Thursday, February 4, 2016

दुश्मन की गरज साजते हैं हमारे नुमाइंदे

राजस्थान के सन्दर्भ में बात करें तो प्राकृतिक रूप से पहले से ही समृद्ध 'अपने' क्षेत्र उदयपुर को मोहनलाल सुखाडिय़ा ने बबुआ बना दिया। पिछली सदी के छठे-सातवें दशक में सूबे के मुख्यमंत्री रहे सुखाडिय़ा की आलोचना इसीलिए भी हुई कि वे अपने क्षेत्र पर ही ज्यादा ध्यान देते थे, यह उलाहना तो आया गया हो गया पर तब विकसित हुए उदयपुर का सुख वहां के बाशिन्दों की कई पीढिय़ां भोगती रहेंगी।
इसी तरह मुख्यमंत्री रहे हों या नहीं, अशोक गहलोत अपनी चतुराई से न केवल 'अपने' जोधपुर का डोळिया लगातार सुधारते रहे बल्कि वहां कई प्रकार की सुविधाएं बढ़ाने में भी सदा सचेष्ट रहे हैं। गहलोत के लिए चतुराई का प्रयोग इसलिए किया कि जहां आधारभूत रूप से अधिकांश लक-दक उदयपुर उसी काल में हुआ जब सुखाडिय़ा सूबे के मुख्यमंत्री रहे लेकिन गहलोत की जोधपुर के साथ ट्यूनिंग ऐसी है कि भले वे सत्ता में रहे या नहीं और यह भी कि केन्द्र और प्रदेश में उनकी पार्टी की सरकारें भी चाहे न हों, अपने प्रबन्धकीय कौशल से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर जोधपुर को संवारने में सचेष्ट रहे हैं।
ठीक सुखाडिय़ा-सा उलाहना जोधपुर को लेकर गहलोत को भी मिलता रहा है लेकिन तब हम यह भूल जाते हैं कि गहलोत ने 'अपने' दूसरे घर जयपुर के लिए भी बहुत कुछ किया और यह भी कि सत्ता में न रहते हुए भी वे जोधपुर के लिए लगे रहते हैं। हालांकि केवल इस कारण भर से गहलोत को बरी इसलिए नहीं किया जा सकता कि सूबे के मुखिया होने से प्रदेश के दूसरे क्षेत्रों से दुभान्त में फासला इतना भी नहीं होना चाहिए। उन्नीस-इक्कीस का अन्तर तो समझ में आता है।
ऊपर बताई बातों के अनुसार यह तो हुई मुख्यमंत्रियों की बात जोधपुर-गहलोत पर यद्यपि उस तरह लागू नहीं होती जिस तरह सुखाडिय़ा पर हुई। इसके ठीक उलट अपने शहर से प्यार करने का बड़ा उदाहरण शान्ति धारीवाल का दे सकते हैं। उन्होंने मात्र कैबिनेट मंत्री रहते अपने शहर कोटा का वर्ष 2008 से 2013 में जो हुलिया बदला अन्य जनप्रतिनिधियों के लिए यह बड़ा उदाहरण है। धारीवाल के उदाहरण से यह जाहिर होता है कि आप मुख्यमंत्री न भी हों, अपने क्षेत्र से यदि प्यार करते हैं तो केवल मंत्री रहते भी उसका काया-कल्प कर सकते हैं और जो मंत्रालय सीधे आपके अधीन नहीं हैं, अंगुली टेढी कर उन मंत्रालयों से सम्बन्धित जरूरी विकास भी 'अपने' शहर में करवा सकते हैं।
अब आते हैं अपने क्षेत्र बीकानेर की ओर। आजादी बाद के शुरू के बीस वर्ष में यह मान लें कि लोकतंत्र के लिए जरूरी विपक्ष को बीकानेर ने ताकत दी लेकिन फिर उसके बाद से तो यह क्षेत्र अधिकांशत: सत्ता पक्ष के साथ ही रहा है। इस क्षेत्र में 1980 के बाद कहने को दो पावरफुल मंत्री दोनों मुख्य दलों के रहेडॉ. बीडी कल्ला और देवीसिंह भाटी, लेकिन अपने क्षेत्र के लिए इनके दाय पर बात करें तो सिफर ही निकलेगा।
