पिछले विधानसभा चुनावों में लगातार दूसरी बार हार जाने के कुछ समय बाद डॉ.
कल्ला ने सक्रियता फिर दिखानी शुरू की तो लोगों ने इस कैबत को याद किया कि 'पहली रहता यूं तो तबला जाता क्यूं'।
प्रदेश में भाजपा राज के दो वर्ष जिस तरह से गुजरे हैं और केन्द्र की मोदी
सरकार ने जिस तरह उम्मीदें बंधा फिर उनसे मुंह फेरा उससे प्रदेश के कांग्रेसियों
में हौसला लौटने लगा है। कांग्रेसियों में यह आश्वस्ति भी दीखने लगी कि केन्द्र और
सूबे की सरकार से निराश हुए लोग 2018 के विधानसभा चुनावों में उनकी वैसी गत तो नहीं करेंगे जैसी 2013 में की थी। कांग्रेसी ही क्यों, राजनीति करने वाले सभी ऐसा मानते हैं कि जनता
की स्मृति इतनी टिकाऊ नहीं होती कि वह चार-पांच वर्ष पुरानी बातों को पकड़े रखे।
जनता वोट ताजी निराशा देने वालों के खिलाफ करती है। इस तरह कल्ला की दी निराशाओं
को जब अगले विधानसभा चुनावों तक लोग भूल जाएंगे तो उनका पलड़ा और भी भारी यूं ही
हो जाएगा। और यदि वर्तमान राजे-राज के बाकी के तीन वर्ष भी यदि वैसे ही गुजरेंगे
जैसे बीते दो वर्ष गुजरे हैं तो फिर कहना ही क्या।
डॉ. कल्ला यह मानकर चल रहे हैं कि आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी
बीकानेर पश्चिम से चुनाव उन्हें ही लड़वाएगी। ऐसी उम्मीद पर भरोसा इसलिए भी किया
जा सकता है कि बावजूद दो बार लगातार और कुल जमा तीसरी बार हार चुके कल्ला ने
पार्टी में प्रदेश स्तर पर अपनी इतनी हैसियत तो बना ही ली कि बिना किसी तात्कालिक
कारण के कल्ला की उपेक्षा नहीं की जा सकती। वैसे भी बीकानेर पश्चिम में किसी
राजनेता ने अपनी धाक ऐसी नहीं बना ली है
कि उसका दावा कल्ला के दावे से इक्कीस पड़े।
कांग्रेस के इस अकाल समय में डॉ. कल्ला की बात इसलिए हो रही है कि प्रदेश
स्तरीय गणतंत्र दिवस के आयोजन पर सूबे का राज बीकानेर में रहेगा। ऐसे अवसर को तब
कोई अवसरवादी क्यों छोड़ेगा जब सत्ता पक्ष दो वर्ष में कुछ कर ही न पाया हो। कल्ला
ने मांगों की एक फेहरिस्त रख कर घोषणा की है कि शहर की कुछ जरूरतों के लिए 21 जनवरी से वे क्रमिक अनशन करेंगे और सरकार ने
उनकी मांगों पर चौबीस-छत्तीस घंटों में ध्यान नहीं दिया तो 23 जनवरी से ही अनिश्चितकाल के लिए अनशन पर बैठ
जाएंगे। अनिश्चितकाल के लिए अनशन की घोषणा करना जितना आसान है उसे निभाना ऐसे समय
में उतना ही मुश्किल है जब सरकारें पिछले दशकों से असंवेदनशीलता और हेकड़ी से चलाई
जाने लगी हों। ऐसा कांग्रेस और भाजपा पर समान रूप से लागू होता है।
कल्ला के इस घोषित सत्याग्रह का ऊंट किस करवट बैठता है या खड़ा ही रहेगा कह
नहीं सकते लेकिन उन्होंने जो मुद्दे उठाए हैं उनकी पड़ताल कल्ला के पक्ष से एक बार
पुन: कर लें कि जब वे इन मुद्दों पर कुछ करने की हैसियत में रहे थे तब शुतुरमुर्ग
क्यों बने रहे।
—तकनीकी विश्वविद्यालय की घोषणा कांग्रेस की
पिछली सरकार ने भागते चोर की लंगोटी ही सही की तर्ज पर शासन की अंतिम छ: माही में
की। लेकिन तत्परता नहीं दिखाई कि इस अध्यादेश का विधेयक पारित करवाना है। क्या
कल्ला बताएंगे कि अपनी सरकार के समय इसके लिए वे आना-पायी जितने भी सक्रिय हुए थे
क्या?
