गुजरात की सर्वाधिक समृद्ध और समर्थ मानी जाने वाली पटेल-पाटीदार जाति के नवयुवा हार्दिक पटेल ने सभी तरह की मुखरताएं इन दिनों अपनी ओर कर रखी हैं—अखबार हो या खबरिया चैनल, राजनीतिक जुगाली हो या फिर जब तब, यहां-वहां होने वाली चर्चाएं ही क्यों न हो। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस नयी जिम्मेदारी से पहले लगभग बारह वर्ष तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे और गुजरात से संंबंधित अधिकृत आंकड़ों के उलट इस भ्रम को स्थापित करने में सफल रहे कि गुजरात प्रदेश का विकास मॉडल ही आदर्श है।
पता नहीं कितनों को याद होगा, सोवियत रूस में लगभग सत्तर वर्षों का लौह आवरण जब पिछली सदी के नवें दशक के उत्तराद्र्ध में हटा तो वहां की अर्थव्यवस्था का न केवल खोखलापन सामने आया बल्कि सोवियत संघ के बिखरने में भी समय नहीं लगा। पटेल-पाटीदार समुदाय की पिछले एक सप्ताह की गतिविधियां भी मोदी के बनाए भ्रमावरण को अनावृत करती दीखती हैं। मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्रित्वकाल में शासन और पुलिस दोनों को पंगु बनाया, तय भ्रष्ट दरों पर व्यापारियों और उद्योगपतियों को मालामाल होने की छूटें दी गईं, श्रम कानूनों को इतना शिथिल कर दिया गया कि उसके मानी ही समाप्त हो गये। अन्य प्रदेशों की तरह सरकारी नौकरियों में स्थायी भरती की जगह बेहद कम और निश्चित पगार पर अनुबंधित कर्मचारी रखे जाने लगे, छठे वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू नहीं किया गया, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सार्वजनिक सेवाओं को नजरअंदाज किया गया और कृषकों से संबंधित किसी भी जरूरत पर ध्यान नहीं दिया गया। ऐसे में जो समृद्ध और समर्थ किसान थे उन्होंने नलकूपों की अंधाधुंध छूट ली और गुजरात के अधिकांश हिस्सों को गहरे भू-जल वाला बना दिया गया। टोल मार्गों के अलावा सड़कें बदहाल होती गईं, कुछेक शहरों को छोड़ कर पेयजल और बिजली की व्यवस्थित आपूर्ति गड़बड़ाई रहती है। इस सबके बावजूद मोदी ने गुजराती-गुमान का काढ़ा पिला-पिला कर प्रदेश की अवाम को भरमाए रखा। व्यापारी-उद्योगपति और जरखरीद मीडिया सहित महानायक बने अमिताभ बच्चन तक धोखा देने की इस मुहिम में शामिल थे।
इन दिनों गुजरात में दुर्घटित हार्दिक पटेल की कोरी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं का भुगतान मात्र नहीं है। लाखों पटेलों को लगने लगा है कि जो कुछ उनको हासिल है उसे अब दुगुना करने की स्थितियां नहीं है। ऐसे में उन्हें लगने लगा है कि आरक्षण के माध्यम से सरकारी नौकरियां पाकर अच्छी तनख्वाह पाने लगेंगे, गुजरात के सरकारी तंत्र में लगभग व्यवस्थित हो चुकी रिश्वत प्रणाली की कमाई मिलेगी जो अलग और परम्परागत खेती-बाड़ी जैसे काम तो नफे में हैं ही। उनका दोष भी नहीं, कोई धंधेबाज और सरकारी अधिकारी-कर्मचारी बिना कुछ खास किए केवल दंद-फंद से नवधनाढ़्य होते जा रहे हैं, उसका आकर्षण भी कम नहीं है। गुजरात यदि आदर्श विकास का उदाहरण होता तो कल हुई हिंसा की यह नौबत कम-से-कम वहां की सबसे समृद्ध जाति की ओर से नहीं आती।
राजस्थान, हरियाणा और उत्तरप्रदेश में जाटों और गुर्जरों के, महाराष्ट्र में मराठों और गुजरात में पटेल-पाटीदारों के आरक्षण आन्दोलन को शह राजनीतिक निर्णयों से मिली है। पिछड़ों को आरक्षण तय और लम्बी प्रक्रिया के तहत दिया गया था। हो सकता है उसमें कुछ चूकें रही हों और ये भी कि उसे लागू करने के तरीके को चाहे राजनीतिक कह लें लेकिन पिछड़ों को आरक्षण की जरूरत राजनीतिक नहीं थी।
इस सदी के शुरू में जब जाटों को पिछड़ों में शामिल किया गया तब भाजपा और कांग्रेस दोनों जानते थे कि पिछड़ों के लिए तय मानकों में जाट नहीं आते हैं और कानूनी दावं-पेचों में ये बाहर हो जाएंगे या उलझ कर रह जाएंगे। उच्चतम न्यायालय के फैसले से ये साबित भी हुआ—ताकत से हासिल इस आरक्षण से राजस्थान में गुर्जरों को शह मिली, महाराष्ट्र में मराठों और गुजरात में पटेल-पाटीदारों को। इनमें से कोई भी पिछड़ों के मानकों पर सही ठहरते तो तभी शामिल कर लिये जाते जब वर्षों तक इस पर कवायद चली। देश में पिछले कई दशकों से चल रही विवेकहीन और स्वकेन्द्रित सरकारों के चलते आगे क्या-क्या होना है, कह नहीं सकते। लेकिन देश अच्छे दौर की ओर नहीं बढ़ रहा है। विश्व बाजार जैसी अमानवीय अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी है। भारत में गरीब-अमीर के बीच खाई बढ़ती जा रही है। रोजगार के अवसर लगातार सीमित होते जा रहे हैं। मोदी को यह सब अब तक अच्छी तरह समझ में आ गया होगा कि न अन्तरराष्ट्रीय कूटनीति आसान है और न देश की अर्थव्यवस्था चलाना, इसीलिए वे देश में मुखातिब होने से बचने लगे हैं और इस धारणा को तोडऩे के लिए यदा-कदा अपने दर्शन देने भर को प्रकट भी होते हैं। इस हीनभावना से उबरने के लिए विदेशों में प्रायोजित 'मोदी-मोदी' कार्यक्रमों में शामिल होने के लिए कुछ-कुछ समय बाद विदेशों में जाते हैं और थोड़ा बहुत आत्मविश्वास लेकर लौटते हैं। देखने वाली बात इतनी ही है कि ऐसे उधार के आत्मविश्वास से वे चलाएंगे कितने'क दिन।
27 अगस्त, 2015
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