Tuesday, November 10, 2015

बिहार के चुनाव परिणाम और बेधड़क असहिष्णुता

सहिष्णुता का मुद्दा और बिहार विधानसभा चुनाव के मतदान के बाद के चरण लगभग साथ-साथ चलते रहे। एक टीवी चैनल पर जब भाजपा के वरिष्ठ प्रवक्ता प्रभात झा से पूछा गया कि लोकसभा चुनाव आपने विकास के मुद्दे पर लड़ा लेकिन अब आपके लोग और अनुषंगी कभी बीफ तो कभी लव जिहाद, घर वापसी और पाकिस्तान भेजने जैसी बातें उठाकर माहौल को क्यों खराब कर रहे हैं? इस पर प्रभात झा ने विकास के मुद्दे को दरकिनार करते हुए साफ कहा कि हमारी पार्टी को वोट देने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि हमारी विचारधारा क्या है। यानी उनका आशय यह था कि जो कुछ भी हो रहा है उस पर मतदाताओं की मुहर लगी हुई है।
अभी जब रविवार, 8 नवंबर को बिहार चुनाव के परिणाम आए और उसमें जदयू-राजद व कांग्रेस के महागठबंधन ने चारों पार्टियों भाजपा, लोजपा, रालोसपा और हम के राजग गठबंधन से तीन गुना से ज्यादा सीटों के साथ जीत दर्ज की तो प्रभात झा की कही उक्त बात का स्मरण यूं ही हो आया।
इधर केन्द्र में मोदी नेतृत्व की राजग सरकार ने अपने कार्यकाल के सत्तरह महीनों बाद भी लोकसभा चुनाव के दौरान किए महंगाई, बेरोजगारी, स्त्रियों पर अत्याचार, किसानों की दुर्दशा में सुधार और चीन-पाकिस्तान को डपटने जैसे किसी भी वादे को पूरा करना तो दूर, उन पर तत्पर होने की भी कोई मंशा नहीं जताई। उलटे, अपूर्व बहुमत से सत्ता में आने के बाद भाजपा, उसकी पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसके अनुषंगी संगठनों में आस्था जताने वाले लोग पिछले नब्बे वर्षों से विद्वेषपूर्ण, गैर तथ्यात्मक और अनर्गल जो बातें करते रहे, अब मानों उन्हें मन की सब करने की छूट मिल गई है।
उच्च वर्गीय मानसिकता वाली यह विचारधारा ऐसा मानती रही है कि जिस तरह की जाति आधारित समाज व्यवस्था पहले थी वही उनके रुतबे को कायम रख सकती है। अत: गैर भारतीय भू-भागों से आए धर्म-सम्प्रदाय वाले तथा यहां के मध्यम और निम्न जातियों के लोगों की हैसियत दोयम दर्जे की ही है और उन्हें उसी तरह व्यवहार भी करना चाहिए। केन्द्र में मोदी नेतृत्व की सरकार आने के बाद इस तरह की अमानवीय मानसिकता अब न केवल मुखर होने लगी बल्कि बेधड़क भी हो गई। यहां तक, पार्टी और सरकार के अधिकृत लोग भी अनर्गल बोलने लगे हैं। इससे हुआ यह कि जो लोग मन में वर्षों से ऐसे उन समुदायों को, जिन्हें वे दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक मानते रहे हैं, निशाना बनाने लगे हैं। उन पर भी आक्रमण होने लगे जो इस तरह की अमानवीय बातें खारिज करते हैं। सत्ताधीशों ने जिस तरह 1984 और 2002 के संहार होने दिए वैसे ही इस तरह की अनर्गलता को रोकने की मंशा न सरकार में देखी गई और ना ही सत्ताधारी पार्टी में। जिन लोगों में घृणा के बीज वर्षों से बहुत व्यवस्थित ढंग से बोए गये, ऐसे सभी लोग अब अगर उसी फसल को काटने में जुट जाएं तो देश की स्थिति बड़ी भयावह हो जाएगी।
इसी सबके मद्देनजर विचारवान लोगों ने जब मुखर होने की ठानी और यह कहना शुरू किया कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है तो दूसरे पक्ष की ओर से अभियान के तहत इसे खारिज करना भी शुरू किया जाने लगा। जबकि हो यह रहा है कि कई दशकों से या कहें लगभग एक शताब्दी से योजनागत तरीके से तैयार असहिष्णु जमात की केन्द्र में पूर्ण बहुमत की अपनी सरकार आने के बाद मिले मौके पर अपनी करतूतों को पूरे देश में आजमाने को आतुर है।
