किसी भी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में वारिस
की बात करना लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन है। लेकिन जिस व्यापक समाज का आस्थावान
चित्त चाम्तकारिक व्यक्तित्व से ही चुंधियाता हो या आजादी के छह-सात दशकों बाद भी
सामन्त-गुलामी का फितूर न गया हो तो व्यावहारिक राजनीति में विरासती उत्तराधिकार
की बात किए बगैर कोई विश्लेषण संभव नहीं है। हो सकता है किसी राजनेता का वारिस
अपनी राजनीति की जमीन क ख ग से शुरू कर हासिल करना चाहता हो और उसके बरअक्स कोई
अन्य वारिस राजनीति के उसी मैदान में सीधे पैराशूट से उतरता है। इस अन्तर को हम
देश के सबसे प्रतिष्ठ और लांछित नेहरू-गांधी परिवार की विरासत से समझ सकते हैं।
शुरू की तीन पीढिय़ां जिनमें मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल और इंदिरा गांधी—इन तीनों ने राजनीति क ख ग से शुरू की, आजादी की लड़ाई में सक्रिय भागीदारी निभाई। बाद
इसके, इनकी पीढिय़ों से आए राजीव
गांधी-संजय गांधी और पांचवीं पीढ़ी के राहुल और वरुण गांधी पैराशूटी वारिस की
श्रेणी में गिने जाएंगे।
इस संक्षिप्त प्रस्तावना के बाद हम बीकानेर शहर के दो विधानसभा क्षेत्रों में
सक्रिय या संभावित युवा दावेदारों का जिक्र कर लेते हैं। पहले बीकानेर पश्चिम
क्षेत्र की बात भारतीय जनता पार्टी के संदर्भ से करते हैं। इस क्षेत्र के लिए यह
भी मान लेते हैं कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां गैर पुष्करणा उम्मीदवार
का जोखिम नहीं उठाएंगी, ऐसा है भी। हो
सकता है कि भाजपा आगामी विधानसभा चुनाव में किसी बोदे राजनेता पर दावं न लगाकर
किसी युवा चेहरे को आजमाए। ऐसे में बिना किसी सहारे के जमीन से सीधे उपजे किसी
युवा नेता पर नजर इसलिए नहीं टिक रही कि जो भी दीखते हैं वे या तो स्थापित नेता
वारिसों के 'सरकिट' हैं या उनका अपना कोई जातीय या व्यापक सक्रियता
का आधार नहीं है।
बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के जो तीन संभावित युवा दावेदार
दिखाई दे रहे हैं उनमें शहर में लोकप्रिय नेता रहे मक्खन जोशी के पौत्र अविनाश
जोशी, विधायक गोपाल जोशी के
पौत्र विजयमोहन जोशी और वरिष्ठ नेता ओम आचार्य के भतीजे विजय आचार्य का नाम लिया
जा सकता है। ओम आचार्य का प्रदेश के शीर्षस्थों में जो रुतबा और रुआब ललितकिशोर
चतुर्वेदी के रहते था वह अब नहीं है। वहीं स्वतंत्रता सेनानी दाऊलाल आचार्य के
पौत्र और ओम आचार्य के भतीजे विजय आचार्य की भाव-भंगिमाएं पारिवारिक पृष्ठभूमि का
भान लिए भले ही हो लेकिन पता नहीं ऐसा क्या है जो उन्हें जमीनी राजनीति करने से
ठिठकाता है, अवाम के लिए उनकी
खास सक्रियता कभी नजर नहीं आती। बावजूद इसके कि अधेड़ होते विजय आचार्य न केवल
चुने हुए पार्षद रहे हैं बल्कि शहर भाजपा अध्यक्ष भी रह चुके हैं। यह दो
उपलब्धियां बीकानेर पश्चिम से उम्मीदवारी के उनके दावे को अन्य युवाद्वय- अविनाश
जोशी और विजयमोहन जोशी से ज्यादा पुख्ता कर सकती है।
अविनाश जोशी की बात करें तो ये अपने दादा मक्खन जोशी की विरासत का भरपूर उपयोग
कर रहे हैं। जबकि इनके पिता कन्हैयालाल जोशी, जो अपने पिता के बाद राजनीति में सक्रिय तो हुए लेकिन
विरासती के अलावा अपने बूते कुछ करने का माद्दा कभी दिखा नहीं पाए। यही वजह है कि
अविनाश जब पूरी ऊर्जा के साथ सक्रिय हुए तो कन्हैयालाल ने उठती अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं
को पुत्र की आकांक्षों में 'डायल्यूटÓ
