'फे्रशर' के लिए प्रतिष्ठ पार्टी का टिकट बिल्ली के भाग का छींटा टूटने से कम नहीं होगा।
उक्त क्षेत्र के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार की बात करें तो डॉ. बुलाकीदास कल्ला और उनके अग्रज जनार्दन कल्ला अपनी तीसरी बार की हार के बावजूद पूरे आत्मविश्वास के साथ खड्डे भरने में लगे हैं। इस खड्डा भराई के दौरान उन्हें यह अहसास भी हो रहा होगा कि ये खड्डे खोदे हुए भी उन्हीं के द्वारा हैं, जिनके कारण राजनीतिक प्रतिष्ठा के इस मुकाम पर भी वे बार-बार हार जाते हैं। डॉ. बीडी कल्ला के आत्मविश्वास का कारण प्रदेश राजनीति में उन्हें हासिल प्रतिष्ठा भी है। लेकिन राहुल गांधी जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं उसके अन्तर्गत तय नीतियों पर वे आंखों पर पट्टी बांधे रहते हैं, हालांकि ऐसे में वे भूल जाते हैं कि राजनीति में सफलता के लिए लिहाज भी कम कारगर नहीं होता। लगातार दो बार की और कुल तीसरी बार की अपनी हार को भी कल्ला बंधु नकारात्मक नहीं मान रहे हैं तो वे राहुल गांधी के तौर-तरीकों के हिसाब से भूल ही कर रहे हैं। और यदि उन्हें राहुल के तौर-तरीकों का अंदेशा है तो वे अपने ही किसी वारिस का नाम आगे करने का मन जरूर बना चुके होंगे, चाहे दोनों भाई आपस में इसकी चर्चा ना भी करते हों। कल्ला बन्धुओं की राजनीति का मानस ठेठ सामन्ती है, इसलिए किसी गैर पारिवारिक को आगे बढ़ाने का वे सोच भी नहीं सकते, कोई 'पर' निकालता भी है तो उसके 'परÓ इस निर्ममता से काटते हैं कि वह इनका आजन्म विरोधी हो जाता है। ऐसे गंभीर घाव वालों की फेहरिस्त कोई छोटी नहीं।
बीकानेर पश्चिम से अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के अन्य संभावित उम्मीदवारों की चर्चा डॉ. बीडी कल्ला का नाम सिरे से खारिज होने की स्थिति समझकर ही की जा सकती है। हालांकि डॉ. कल्ला को जानने वाले यह कहने से नहीं चूकते कि कैसी भी स्थितियां हों, डॉ. कल्ला इन सबके बावजूद अपनी अनुभूत तरकीबों से टिकट ले ही पड़ेंगे। फिर भी, राहुल गांधी अपनी पर ही अडिग रहे और प्रदेश पार्टी अध्यक्ष की अन्तिम नकारात्मक सूची में डॉ. कल्ला रह गए तो दोनों भाई ये हरगिज नहीं चाहेंगे कि शहर कांग्रेस राजनीति की दूजती गाय किसी और घर में बंधे या दूसरे तरीके से कहें तो पिछले सैंतीस-अड़तीस वर्षों से जो आर्थिक साम्राज्य उन्होंने खड़ा किया उसका कवच वे हरगिज छिनने नहीं देंगे।
मक्खन जोशी, गोपाल जोशी और ओम आचार्य के यहां राजनीतिक वारिस का तय होना जितना आसान है उतना आसान कल्ला परिवार मेंं नहीं है। ऐसा माना जाता है कि खुद डॉ. कल्ला के दोनों पुत्रों की राजनीति में रुचि और काबिलीयत ऐसी नहीं है कि वे पिता की राजनीतिक विरासत को संभालें। रुचि और काबिलीयत हो तो भी शहर का सब कुछ जिन बाबा जनार्दन को सौंप कर पिता के साथ वे जयपुर में सुख भोगते रहे हैं, ऐसे में गुंजाइश ही कहां कि वे यहां आकर कुछ हासिल कर सकें।