भारतीय समाज की जिस तरह की संरचना है उसमें प्रत्येक उच्च वर्ग ने अपने से निम्न के साथ किए जाने वाले व्यवहार का हक नैसर्गिक मान रखा है। ऐसे में अनर्गल और असहिष्णु व्यवहार का सामान्यत: उन्हें भान ही नहीं होता और फट से यह कह दिया जाता है कि आखिर असहिष्णुता है कहां। चिन्ता का बड़ा कारण ऐसी मानसिकता ही है। इसे यदि नजरअंदाज करेंगे तो देश भीषण स्थितियों को प्राप्त हो जायेगा जिसकी कल्पना मात्र ही सिहरा देती है।
अब संक्षिप्त में बिहार के नतीजों की बात कर लेते हैं। ये नतीजे मोटा-मोट पिछले लोकसभा चुनावों के नतीजों का ही प्रतिबिम्ब हैं। जिस तरह मनमोहनसिंह की सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोपों में अपनी साख खोई और कांग्रेस लोकसभा में चौवालीस सीटों पर सिमट गई, ठीक वैसे ही मोदी ने केन्द्र में कुछ न करके और ऊपर से बिहार की चुनावी सभाओं में कुछ न करने की अपनी ग्लानि को ओछी बातों से ढककर साख खो दी। वहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा पिछले दस वर्षों में करवाए काम अनेक मतदाताओं की भावभूमि का हिस्सा बने देखे गए। रही जातिवाद के आरोप की बात तो सोचें कि इस देश में कौन-सा संस्कार और काम जातीय भूमिका से अछूता है? ऐसे में उम्मीद कैसे की जा सकती है कि लूट के सर्वाधिक अवसर उपलब्ध करवाने वाली राजनीति जाति से अछूती हो ले। इस जाति व्यवस्था को बनाए रखने में सर्वाधिक सचेष्ट अगड़ी जातियां ही हैं क्योंकि उनकी सुविधाओं की सभी अनुकूलताएं इसी व्यवस्था में निहित हैं।
बिहार के चुनाव की सभी गोटियां दोनों ही प्रतिद्वंद्वियों ने जातीय आधार पर ही फिट कीं। भाजपा को जब लगा कि उनका समीकरण कमजोर हो रहा तो उसकी भरपाई में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की उसकी गंदी कोशिशें तो नहीं चल पायी लेकिन जिन अगड़ी जातियों के माध्यम से उसने ऐसा करने की कोशिश की उन्होंने भारतीय चुनावों के इतिहास में पहली बार अगड़ी जातियों के ध्रुवीकरण के साथ भाजपा को समर्थन दिया। इसमें कह सकते हैं कि लालू का अगड़ी-पिछड़ी जातियों वाला आह्वान जरूर बहाना बना।
गठबंधन के आपसी भरोसे की बात करें तो महागठबंधन के तीनों दलों ने अपने-अपने वोटों को एक-दूसरे को ट्रांसफर करवाया, परिणामस्वरूप बिहार में कांग्रेस जैसे समाप्तप्राय दल ने जहां इकतालीस में से सत्ताइस सीटें हासिल कर लीं वहीं भाजपा अपने गठबंधन धर्म पर खरी नहीं उतरी। भाजपा के सहयोगियों ने जहां अपने वोटों को भाजपा के उम्मीदवारों को ट्रांसफर करवा कर उसे तिरपन सीटें दिलवा दीं वहीं उच्चवर्गीय मानसिकता वाले भाजपाई वोटरों ने ऐसा नहीं किया और उसके सहयोगी दल दो, दो और एक सीट पर ही सिमटकर रह गये।
बिहार के इन परिणामों से भी ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए। क्योंकि आजादी बाद से वर्तमान तक भारतीय मतदाता बिना मानवीय विवेक के हंकीज कर वोट करता रहा है। हां, उसे हांके जाने के मकसद, कुतर्क और प्रलोभन समय-समय पर बदलते रहे हैं। ऐसे में जब तक प्रत्येक मतदाता को एक लोकतांत्रिक नागरिक के रूप में दीक्षित-शिक्षित नहीं किया जाता, तब तक उसे भ्रमित करने और बरगलाने की पूरी-पूरी गुंजाइश बनी रहेगी। इस बरगलाने में पढ़े-लिखे, समर्थ और समृद्ध माने जाने वाले भी अछूते नहीं हैं, बल्कि वे ऐसा सोच-समझ कर और स्वार्थ के वशीभूत हो कर करते हैं।

12 नवम्बर, 2015

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