जातिगत आरक्षण के जो खिलाफ हैं उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि
चुनावों में आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार को आरक्षित सीट से ही क्यों खड़ा होना
पड़ता है? कोई इसके विपरीत उदाहरण
हैं तो अपवाद ही माना जाएगा। बीकानेर जिले का नोखा विधानसभा क्षेत्र जब सुरक्षित
नहीं रहा तो वहां से विधायक रहे गोविन्द चौहान को जिले की नयी बनी खाजूवाला
सुरक्षित सीट से अपनी उम्मीदवारी करनी पड़ी और यह भी, अब जब कांग्रेस और भाजपा में नेताओं की आवाजाही सामान्य बात
हो गई तब यह चर्चा का विषय ही नहीं रहा कि कौन नेता कब किस पार्टी में होता है।
अधीर-अक्खड़ और भाजपा को छोड़ चुके गोविन्द चौहान ने 2013 का चुनाव कांग्रेसी उम्मीदवार के रूप में
खाजूवाला से लड़ा। 2008 के चुनाव में नई
बनी इस सीट पर कांग्रेस से सुषमा बारूपाल उम्मीदवार थीं। आजादी बाद कांग्रेस से
सांसद रहे पन्नालाल बारूपाल की तीसरी पीढ़ी की सुषमा दूसरी पीढ़ी की राज्यसभा से
सांसद रही जमना बारूपाल की ही तरह राजनीति को विरासती भोग मानती रही हैं, जनजुड़ाव इनका कभी देखा नहीं गया। यही वजह थी
कि कांग्रेस ने 2013 में कुछ
जनजुड़ाव वाले गोविन्द चौहान को आजमाया। देश मोदी-भ्रम में नहीं होता तो संभवत:
गोविन्द चौहान जीत भी जाते। गोविन्द बीकानेर शहर में रहकर चुनावी जरूरत अनुसार
क्षेत्र के सम्पर्क में रहते हैं और लोगों के बळ पड़ते काम भी आते हैं। खाजूवाला
से लगातार दूसरी बार विधायक हैं डॉ. विश्वनाथ। उन्होंने पहला चुनाव देवीसिंह भाटी
की सरपरस्ती में जीत लिया तो दूसरा चुनाव मोदी-भ्रम के चलते जीता। डॉ. विश्वनाथ
फिलहाल संसदीय सचिव हैं। आगामी चुनाव से पूर्व हो सकता है वे मंत्री भी बन जाएं।
बीकानेर शहर में रहकर अपने क्षेत्र और राजधानी को साधने वाले डॉ. विश्वनाथ को
गोविन्द चौहान की तरह भले ही प्रवासी जनप्रतिनिधि न कहें लेकिन अपने क्षेत्र में
लोकप्रिय होने के जतन करते वे नहीं दीखते।
दूसरे नये बने बीकानेर (पूर्व) विधानसभा क्षेत्र से यहां के रियासती शासक
परिवार की सिद्धिकुमारी लगातार दूसरी बार विधायक बनी हैं। पहली बार का चुनाव वह दो
कारणों से जीतीं। एक तो यह कि यहां का अवाम अभी तक 'खमा-घणी' मानसिकता से बाहर
नहीं निकल पाया। इसीलिए सिद्धिकुमारी को पूर्व शासक परिवार से होने का पूरा लाभ
मिला और दूसरा कारण यह कि 2008 के चुनाव में
कांग्रेसी उम्मीदवार रहे उभयधर्मी माने जाने वाले तनवीर मालावात को मुसलिम
मतदाताओं ने उस तरह स्वीकार नहीं किया जैसी उन्हें उम्मीद थी। बिना कुछ करे और
बिना अपने मतदाताओं से सम्पर्क में रहे पहली विधायकी गुजारने वाली सिद्धिकुमारी
दूसरा चुनाव नहीं जीततीं यदि मोदी-भ्रम न होता। विधायकी को विरासती हक मानने वाली
सिद्धिकुमारी के बारे में उनके क्षेत्र के मतदाताओं को सूचना के अधिकार के तहत यह
जानना ही चाहिए कि 2008 का चुनाव जीतने
के बाद उनकी विधायक कितने दिन बीकानेर में रही, कितने दिन राजस्थान में, कितने दिन भारत के अन्य शहरों-कस्बों में और कितने दिन
विदेशों में बिताए। कहने को घर-बार यहां होने के बावजूद सिद्धिकुमारी लगभग प्रवासी
जनप्रतिनिधि हैं। यहां होती भी हैं तो उनसे मिलना कैसी भी हैसियत पा चुके मतदाता
के लिए आसान नहीं है। ऐसे में बेचारे आम मतदाता की तो बिसात ही क्या है।
2008 में कांग्रेस के उम्मीदवार रहे तनवीर मालावत रहते अपने
क्षेत्र में ही हैं और यहीं अपने धंधे सम्हालते हैं। इसलिए उम्मीद करते हैं कि वे
चुनाव यदि जीत जाते तो प्रवासी जनप्रतिनिधि का तकमा तो नहीं ही लगवाते। इसी तरह की
उम्मीद 2013 में सिद्धिकुमारी के
प्रतिद्वन्द्वी रहे कांग्रेस के गोपाल गहलोत से भी की जा सकती थी क्योंकि गहलोत
इसी शहर में रहते हैं और अपने धंधे भी यहीं सम्हालते हैं। गहलोत को यदि भविष्य में
भी चुनावी राजनीति करनी है तो जनता में बन चुकी अपनी नकारात्मक छवि को तोडऩा होगा,
यद्यपि वे इस जुगत में दीखते नहीं हैं। हो सकता
है बीकानेर (पूर्व) से लगातार दो बार हार चुकी कांग्रेस तीसरी बार उम्मीदवार बदलने
की आजमाइश करे और अगली बार राजपूत समुदाय के किसी नेता को उम्मीदवार बनाए। क्योंकि
2018 का चुनाव कांग्रेस के
लिए अस्तित्व का चुनाव कुछ उस तरह होगा जिस तरह का आजादी बाद का कोई चुनाव नहीं
हुआ।
रस्म अदायगी के तौर पर ही सही, बीकानेर संसदीय
क्षेत्र में अब तक रहे सांसद और प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवारों की पड़ताल कर ही लेते
हैं। 1952, 1957, 1962, 1967 और 1971 के इन पांच लोकसभा चुनावों में बीकानेर के
पूर्व शासक परिवार के डॉ. करणीसिंह लगातार चुनाव जीतते रहे। पहले के चार चुनावों
में तो उन्हें किसी उम्मीदवार की चुनौती ही नहीं मिली थी क्योंकि कांग्रेस डॉ.
