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दूसरी समस्या
सूरसागर की है जिसे पूर्व रूप में लाने की कोशिशें पिछले सात-आठ वर्षों से चल रही
हैं। वैसा इसलिए संभव नहीं कि तब इसके रूप को प्रकृति सहेजती थी-आगौर के माध्यम से
आने वाले वर्षाजल से भरा जाता था, आगौर रहे नहीं, ऐसे में कभी
पांच-पांच ट्यूबवैलों और कभी नहरी पानी से इसे भरने की कवायद की जा रही है। इन
कृत्रिम और अव्यावहारिक तरीकों से इस के जलस्तर को पिछले सात वर्षों में एक बार भी
चार फुट तक नहीं लाया जा सका तो इसे पूरा भरना और यहां पडऩे वाली गर्मी में इसे
भरे रखना कितना महंगा पड़ेगा? यह महंगा केवल धन से ही नहीं बल्कि जिस डार्कजोन को हम जिले में न्योत रहे हैं,
उसमें भी यह विलासिता से
कम साबित नहीं होगा। वसुन्धरा राजे चाहें तो इस खेचळ को रोककर इसे मरु उद्यान के
रूप में विकसित करवा सकती हैं जिसमें मरुक्षेत्र के पेड़ व वनस्पतियां और कुछ
सुकून देने वाले प्राकृतिक रूप के फव्वारें हों। इस तरह इसे घूमने-फिरने के एक
आदर्श स्थान के रूप में विकसित किया जा सकता है।
—'विनायक' संपादकीय का अंश
(3 जून, 2014)
'सरकार आपके द्वार' कार्यक्रम के तहत
जून, 2014 के अंतिम दस दिनों में
मुख्यमंत्री को बीकानेर संभाग में रहना था। तब 'विनायक' ने इस शहर की
सरकार से उम्मीदों पर लिखे सम्पादकीय के सूरसागर से संबंधित उक्त हिस्से को उद्धृत
करना जरूरी लगा। वह इसलिए कि राजस्थान पत्रिका के 25 मई, 2016 के अंक में इसी
सूरसागर को लेकर उम्मीदों भरी हेडिंग के साथ खबर लगाई गई जिसमें बताया गया है कि
इसके सौन्दर्यीकरण पर तीन वर्ष पहले लगे डेढ़ करोड़ के मिट्टी होने के बाद फिर
पचास लाख रुपये लगाए जा रहे हैं। और ये भी कि दो वर्ष पूर्व बताई सूरसागर की उक्त
दशा में कोई अन्तर नहीं आया है।
2008 में भी जब सूबे में वसुंधरा की सरकार थी तब भी वसुंधरा
राजे ही शासन के साथ शहर के लिए इसी सूरसागर की बदबू से मुक्ति की सौगात लेकर आईं।
आने से पूर्व ही लगभग चालीस वर्षों से गन्दे पानी का तालाब बन चुकी सूरसागर झील को
न केवल साफ करवाया बल्कि मरम्मत, रंग-रोगन करवा कर
कृत्रिम साधनों से थोड़ा-बहुत पानी भरवा कर रस्म-अदायगी के तौर पर नावें भी चलवा
दीं।
तब से लेकर अब तक इस झील पर करोड़ों रुपये खर्च किए जा चुके हैं और लगतार किये
भी जा रहे हैं। सिवाय इसके कि इस झील में अब गन्दा पानी और कीचड़ जमा नहीं होने
दिया जा रहा, बावजूद इसके यह
अपने पुराने वैभव में नहीं लौट पा रही है। जैसी कि 'विनायकÓ ने 2014 में ही आशंका व्यक्त कर दी थी कि इतनी बड़ी
झील को कृत्रिम साधनों से भरे रखना संभव नहीं वह भी तब जब सूर्य की तपन पानी को
भाप बनाकर लगातार उड़ाती रहती है। इन आठ वर्षों में वह आशंका एक बार भी निर्मूल
साबित नहीं हुई।
जून, 2014 के अपने उस
पड़ाव में मुख्यमंत्री ने सकारात्मकता दिखाते हुए सुझाव लेने के लिए शहर के कुछ