पहले डॉ. बीडी कल्ला की बात कर लें, वे अपने खाते में जो काम गिनवाते हैं उनमें से अधिकांश वे ही हैं जो सूबे के बीकानेर जैसे बड़े शहर या संभागीय मुख्यालय के नाते वैसे ही होने थे। उनके गिनवाए कामों के काल का अन्य बड़े शहरों में वैसे ही कामों के होने के काल से तुलना करें तो अधिकांश कामों के यहां होने की बारी अंत में ही आई। ऐसे में कल्ला किस बात का श्रेय लेना चाहते हैं। उनके काल में हुए कामों के लिए यथा इंजीनियरिंग कॉलेज, सदर जेल और परिवहन कार्यालय इन तीनों को जंगलों में स्थान दिलवाया गया जबकि वे निहित लोभ छोड़ कर बाशिन्दों के व्यापक हित की सोचते तो यह तीनों वहां नहीं होते जहां आज हैं। इसमें परिवहन कार्यालय (आरटीओ) का स्थान चयन तो उनकी संवेदनशून्यता को ही जाहिर कर रहा है। इस कार्यालय से जिन अधिकांश का साबका पड़ता है वे उनमें अधिकांश किशोर-किशोरियां होते हैं जिन्हें अपना लाइसेंस दो बार बनवाना होता है। अब बताएं उन्हें इस काम के लिए कहां जाना पड़ता है। इसी तरह जेल के अधिकांश सजायाफ्ता गरीब और कमजोर वर्ग से होते हैं, अब हो यह गया कि उनका परिजन कभी अपने प्रियजन से मिलना भी चाहे तो जेल तक पहुंचना काफी खर्चीला है और पहुंच जाएं तो मुलाकात उससे भी ज्यादा खर्चीली होगी।
इसी तरह यहां के जो कॉलेज-विश्वविद्यालय हैं, ये सब गोशाला की तर्ज पर यहां के नेताओं के हाजरियों की हाजरिया-शाला से कम नहीं हैं। इनमें अधिकांश लोग यहां के जनप्रतिनिधियों के हाजरिए ही ठूंसे गये हैं।
देवीसिंह भाटी भी कल्ला की तरह 1980 से अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते रहे। इस बार जनता ने उन्हें हराकर ठिठकाया भर है। लेकिन खुद उनके विधानसभा क्षेत्र कोलायत की गिनती प्रदेश के सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्रों में होती है। खनिज सम्पदा लूट का बड़ा क्षेत्र भी कोलायत गिना जाने लगा है। ये देवीसिंह भाटी ही हैं जिन्होंने अपने क्षेत्र में कुछ किया नहीं किया पर बढ़ते बीकानेर क्षेत्र की महती जरूरत जोधपुर-जैसलमेर मार्ग को जोडऩे वाले सड़क बाइपास निर्माण को गोचर के नाम पर अंडग़ा लगवा कर रुकवा दिया और शहर ने बर्दाश्त भी कर लिया।
गोपाल जोशी की दूसरी बार जनप्रतिनिधि होने की आस उस उम्र में पूरी हुई जब सक्रियता और विजन दोनों ही सिमटने लगते हैं। इस दूसरी पारी का उनका पहला कार्याकाल विपक्ष में निकला और दूसरा कार्यकाल उनकी नेता वसुंधरा राजे की काम के प्रति अरुचि की भेंट चढ़ रहा है। बीकानेर से ही दूसरी सिद्धीकुमारी को जनता जितवाती ही सत्ता भोगने को है तो फिर उनसे कुछ उम्मीद करना ज्यादती होगी।