करणीसिंह के सामने अपना उम्मीदवार ही खड़ा नहीं करती थी।
पिछली सदी के सातवें दशक के अंत में जब इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी और
उन्होंने प्रगतिशील निर्णय लेते हुए जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और पूर्व
शासकों के विशेषाधिकार समाप्त कर दिए तो डॉ. करणीसिंह और कांग्रेस के बीच संबंध
पूर्ववत नहीं रहे। कांग्रेस ने 1971 के चुनाव को
बीकानेर में पहली बार गंभीरता से लिया और सूबे के पूर्व मंत्री रहे भीमसेन चौधरी
को इस जाट प्रभावी क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाया। ऐसा होते ही डॉ. करणीसिंह को
लगा कि हार गये तो साख को बट्टा लग जाएगा। कहा जाता है जाट वोटों में
फंटवाड़े के लिए ही डॉ. करणीसिंह ने
भारतीय क्रान्ति दल के उम्मीदवार के रूप में दौलतराम सारण को अपने खर्चे पर अपना
ही प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवार बनवाया जबकि इस दल का राजस्थान में तब कोई अस्तित्व
ही नहीं था। जैसे-तैसे जीते इस चुनाव के बाद डॉ. करणीसिंह ने चुनावी-चौसर से हमेशा
के लिए किनारा कर लिया। डॉ. करणीसिंह की सांसदी के पचीस वर्षों की कोई उपलब्धि
नहीं गिनवाई जा सकती। करणीसिंह यहां रहते भी तो अपने किले में ही और आम मतदाता के
लिए उन तक पहुंचना उतना ही मुश्किल था जितना उनकी विधायक पौत्री सिद्धिकुमारी से
अब है।
इस संसदीय क्षेत्र की प्रतिकूलता ही कहेंगे कि बीकानेर संसद में अपना आदर्श
जनप्रतिनिधि आज तक नहीं भेज पाया। बाद में सांसद रहे—चौधरी हरिराम (मक्कासर), मनफूलसिंह भादू, श्योपतसिंह (मक्कासर), महेन्द्रसिंह
भाटी, बलराम जाखड़, रामेश्वर डूडी, अभिनेता धर्मेन्द्र और अब अर्जुनराम मेघवाल। इनमें से कोई
भी अवाम के बीच रहा ही नहीं। महेन्द्रसिंह भाटी और रामेश्वर डूडी जैसे यहां कोई
रहे भी तो इन्होंने इस क्षेत्र के लिए कुछ उल्लेखनीय नहीं किया। डॉ. करणीसिंह से
लेकर वर्तमान सांसद अर्जुनराम मेघवाल तक सब बीकानेर के लिए लगभग प्रवासी
जनप्रतिनिधि ही रहे हैं। लगातार दूसरी बार चुनाव जीते अर्जुनराम मेघवाल केवल
दिखावा करके श्रेय हड़पने में लगे रहते हैं। दिल्ली में तो वे संसद भवन भी साइकिल
पर जाएंगे और जब अपने क्षेत्र से गुजरेंगे तो वातानुकूलित वाहन से बाहर झांकना तक
जरूरी नहीं समझते।
बीकानेर से लोकसभा चुनाव जीतने की जुगत में कांग्रेस बार-बार उम्मीदवार भले ही
बदले। रेवंतराम जैसे बीकानेर में रहते हुए भी कब भाजपा में होते हैं और कब
कांग्रेस में पता ही नहीं चलता, पंवार ने विधायकी
रहते भी तो कोई जनजुड़ाव नहीं रखा। पिछले चुनाव में जिन शंकर पन्नू को कांग्रेस ने
उम्मीदवार बनाया उनके प्रवासी होने का प्रमाण इससे ज्यादा क्या होगा कि वे जब कभी
बीकानेर आते हैं तो उनके लिए स्वागत समारोह आयोजित होने लगे हैं।
तो कह सकते हैं कि बीकानेर अपने जनप्रतिनिधि ऐसे ही चुनता रहा है, जो या तो प्रवासी ही होते हैं या चुनकर जाने के
बाद प्रवासी हो जाते हैं। ऐसे में क्षेत्र का मतदाता उलाहना भी दे तो किसे दे।
समाप्त
5 मई, 2016
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