Thursday, August 6, 2015

नावेद का खिलन्दरपन ज्यादा चिन्ताजनक

बीस-बाईस साल के हथियारबंद आतंकी उस्मान उर्फ नावेद उर्फ कासिम को कल जब ग्रामीणों ने पकड़ा तो वे इस आतंकी के मुसकराते सहज चेहरे के मुखातिब हुए, जो यह बताता है कि घृणा की तासीर बांटने वाले तरुणों से हिंसा भी सहज होकर करवाने में सफल होने लगे हैं।
मीडिया ने उस आतंकी को नावेद नाम से सुर्खिया दी हैं। यदि ऐसा अनायास हुआ है तो यह नाम उसकी करतूतों से मेल नहीं खाता। इस तरुण की जैसी करतूतें हैं उसके हिसाब से मीडिया को इसे कासिम नाम से ही प्रचारित करना थाइस अरबी शब्द के मानी होते हैंबांटने वाला, विभाजक। नावेद यदि फारसी के नवेद से ही बना है तो उसके मानी शुभ सूचना और खुशखबरी होता है और उस्मान तो मुसलमानों के तीसरे खलीफा थे। मीडिया से ऐसी संवेदनशीलता की उम्मीद तब करना जब वह ब्रेकिंग की घुड़दौड़ में शामिल हो, कुछ ज्यादा में ही आयेगा।
जैसा कि 'विनायक' ने अपनी इस धारणा को एक से अधिक बार साझा किया है कि मकान के पड़ोस से छुटकारे का उपाय घर बदलना है मगर देश के पड़ोसी से छुटकारे का कोई उपाय नहींउसे जैसा है वैसा परोटना और भुगतना होता है।
धर्म के नाम पर देश का बंटवारा कर बना पाकिस्तान अपने अस्तित्व के समय से ही खुद चैन से रहता है और ना ही अपने सहोदर भारत को चैन से रहने देता है। लोक में घुट्टी के बहाने और गर्भावस्था के दौरान मां के आचार-व्यवहार और संगत से बालपन की हरकतों की व्याख्या की जाती है, वैसे ही पाकिस्तान की कल्पना का आधार 'धर्म' अपने आप में गलत था। कहने में धर्म को सुकून देने वाला कह सकते हैं, लेकिन समाज के अलावा 'धर्म' भी व्यक्ति की स्वंतत्र सोच पर मर्यादाएं लादता है। भारत की आजादी के आन्दोलन में धर्म की कोई भूमिका नहीं थी। हां, बंटवारे में थी, जिसने धर्म के नाम बंटवारा चाहा वह पाकिस्तान पिछले अड़सठ वर्षों में शायद ही कभी सुकून से रहा हो। इतिहास बताता है कि दुनिया की अधिकांश लड़ाइयों के मूल में धर्म था या धर्म की आड़ ली गई। इसलिए इस भारत देश में अब जो धर्म धुरन्धर वाचाल होते देखे जा रहे हैं उनसे सावधान होने की जरूरत है। इतिहास पर बजाय आत्ममुग्ध होने के, जरूरत उससे सबक लेने की है। आत्ममुग्ध अधिकांशत: खुद को और सभ्यता को परेशानियों में झोंकते हैं। पिछले लोकसभा चुनावों के बाद हमारे देश में भी आत्ममुग्धता का ज्वार देखा जाने लगा है। समय रहते सावचेत नहीं हुए तो पाकिस्तान जैसे हालात होते सदियां नहीं लगनी हैं।
नावेद चौदह दिन से अपने दूसरे साथी मोमिन के साथ भारत में था और ये दोनों सीमा पर लगी बिजली की बाड़ को काटकर इधर आए, हो सकता है, जिस समय इन्होंने ये सब करके सीमा पार की, उस स्थान पर या आसपास भारत का कोई जवान हो, लेकिन क्या उसके बाद भी गश्त के दौरान उन कटे तारों पर किसी की नजरें नहीं गई, या गई भी हो तो चुपचाप में उन्हें जुड़वा दिया गया। ऐसा यदि ध्यान गया तो सेना और बीएसएफ ने इस घुसपैठ से स्थानीय प्रशासन को सचेत किया या नहीं और किया तो स्थानीय प्रशासन ने क्या-क्या सावधानियां बरती, इसकी पड़ताल जरूरी है। वारदात के बाद की मुस्तैदी से सामान्यत: कुछ खास हासिल नहीं होता। ये दोनों आतंकी चौदह दिनों तक बेखौफ भारतीय सीमा में घूमते रहे। इनके अधूरे प्रशिक्षण के चलते ही नुकसान कम हुआ है अन्यथा सेना की गाड़ी पर हमले ने उनके दुस्साहस की बानगी तो दे ही दी। छप्पन इंच का सीना रखने वालों की सरकार के समय ऐसी घुसपैठों में लगातार बढ़ोतरी होना कम चिन्ताजनक नहीं है। यह भी कि यह सरकार कूटनीति के मामले में बार-बार जो अनाड़ीपन दिखा रही है उसके परिणाम भी अच्छे नहीं आने हैं।
बात नावेद से शुरू की और उसके कल के सहज-सुलभ खुशमिजाजी व्यवहार को चिन्ताजनक बताया। इस घटना पर विचार मनोविज्ञान के आधार पर भी होना चाहिए कि कोई आतंकी मारकाट मचा कर पकड़े जाने पर बातें इतनी सहजता और खिलखिला कर करता हो जैसे वह अपनों के बीच ही है तो समझ लेना चाहिए कि दहशतगर्द भारत से नफरत करने वालों की तासीर बदलने में कामयाब होने लगे हैं। आतंकी की तनाव-रहित यह सहजता इसी का परिणाम मानी जानी चाहिए।

6 अगस्त, 2015

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