डॉ. बीडी कल्ला की ओर से यहां अच्छा-बुरा सब कुछ 'भाईजी' जनार्दन एण्ड संस ने ही भोगा, कहें कि अच्छा कुछ ज्यादा ही भोगा है तो अतिशयोक्ति कहां? कल्ला परिवार को पहला झटका 1993 की हार का लगा। हार का कभी न सोचने वाले परिवार के लिए वह हार हिला देने वाली थी। बाद इसके राजनीति में इनकी तीसरी पीढ़ी सक्रिय हुई। बीडी कल्ला के पुत्र तब भी इधर फटके नहीं। इस हार के बाद जनार्दन के सबसे छोटे पुत्र अनिल कल्ला सार्वजनिक जीवन में कुछ सक्रिय हुए और युवाओं की अपनी टीम बनाई। चूंकि हेकड़ी सामन्ती ही थी, सो कुछ समय बाद ऐसी स्थिति आ गई कि अनिल का नाम सुनते ही शहर में कइयों की जीभ कसैली होने लगी। बावजूद इन सबके बीडी कल्ला 1998 और 2003 के दो चुनाव लगातार जीत गये।
2008 का चुनाव कल्ला जब फिर हार गये और वह भी रिश्ते में उन बहनोई गोपाल जोशी से जिनसे 1980 से मूषक-बिडाल बैर था। जैसा कि ऊपर कहा कि हार की कभी ना सोचने वालों के लिए दूसरी बार की यह हार किसी बड़े झटके से कम नहीं थी। सुनते हैं इस हार के बाद डागा चौक में हुई पारिवारिक खटपट की गूंज पूरे शहर में सुनी गई। अनिल नेपथ्य में चले गए या फिर कर दिए गए। जनार्दन के तीसरे पुत्र महेन्द्र सक्रिय हुए लेकिन उनकी भाव-भंगिमाएं और मिजाज करेला नीम चढ़ा माना गया। व्यावहारिक राजनीति के बिल्कुल विपरीत। इसी बीच कल्ला बंधुओं के चचेरे भाई कन्हैयालाल उर्फ कैनू महाराज के पुत्र कमल सक्रिय हुए। 1980 के पहले चुनाव से ही डॉ. कल्ला को जनार्दन के बाद जिस पारिवारिक का सर्वाधिक सहयोग रहा, वे ऊन उद्यमी कन्हैयालाल उर्फ कैनू महाराज ही थे। यद्यपि सत्ता कवच की जरूरत जितनी जनार्दन कल्ला के धंधों को है उतनी कैनू महाराज के धंधों को नहीं रही। फिर भी राज में भागीदारी की छाप और सुख कुछ कम नहीं होते। कहते हैं-2013 के चुनावों में कमल की सक्रियता काफी रही, चुनाव जीत के रास्ते में खुद परिजनों द्वारा खोदे खड्डों को भरने की उन्होंने काफी कोशिश भी की। बावजूद इसके डॉ. कल्ला यह चुनाव भी हार गए। इस हार ने यद्यपि कल्ला परिवार को हार झेलने का आदी बना दिया लेकिन जीत की आकांक्षा फिर भी खत्म नहीं हुई। पिछली हार के बाद से कोई पूरा परिवार 2018 के चुनाव जीतने की तैयारी में लगा है तो वह कल्ला परिवार ही है। बिना इस बात की चिंता किए कि पार्टी उम्मीदवारी देगी भी कि नहीं देगी। वे न केवल हार के संभावित सभी खड्डों को भरने में लगे हैं बल्कि सभी तरह की प्रतिकूलताओं से निबटने में कसर नहीं छोड़ रहे। लेकिन डॉ. कल्ला की समझ में अब भी यह आना बाकी है कि व्यावहारिक चुनावी राजनीति साढ़े तीन सौ किलोमीटर दूर बैठ कर करना 'फुल प्रूफ' कतई नहीं है।
क्रमश:

28 जुलाई, 2016

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