Friday, August 28, 2015

नेहा गर्ग का मरसिया

सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज की छात्रा नेहा गर्ग सड़क दुर्घटना की शिकार होकर विदा हो गई। असमय मौत किसी की भी हो संबंधितों का बहुत कुछ छीन ले जाती है, उसके परिजनों की पीड़ा को तो बयां नहीं किया जा सकता। उसके कॉलेज के सहपाठियों ने दुर्घटना होते ही जबरदस्त गुस्से का इजहार किया। पुलिस ने भी आव देखा ताव, अपनी पर उतर आई। ऐसे समय में जब पुलिस को संयम से काम लेना था तब उसने संवेदनहीन और गैरजिम्मेदाराना तरीके से मामले को निबटाने की कोशिश की।
मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थी सामान्यत: शालीन दिखाई देते हैं। अपने पाठ्यक्रम के चलते उच्छंृखल होने की गुंजाइश उन्हें कम ही मिलती है। हालांकि जरूरत पडऩे पर अपने एके का प्रदर्शन ये भली-भांति करते हैं और मन की भड़ास भी पूरी निकालते हैं। इससे पहले की दो घटनाएं याद आती हैं जिनमें एक तो चालीस-पैंतालीस वर्ष पहले की हैछोटू-मोटू जोशी की दुकान पर मेडिकल छात्रों की कोई तकरार हुई। बात इतनी बढ़ी कि लड़के छात्रावास पहुंचे, संभलकर अन्यों के साथ लौटे और दुकान में जबरदस्त तोड़-फोड़ की। दूसरी घटना लगभग बारह वर्ष पहले की है। मेडिकल कॉलेज के आगे बीकाजी सर्किल नया-नया बना ही था और एक मेडिकल छात्र की मौत इसी चौराहे पर हुई दुर्घटना में हो गई। तब भी छात्रों ने पूरे सर्किल पर जबरदस्त तोडफ़ोड़ की। ये कहने की जरूरत नहीं कि इस सर्किल सहित बीकानेर के लगभग सभी सर्किल ट्रैफिक प्लानिंग के हिसाब से त्रुटिपूर्ण हैं। जिनमें गुजरने वाले सवार को दूसरी तरफ से आने वाले का भान ही नहीं होता। इनमें सबसे गलत तरीके से बने हैं बीकाजी और पूर्णसिंह सर्किल। इन दोनों सर्किलों पर दुर्घटनाएं होते-होते बचती भी हैं तो गुजरने वालों की सावचेती से ही, अन्यथा संबंधित सरकारी महकमों ने तो दुर्घटनाओं की पूरी गुंजाइश दे ही रखी है।
नेहा गर्ग की दुर्घटना को देखें तो यह पुलिस और प्रशासन, दोनों की यातायात व्यवस्था के प्रति ढिलाई का परिणाम है। कहते हैं जिस गाड़ी की टक्कर से नेहा गिरी वह छात्रसंघ चुनाव प्रचार में लगी थी। सभी जानते हैं कि जिस लिंगदोह कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ये चुनाव हो रहे हैं उसकी संहिता में उस सब की रोक है जिस तरह से चुनाव अब फिर होने लगे हैं। एक-दो वर्ष तो इन चुनावों में लिंगदोह की छाया देखी गई। बाद इसके तो वही घोड़े और वही मैदान हो गए। बस झंडे-डंडे, पोस्टर जरूर नहीं होते क्योंकि ये वीडियोग्राफी में लिंगदोह सिफारिशों के हनन के प्रमाण हो जाते हैं। बाकि तो कहते हैं कि इन चुनावों में क्या नहीं होता, उल्लेख करना मुश्किल है। पता चला कि डूंगर कॉलेज का एक-एक समूह चालीस-पचास लाख तक खर्च करता है। तोबा-तोबा।
इस सब पर पुलिस क्यों आंखें बंद करती है और प्रशासन क्यों नहीं कान धरता। कारण वही 'हमारे बाप का क्या जाता है' वाला जुमला। प्रशासनिक अधिकारी हो या पुलिस महकमें के अधिकारी, सभी को इन राजनेताओं से यही सलाह मिलती है, जैसा हो रहा है वैसा होने दें, आपको यहां रहना कितने वर्ष है। अफसरों को भी राजनेताओं की यह सलाह अनुकूल लगती है और 'टाइमपास' में लग जाते हैं।
अन्यथा स्थानीय प्रशासन कॉलेज प्रशासन का सहयोग करे तो लिंगदोह पुन: चेतन हो सकते हैं और शहर का यातायात भी सुधर सकता है। हर ऑटोरिक्शा, केम्पर-बोलेरो वाला गलत होते हुए भी पुलिसकर्मी को धमका कर निकल जाता है। क्योंकि ये सभी किसी किसी नेता से अभय-कवच हासिल किये होते हैं। निजी बस वाले तो व्यवहार इस तरह करते हैं कि सड़कों के मालिक वही हैं। शहर के दुपहिया वाहन वाले अधिकांश किसी किसी नेता या पत्रकार के रिश्तेदार होते हैं या बाजदफा तो खुद पत्रकार ही होते हैं। इस सबके चलते शहर में कोई दुर्घटना फिर से हो कह नहीं सकते। ऐसे में पुलिस को अपना ताव और गुस्सा कब निकालना है इसका विवेक वह सहजकर नहीं रख पाती। मेडिकल छात्रा नेहा की मौत पर उसके कॉलेज के साथी यदि तात्कालिक गुस्से के शिकार हो गये तो पुलिस को संयम बरतना था। अब भी अवसर है, पुलिस और प्रशासन को इस मामले में बड़प्पन दिखाना चाहिए। नेताओं से धाये-धापे पुलिस वालों को कभी खीज नेताओं पर भी निकालनी चाहिए ताकि इन नेताओं का दिमाग भी ठिकाने रहे। लाइन भेजने और स्थानान्तरण करवाने के अलावा ये नेता और क्या बिगाड़ सकते हैं।

28 अगस्त, 2015

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