कर दिया। अविनाश जोशी ने पहले जो प्रदेश संगठन
में पहुंच बनाने का रास्ता चुना, उसमें उन्होंने
बहुत जल्दी ही सफलता हासिल कर ली। पार्टी के आईटी प्रकल्प का प्रदेश स्तरीय संयोजक
बनना इसका प्रमाण है। प्रदेश और प्रदेश से संबंधित राष्ट्रीय नेताओं से चेहरे के
साथ नाम की पहचान होना पार्टी उम्मीदवारी मिलने में सहयोग करती ही है। लेकिन
स्थानीय अवाम में घुसपैठ के मामले में वे विजय आचार्य से भी उन्नीस दीखते हंै।
उम्मीदवारी यदि मिल भी गई हो तो वोट आपको जहां से हासिल करने हैं, वहां चेहरे की पहचान होना जरूरी है। दादा मक्खन
जोशी के नाम का लाभ तो होगा लेकिन इन बीस वर्षों में लगभग आधे वोटर नये आ लिए हैं,
ऐसे में उनकी स्मृति में मक्खन जोशी सीधे उस
तरह से नहीं होंगे जैसे अधेड़ों और बुजुर्गों में हैं। अलावा इसके अविनाश ने जमीन
से जुड़ी राजनीति करने वाले नन्दलाल व्यास उर्फ नन्दू महाराज को अच्छी तरह देखा
है। उनका जन जुड़ाव ही था जिसके बल पर वे प्रदेश नेताओं को कांच दिखाने से नहीं
चूकते थे। क्योंकि वे जानते थे कि प्रदेश के नेताओं के पास टिकट देने-न-देने की
ताकत भले ही हो, वोट दिलाने का
माद्दा लगभग नहीं होता। ऐसे में अविनाश को अगर बीकानेर पश्चिम में चुनावी राजनीति
करनी है तो दादा मक्खन जोशी और नन्दू महाराज की जन-जुड़ावी कूवत को आत्मसात करना
होगा।
गोपाल जोशी जब ये कहते हैं कि अगला चुनाव मुझे तो लडऩा नहीं है तो बहुधा उनसे
पूछ ही लिया जाता है कि फिर राजनीति की उनकी विरासत बेटे गोकुल जोशी को सौंपेंगे
या पोते विजयमोहन को, वे बड़े ही अमोह
से तत्काल उत्तर देते हैं कि जिसमें काबिलीयत होगी वह अपने आप हासिल कर लेगा-मैं
किसी के लिए कोई प्रयास नहीं करूंगा। हालांकि अपनी उम्र के इस मुकाम पर उन्हें
पारिवारिक सहायक की जरूरत हर समय रहती है जिसे विजयमोहन जोशी बखूबी पूरा करते हैं।
इसी नियमित संगत का असर है कि विजयमोहन की राजनीतिक आकांक्षाएं हिलोरें लेने लगी
हैं। वे अपने दादा की तरफ से संवाद करने
का ही काम नहीं करते वरन् अपने तईं जनसमस्याओं पर जमीनी सक्रियता भी दिखाने लगे
हैं। इन वर्षों में हो सकता है जन जुड़ाव के मामले में वे विजय आचार्य और अविनाश
जोशी से आगे निकल जाएं। लेकिन विजयमोहन को समझ लेना चाहिए कि चुनावी राजनीति के
लिए जन जुड़ाव के साथ-साथ प्रदेश के नेताओं से संपर्क की जुगलबंदी जरूरी है अन्यथा
एक मोर्चा कमजोर होने पर दूसरे मोर्चे पर 'ठगीजणा' पड़ सकता है।
विजयमोहन, गोपाल जोशी के सबसे छोटे
बेटे जगमोहन के पुत्र हैं और उन्होंने राजनीति में पैठ बनाने का तरीका अपने ताऊ
गोकुल जोशी से भिन्न अपनाया है। शायद इसीलिए विरासती दौड़ में वे अपने ताऊ से आगे
निकलते दीख रहे हैं। हालांकि राजनीति गोपाल जोशी ने भी अभिजात की ही की है। लेकिन
इस मामले में गोकुल जोशी की राजनीति अपने पिता से भी ज्यादा अभिजात की रही है,
इसलिए उनका पिछडऩा स्वाभाविक है। हो यह भी सकता
है कि हाल के वर्षों की गोकुल जोशी की राजनीतिक निष्यक्रियता अनुजसुत विजयमोहन की
सक्रियता को आड़ देने के लिए ही हो, यदि ऐसा कुछ है तो बीकानेर की राजनीति में अपने तरह का यह उदाहरण दूसरा होगा।
इससे पूर्व गोकुल जोशी के रिश्ते में मामा जनार्दन कल्ला ने अपनी राजनीतिक
महत्त्वकांक्षाओं को छोटे भाई बुलाकीदास कल्ला की महत्वाकांक्षाओं में तिरोहित कर
दिया था। आज बीडी कल्ला जो भी हैं उसमें बड़ा योगदान 'भाईजी' जनार्दन कल्ला का
ही है।
क्रमश:
21 जुलाई, 2016
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