Wednesday, December 16, 2015

देश और प्रदेश : उम्मीद के अलावा कोई चारा भी नही

ऐसा अभद्र माहौल पहले कभी नहीं देखा गया। हो सकता है इस अनर्गलता को काम न करने पाने की आड़ के तौर पर आजमाया जा रहा हो! क्योंकि केन्द्र में मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता के अठारह महीने हो लिए हैं तो सूबे में वसुंधरा राजे के नेतृत्व में भाजपा की ही सरकार ने दो वर्ष पूर्ण कर लिए। जितने वायदों को करके दोनों ही जगह भाजपा ने अच्छा-खासा बहुमत हासिल किया लेकिन इनमें से किसी एक को पूरा करना तो दूर वैसी मंशा का आभास देती भी ये सरकारें नहीं दिख रही। वसुंधरा के शासकीय और प्रशासकीय दोनों बेड़े पिछले दिनों तब बगलें झांकते देखे गये जब उन्हें फरमान मिला कि सूबे की सरकार के दो वर्ष की उपलब्ध्यिों की फेहरिस्त बनाएं। ऐसी फेहरिस्त तो तब बनती है जब कोई मजमून हो, यहां तो पहली पंक्ति लिखनी भी नहीं सूझ रही थी। मंत्रियों की स्थिति देखने वाली थी, मंत्रिमंडल के सत्तरह मंत्री इसलिए नहीं आए कि उन्हें अपना किया कुछ नजर ही नहीं आया। खैर, घाघ अधिकारियों ने जैसा-तैसा जुगाड़ कर जश्न करवा दिया। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष आ भी लिए, जब लगा कि डब्बा सफा गोल है तो 15 दिसम्बर की मंत्रियों की क्लास ही रद्द कर दी। इस दो साला जश्न का नारा था 'दो साल बेमिसाल'। मानना पड़ेगा जिसने भी नारा दिया बेहद सटीक दिया। आजादी बाद से ऐसे अ-राज के दो वर्ष कभी रहे नहीं होंगे। लगभग कोमा को हासिल कांग्रेस को कुछ सूझता तो सरकार को फुस्स करने के लिए इनका यह नारा ही पर्याप्त था।
कांग्रेस पार्टी सूबे की हो या देश की लगता है 'बिना ऊपरी मंजिल' के ही चल रही है। युवा नेता भी तो इन्हें ऐसा ही जो मिला है। कांग्रेस मुस्तैद होती तो भाजपा अकर्मण्यता की सभी आड़ों पर काउण्टर कर सकती थी। लगता है कांग्रेस के जिन नेताओं की ऊपरी मंजिल आबाद है, वे सभी हाशिए पर सुस्ता रहे हैं और जो कहार की भूमिका में हैं वे उस बिल्ली की सी उम्मीद में हैं कि छींका टूटेगा तो मलाई फिर हाथ लगेगी। भाजपा की सरकार केन्द्र की हो या राज्य की, उनके द्वारा वादे पूरा न कर पाने से बिल्ली मुद्राई कांग्रेसियों की बांछें खिलने लगी हैं। जनता का क्या, उसे तो कुएं और खाई की नियति को बारी-बारी भुगतना है।
 केन्द्र में नये राज के बाद बेधड़क हुई असहिष्णुता फिलहाल ठिठकी जरूर है लेकिन शासकीय पोल के चलते कभी भी चौफालिया हो सकती है। बोलचाल की लपालपी इतनी बढ़ गई है कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ही भाषाई मर्यादा का खयाल नहीं रख रहे तो देश में कहा-सुनी का माहौल खराब होना ही है। दिल्ली विधानसभा चुनावों में पटखनी खाए मोदी ने जब बिहार चुनाव को अपनी मूंछ का बाल मान लिया और शुरुआती सभाओं में ही जब वे भाषाई मर्यादाओं को लांघने लगे तभी 'विनायक' ने चेता दिया था कि मोदी ऐसी लपालपी में लालू को नहीं जीत पाएंगे और वही हुआ भी। अब मामला उससे भी आगे बढ़ चला है और भाजपा को यही अनुकूल भी लगने लगा है। क्योंकि वादा तो ये एक भी पूरा कर नहीं पा रहे हैं जैसा कि 'विनायक' में पहले भी कहा गया कि मोदी को यह अच्छी तरह समझ में आ गया है कि गुजरात को हांकना और देश को चलाने में बहुत अंतर है। छप्पन इंची सीने की गत तो नेपाल ने ही खराब कर रखी है, चीन-पाकिस्तान की हकीकत तो उन्हें अभी भी समझनी है—मंहगाई, बलात्कार, अपराध न केवल बदस्तूर जारी हैं बल्कि इजाफा ही हो रहा है। इन सबकी जड़ में भ्रष्टाचार है, लेकिन मोदी को लगता है कि इस जड़ को उखाड़े बिना ही वे देश के अच्छे दिन ले आएंगे। वे अब भी नहीं मान रहे हैं कि भ्रष्टाचार को बिना काबू में लाए अच्छे दिन नहीं आ पाएंगे। कोई एक उदाहरण ऐसा नहीं है जिससे लगे कि भ्रष्टाचार में कोई कमी आई है। काम करने-करवाने के तौर तरीके वही हैं। ऊपर से कमजोर तबकों के लिए राहत मुहैया करवाने वाली सार्वजनिक सेवाओं की दुर्गति कांग्रेस राज से ज्यादा बदतर हो ली है।
उधर सत्ता के साफ-सुथरेपन की बिना पर दिल्ली की सत्ता में आए अरविन्द केजरीवाल अभद्र भाषा के मामले में प्रधानमंत्री मोदी से जुगलबंदी करने लगे हैं। कांग्रेस के बबुआ राहुल गांधी क्या बोलते हैं, खुद उन्हें समझ नहीं आता तो दूसरे उनसे उम्मीद भी क्या करें। खैर, खुद जनता ने जिन्हें या जैसों को  जो हैसियत बख्शी है, उन्हीं को उसे भुगतना है। लोकतंत्र में सुधार की प्रक्रिया लम्बी इसलिए होती है कि इसकी प्रयोगशाला पूरा देश होता है। और विकल्पहीनता यही है कि शासन की लोकतांत्रिक प्रणाली के अलावा शेष सभी प्रणालियां अमानवीय साबित हो चुकी हैं।
17 दिसम्बर, 2015

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