—कल्ला की दूसरी मांग है: कोटगेट और सांखला रेल
फाटकों की समस्या के समाधान के लिए बाइपास का निर्माण शीघ्र करवाया जाए। पिछले
पचीस वर्षों से शहरी इस समस्या पर उद्वेलित हैं। बीते इन पचीस वर्षों में लगभग दस
वर्ष से ज्यादा समय तो उस कांग्रेस का ही शासन रहा जिसमें कल्ला प्रदेश स्तर की
हैसियत बना चुके हैं, पांच वर्ष तो वे
मंत्री भी रहे। अलावा इसके इन पचीस वर्षों में वे तेरह वर्ष यहां से विधायक भी
रहे। इस समस्या को किसी परिणाममूलक समाधान तक पहुंचाने के लिए कल्ला सक्रिय रहते
तो यह समस्या आज रहती ही नहीं।
—बीकानेर संभाग में उच्च न्यायालय बैंच की मांग
वर्षों पुरानी है। इस बीच कांग्रेस की सरकार कई बार रही कल्ला क्या इस हैसियत में
नहीं थे कि वे कुछ करवा पाते?
—रवीन्द्र रंगमंच के लिए कल्ला ने कभी रुचि
इसलिए नहीं दिखाई क्योंकि उनका स्वभाव ही रहा है कि अपने विधानसभा क्षेत्र के बाहर
नाली भी बने-न-बने, फूटे उनके। पिछले
बाइस वर्षों में कल्ला ने इस निर्माणाधीन रंगमंच के लिए कोई प्रयास किया हो तो
बताएं। इस रंगमंच की बड़ी प्रतिकूलता यह भी रही कि जिन देवीसिंह भाटी ने अपने
विधानसभा क्षेत्र में इसका शिलान्यास किया, खुद उन्होंने ही कभी इसकी सुध नहीं ली तो कल्ला भला क्यों
लेते।
—कल्ला ने शिक्षा निदेशालय को कमजोर करने का
मुद्दा भी उठाया है। 1980 में कल्ला जब से
शहर की राजनीति में सक्रिय हुए तभी से ही इसे कमजोर करने का सिलसिला लगातार जारी
है। स्वयं कल्ला के पास अधिकांशत: शिक्षा मंत्रालय रहा है, कल्ला चाहे न बताएं कि उन्होंने इसे मजबूती देने का क्या
प्रयास किया, क्योंकि ऐसा कुछ
उन्होंने किया भी नहीं है। लेकिन वे यह तो बता सकते हैं कि इसे कमजोर होने से
रोकने के लिए ही कभी कुछ किया है क्या। सभी राजनेता जनता को इसी तरह बरगला कर अपना
उल्लू सीधा करते रहे हैं। कल्ला की यह कवायद भी वैसी ही है।
दो बार हारे कल्ला की स्थिति अन्तिम संस्कार में गए उन मसानियां बैरागियों सी
है जिन्हें संसार निस्सार लगने लगता है और वहां थेपड़ी देने के इंतजार में कुछ
धर्म या कर्म की घोषणा तो कर देते हैं पर बाहर आने से पहले धोती और पेंट को झाडऩे
के साथ ही उन घोषणाओं को झाड़ देते हैं। कल्ला व उन जैसे ही अन्य नेताओं के संदर्भ
से बात करें जो चुनाव जीतने के बाद मसाणियां बैराग की तर्ज पर घोषणाओं को झाड़
देते हैं और जीतने के बाद उस जीत को भोगने के अलावा उन्हें कुछ सूझता ही नहीं।
व्यावहारिक भारतीय राजनीति की विडम्बना यह भी हो गई है कि कल्ला की हाल की जैसी
सक्रियता पर सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो विरोधी पार्टी की ऐसी 'ठक-ठकों' पर वह 'ठठेरे की बिल्ली'
हो लेती हैं।
14 जनवरी, 2016
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