Thursday, February 25, 2016

हॉकरों की हड़ताल के बहाने कुछ असलियतों का साझा

फरवरी, 2016 की 22, 23 और 24 को बीकानेर शहर के वे लोग जो रोटी, कपड़ा और मकान जैसी प्राथमिक चिन्ताओं से कुछ या पूरे मुक्त हैं, उनमें से अधिकांश के घरों की सुबह कुछ भिन्न रही। शहर में सर्वाधिक प्रसारित अखबार राजस्थान पत्रिका और दैनिक भास्कर हॉकरों की हड़ताल के चलते नहीं पहुंचे। हड़ताल की वजह थी इन अखबारों के विक्रय मूल्य में कुछ ही महीनों में पचास पैसे की दूसरी बार की बढ़ोतरी। इस बढ़ोतरी पर हॉकरों का एतराज इसलिए था कि एक तो उनसे इस बारे में न सलाह ली जाती है और न ही पूर्व में सूचित किया जाता है। यह भी कि कुछ ही महीनों में इस तरह से यह दूसरी बढ़ोतरी नाजायज है और तीसरी व्यवस्थागत आपत्ति उनकी यह है कि बजाय पहली तारीख के कीमत को बीच में बढ़ाने से उन्हें हिसाब-किताब की असुविधा होती है। छिपी आपत्ति यह भी हो सकती है कि इस बढ़ोतरी में उनकी हिस्सेदारी को न बढ़ाना। हॉकरों की हिस्सेदारी यदि बढ़ा दी जाती और अखबार मालिक अपने लालच का कुछ साझा यदि उनसे भी कर लेते तो संभवत: हड़ताल की यह नौबत नहीं आती। यानी पहले की तीनों आपत्तियां दिखाने की और चौथी और असल आपत्ति खाने वाले दांत हुई।
यह तो हुई धंधेबाजों की बात, असल जो प्रभावित हुए, वे पाठक भुगतने के अलावा कुछ न कर पाने को लाचार हैं। कुछ वे जो मात्र 'स्टेटस' दिखाने को अखबार मंगवाते हैं उन्हें तो इससे कोई खास अन्तर नहीं पड़ता। लेकिन जो विभिन्न जरूरतों को पूरा करने को मंगवाते हैं, ऐसों को कुछ छूटा हुआ सा जरूर लगा। लेकिन सबसे बड़ी परेशानी में वे देखे गए जो अखबार को पढऩा अपनी 'लत' में शामिल मान चुके हैं। असल में इनमें से ही अधिकांश लोग स्वार्थों से इतर देश, दुनिया और समाज के बारे में विचारना जारी रखने वाले होते हैं। यद्यपि अन्य अखबारों ने इसे एक अवसर मानकर पाठकों तक पहुंचने की कोशिश जरूरी की लेकिन जिन तक ये भी नहीं पहुंच पाए वे अधिकांश 'लत' संक्रमित लोग, सुबह-सवेरेे इन अखबारों की उपलब्धता वाले स्थानों तक अपनी 'लत' को शान्त करने पहुंच जाते।
फरवरी 25 को अखबारों का पूर्वत: पहुंचना सुचारु हुआ, पता किया तो मालुम हुआ कि हॉकरों की मांगें इन अखबारी धंधेबाजों ने नहीं मानी। हां, हॉकरों के इस रोष पर आश्वस्त जरूर किया कि आगे कीमत एक-डेढ़ वर्ष से पहले नहीं बढ़ाएंगे और बढ़ाने से पर्याप्त समय पूर्व हॉकरों को सूचित कर देंगे। बढ़ाने से पूर्व सलाह करने की उम्मीद तो मिशनरी व्यवसाय से धंधा बन चुके इस क्षेत्र से खत्म सी हो गई है और ऐसी हर हड़ताल के पीछे छिपे लालच ने हॉकरों की इस बात का वजन भी खत्म कर दिया कि इस अखबरी व्यवसाय की वे जरूरी कड़ी हैं, जिसके बिना यह धंधा चल ही नहीं सकता।
अखबारों के अधिकांश मालिक धंधेबाज हैं इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैंविज्ञापन, खबरों की अमानवीय प्रस्तुति, रोक के बावजूद छिपे रूप में 'पेड न्यूज', अपात्रों को सुर्खियां देकर पात्रता का सर्टिफिकेट देना समाचारीय पक्ष तो है ही। अलावा इसके एक ही अखबार दो अलग-अलग स्थानों पर दो विक्रय मूल्य रखें तो इसे फिर क्या कहेंगे। जयपुर और बीकानेर के बीच की ऐसी विक्रय कीमत दुभांत को समझें तो नियमित सभी रंगीन 28 पृष्ठों का अखबार पत्रिका व भास्कर दोनों चार रुपये में जयपुर में देते हैं और बीकानेर में अतिरिक्त विज्ञापनों के चलते कभी-कभार के अतिरिक्त चार पृष्ठों की बात छोड़ दें तो जयपुर से आधे चौदह पृष्ठों के ही यहां पांच रुपये वसूले जाने लगे हैं। व्यापार के इस गणित के माध्यम से समझना जरूरी है कि ये अपने उपभोक्ता वर्ग पाठकों के साथ दुभांत कर रहे हैं या धोखाधड़ी।
अलावा इसके लाखों प्रतियां प्रतिदिन छापकर बेचने वाले ये धंधेबाज आकार घटाने की चतुराई लगातार कर रहे हैं, जो इसके उपभोक्ता पाठकों के सीधे ध्यान नहीं आती। ब्रॉडशीट अखबर के एक पृष्ठ का स्टैण्डर्ड आकार 16 गुणा 22 इंच होता है लेकिन ये अखबार लगातार इसका आकार घटाकर रोजाना टनों कागज की बचत करके करोड़ों के अपने लालच की पूर्ति अलग कर ही रहे हैं और इस तरह अपने अखबार का आकार 16 गुणा 22 इंच से घटाते-घटाते 13.5 गुणा 21.5 इंच से कम पर ले आएं हैं। कभी-कभार साथ दिये जाने वाले सप्लीमेंट का आकार तो अब इससे भी छोटा किया जाने लगा है। इस तरह टनों कागज की रोजाना बचत से की जा रही यह मुनाफा वसूली अखबारी कीमत से अलग है। यह अलग बात है कि एक अखबार को छापने की लागत सामान्यत: इसके विक्रय मूल्य से तीन-चार गुणा और अधिक भी हो सकती है। लेकिन न केवल इस घाटे की पूर्ति ही बल्कि लाभ तो इन स्थापित अखबारों को मिलने वाले विज्ञापनों से होता है और अपने इन अखबारों की धाक से ये अखबारी धंधेबाज अन्य तौर-तरीकों से कितना कमाने लगे हैं उसकी कूंत तो आंखें फाड़ देगी। यह बात लिखने-बताने का मकसद असलियत को साझा करना है ताकि कम-से-कम अखबारी पाठक 'भोले' नहीं गिने जाएं।

25 फरवरी, 2016

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