फेसबुक
जैसी वैश्विक सोशल साइटों पर सक्रियता से यह आश्वस्ति होती है कि लगभग एक जैसा
विचारने वाले लोग देश और दुनिया में हैं, बहुत हैं। इन साइटों ने अन्यों और मित्रों के विचारों
को साझा करने का विकल्प देकर इसकी पुष्टि भी की हैं।
अभी
जब सहिष्णु और असहिष्णु मन:स्थितियों पर बजाय गंभीर विचार होने के छिछालेदर होने
लगी तो इस पर विचारने और विनायक के पाठकों से फिर से साझा करने का मन हुआ। पुराने
मित्र, सहधर्मी
और अहा! जिन्दगी के संपादक आलोक श्रीवास्तव की ऐसी विचारणा की पोस्ट फेसबुक पर
पढ़ने को मिल गई। जब वैसा ही फिर लिखना हो तो लगा कि उसी पोस्ट को पाठकों से साझा
क्यों न किया जाय। औपचारिक स्वीकृति के लिए जब मित्र आलोक से बात की तो उन्होंने
सहजता से हां कर दी—विनायक उनका आभार मानता है। उनका आलेख ज्यों-का-त्यों
प्रस्तुत है:—
बहुत दयनीय किस्म की बहसें चल रही हैं, बड़े ही कुटिलतापूर्ण
बयान आ रहे हैं। कोई मुद्दे को देश की सहिष्णुता की ओर मोड़ रहा है तो कोई भारत की
सदियों पुरानी सहअस्तित्व की परंपरा की दुहाई दे रहा है, तो कोई सरकार की
सफाई पेश कर रहा है। सच कहां है? बेशक यह देश असहिष्णु नहीं है, और सरकार भी नहीं हैतब
तक तो नहीं ही, जब तक कि वह इस संविधान के तहत है और इस तरह है कि
भविष्य के समस्त चुनावों के लिए भारतीय जनता ने उसे अंतिम रूप से अपना भाग्य नहीं
सौंप दिया है। फिर यह मसला क्यों? क्या सिर्फ दादरी की हत्या इसके पीछे कारण है या महाराष्ट्र
और कर्नाटक में हुई बुद्धिजीवियों की हत्याएं या चंद नेताओं के भड़काऊ बयान? शायद ये भी इतने बड़े
कारण नहीं हैं। राक्षस की जान किस तोते में है?
भारतीय जनता पार्टी सिर्फ एक राजनीतिक दल नहीं है, वह सांस्कृतिक संगठन
की एक प्रशाखा मात्र है। इस सांस्कृतिक संगठन की ढेरों प्रशाखाएं हैं। ये समस्त
प्रशाखाएं हिंदुओं का भयादोहन करने, हिंदू राष्ट्र निर्माण के अपने प्रकट एजेंडे में
सुविधानुसार गुप्त या गोचर तरीकों से कोई सदी भर से संलग्न हैं। अब इन्हें तरह-तरह
से केंद्रीय सत्ता का समर्थन और मदद हासिल है। ये समस्त संगठन जमीनी तौर पर जो कुछ
कर रहे हैं, उससे भय और असहिष्णुता का माहौल बनता दिख रहा है। बेशक
अभी बना नहीं है, बेशक अभी तो नाटक का परदा भी नहीं उठा है, अभी तो सिर्फ
नंदीपाठ हुआ है। स्थूल घटनाओं के पीछे संस्कृति के स्तर पर, शिक्षा के स्तर पर, समाज के स्तर पर जो कुछ हो रहा है, वह भारत को बांटने
वाला है, और संवेदनशील लोगों को अपने लिए नहीं, देश के भविष्य के
लिए भयभीत करने वाला है। भाजपा को इसमें विरोधी दलों की राजनीति दीखती है। हो सकता
है, हो भी, विरोधी दलों को इसमें अपना भविष्य भी दिख सकता है।
बेशक अभी इस संवेदनशीलता ने राजनीतिक शक्ल अख्तियार नहीं की है। इसे राजनीतिक होना
ही होगा। राजनीति होनी ही चाहिए आरएसएस और भाजपा समेत उसके समस्त आनुषंगिक दलों और
उनके एजेंडों के प्रतिरोध में सहिष्णु
भारत, उदार भारत, जागृत भारत को एक बड़ी राजनीति खड़ी करनी ही चाहिए। अगर
यह प्रतिरोध फिलहाल छोटे दिख रहे हैं, पर भविष्य में दैत्याकार होने वाले विचारों और एजेंडों
के खिलाफ बड़ी राजनीति में न बदला तो भारत
भारत नहीं रह पाएगा। इसे बहस की झूठी गलियों में मत ले जाइए। यह मत कहिए कि भारत
पाकिस्तान नहीं है। भारत जो कुछ है वह आरएसएस और इसकी विचारधारा से जुड़े समस्त
संगठनों—राजनीतिक व सांस्कृतिक—के बावजूद और उससे परे राज राममोहन राय, विवेकानंद, गांधी, अरविंद.... आदि के उदार
मानवतावादी राष्ट्रवाद की परिणति है। आरएसएस और भाजपा उस भारत का विलोम है जो
सदियों के संघर्ष से और असंख्य कुर्बानियों के
बाद हासिल किया गया है। यह भारत इनकी सांप्रदायिक प्रयोगशाला में वध की
वस्तु नहीं बनने दिया जाएगा। वह पाकिस्तान है नहीं, आप उसे बनाना चाहते हैं और बहुस्तरीय, बारीक, क्रमागत राजनीति
के जरिए बनाना चाहते हैं।
आप बहुमत का हवाला देते हैं। आप जनादेश का राग अलापते
हैं। हिम्मत है तो हिंदू भारत, हिंदुत्व और आरएसएस के विचारों को चुनाव सभाओं में
पूरी ईमानदारी से प्रचारित करें और जनादेश लें और बनाएं हिंदू भारत। आपको अधिकार
होगा। इतिहास में चोर दरवाजों से सेंध नहीं लगाई जाती। सहिष्णुता एक शब्द नहीं है
भारत की आत्मा है, और इसमें आपने अपनी बरछी घुसा दी है। यह राष्ट्र इसकी
पीड़ा महसूस कर रहा है—हालांकि अभी बहुत मद्धम बहुत क्षीण। और इस पूरे बदले
हुए माहौल में, सरकार के रूप में इनकी चुप्पी, संगठनों के रूप में
इनकी रणनीति और बड़-बोले नेताओं के रूप में इनकी बयानबाजी का कौशल देखने के काबिल
है।
26 नवंबर, 2015
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