नोखा के जनप्रतिनिधियों की लड़ाई हमेशा नाक की लड़ाई की भेंट चढ़ती रही है। रामेश्वर डूडी सिर्फ नेताई के लिए नेताई करते हैं उन्होंने न तब कुछ किया जब सांसद थे तो अब क्या करेंगे। उनकी रुचि इस शहर के लिए इतनी है कि नोखा जाने वाली बसें शहर के हर उस चौराहे पर बेतरतीबी बढ़ाए जहां से उसे गुजरना है। अन्यथा शहर से निकलने वाले चारों बड़े मार्गों पर अलग-अलग बस अड्डे विकसित हों तो शहर का यातायात कुछ सुधर सकता है।
सच्चे जनप्रतिनिधि की भूमिका निभाने को सचेष्ट मानिकचन्द सुराना अपने क्षेत्र ही नहीं पूरे सूबे के लिए उदाहरण हैं। अपने क्षेत्र के विकास हेतु लगातार सक्रिय रहने के बूते ही इस उम्र में हाल का चुनाव निर्दलीय रूप में लड़कर जीत लिया। सुराना ने बीकानेर शहर के प्रति अपने लगाव को तब जाहिर किया जब कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या के समाधान के लिए एलिवेटेड रोड का पक्ष उन्होंने दृढ़तापूर्वक लिया। ठीक इनके उलट जिन डॉ. कल्ला की जिम्मेदारी ज्यादा बनती है वे बाइपास की झक झाले रखकर अपनी भद्द पिटवा ही चुके हैं।
कोलायत के विधायक भंवरसिंह भाटी को अभी समय मिलना चाहिए वहीं खाजूवाला के डॉ. विश्वनाथ अपना पहला चुनाव अपने राजनीतिक गॉडफादर देवीसिंह भाटी के प्रभाव से जीते तो दूसरा देश में कांग्रेस के खिलाफ बने माहौल के बूते। इस तरह की लॉटरियां हमेशा नहीं निकलती और राजनीति में तो हरगिज नहीं। इस सरकार ने उन्हें संसदीय सचिव जैसा गैर प्रभावी पद जरूर दे दिया है। यदि उन्हें लम्बी पारी खेलनी है तो अपने क्षेत्र के गांवों की चार मूलभूत जरूरतों को पुख्ता करवाएंपानी-बिजली के आधारभूत ढांचे के अलावा सरकारी-स्कूलों और सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों की सेवाएं यदि वे चाक-चौबंद करवा पाते हैं तो न केवल अन्य जनप्रतिनिधियों के लिए वे उदाहरण बन सकते हैं बल्कि अपनी सीट को पक्की रख सकेंगे। नहीं तो 'उतर भीखा म्हारी बारी' को हासिल होते देर नहीं लगेगी।
श्रीडूँगरगढ़ के किसनाराम नाई हों या मंगलाराम गोदारा इनकी राजनीति के तौर तरीके अपने क्षेत्र के अन्य अधिकांश राजनेताओं की तर्ज पर मात्र क्षेत्र को उपनिवेश समझने से ज्यादा नहीं हैं। इनसे जनता छुटकारा लेवे तो कुछ बात बने अन्यथा भुगतते रहना जनता की मजबूरी है। इन दोनों ही ने अपने क्षेत्र के लिए उल्लेखनीय कुछ करवाया हो ऐसा दीखता नहीं है।
इन जनप्रतिनिधियों से अपने क्षेत्र के लिए कुछ करवाना तो दूर अधिकांश तो कुछ होने में या तो अड़ंगे लगाते नजर आते हैं या उसका कबाड़ा करते। रही बात यहां आने वाले अफसरों की तो उनमें से अधिकांश धापकर यहां तक कहने लगे हैं कि आप जिन नेताओं को जिताकर ताकत देते हैं जब उनकी ही रुचि यहां के विकास और सुधारे में नहीं है तो हमारे बाप का क्या जाता है, हमें तो साल दो साल ही गुजारना है।

4 फरवरी, 2016

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