संपादकों और पत्रकारों को बुलाया था। मुख्यमंत्री को सूरसागर की इस नियति से तभी
अवगत करवा दिया गया और मुख्यमंत्री को बात समझ में भी आ गई। सूरसागर को मरु उद्यान
के रूप में ही विकसित करने की बात उन्हें जंच गई। उस प्रवास के बाद यहां से लौटते
वसुंधरा राजे ने तत्संबंधी घोषणा भी कर दी। लेकिन अफसरशाही के पदानुक्रम में
फिसलते-फिसलते यह घोषणा कहां गायब हुई, कह नहीं सकते। अब तो हो सकता है स्वयं वसुंधरा भी इसे विस्मृत कर गई हों।
इन आठ वर्षों में करोड़ों रुपये खाकर भी अपने नैसर्गिक रूप में यह सूरसागर झील
नहीं लौट रही है तो इसे सफेद हाथी कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है। ऐसे में इसे ऐसे
मरु उद्यान के रूप में विकसित करना जिससे न केवल यहां आने वाले देशी-परदेशी पर्यटक
आकर्षित हों बल्कि वे स्थानीय लोग भी जो अन्यथा गांव-ढाणी और रेगिस्तानी रोही में
न जा पाने के चलते यहां की वनस्पतियों के ज्ञान से वंचित हैं, अवश्य लाभान्वित होंगे।
2014 के मुख्यमंत्री के प्रवास में की गई मरु उद्यान की घोषणा
को अधिकारियों ने यह मान लिया कि इसके लिए कोई अलग स्थान चिह्नित कर वहां इसे
विकसित किया जाना है। जबकि मुख्यमंत्री से जो चर्चा हुई उसमें इसे सूरसागर झील
वाले स्थान पर ही विकसित करने की बात थी।
सूरसागर की जो सीढिय़ा हैं वह वैसी ही रहें, भ्रमण करने वाले नीचे उतर कर जाएं और थार रेगिस्तान के
पेड़-पौधे यथा खेजड़ी (सांगरी), रोहिड़ा (लाल
कसूमल फूल), बोरटी (बेर),
कूमटो (कुमटिया), फोग (फोगलो), केटो (केर) और खींप (खींपोली) आदि से रूबरू हों। नगर विकास न्यास चाहे तो इसे
विकसित करने के लिए काजरी (Cazri) का सहयोग ले सकती है। अलावा इसके इस झील का क्षेत्रफल इतना बड़ा है कि इसमें
आगौर सहित एक छोटा प्राकृतिक तालाब और वन विभाग इजाजत दे तो उस तालाब की छोटी आगौर
में कुछ हरिण, चिंकारा आदि भी
रखे जा सकते हैं, ये जीव-जन्तु
अपना अधिकांश खानपान प्राकृतिक रूप से वहीं से हासिल करें। और ठीक इसी तरह पायतान
सहित एक टांका (कुंड) भी बनाया जा सकता है और आने वाले पर्यटक चाहे तो पानी भी उसी
का पीएं। यह भी तय किया जाना चाहिए कि तालाब और टांके दोनों का भराव वर्षाजल से ही
हो। इससे स्थानीय पर्यटकों को अपने प्राकृतिक स्रोतों की न केवल जानकारी रहेगी
बल्कि इन्हें संरक्षित करने को वे प्रेरित भी होंगे।
जूनागढ़ जहां देशी-विदेशी हजारों पर्यटक रोज आते हैं, उसके ठीक सामने विकसित इस मरु उद्यान का अपना प्राकृतिक
महत्त्व अलग होगा और इसके रख-रखाव के लिए नगर विकास न्यास कोई प्रवेश शुल्क भी
निर्धारित कर सकता है। बोट चलाने का लोभ पब्लिक पार्क स्थित लिलिपोण्ड में पूरा हो
ही रहा है। अत: मात्र बोटिंग के आकर्षण के लिए इस सफेद हाथी को पालना व्यावहारिक
नहीं लगता।
26 मई, 2016
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