Thursday, August 20, 2015

न्याय की देवी या न्याय की मॉडल

तराजू लिए खड़ी न्याय की मॉडल की आंखों पर काले कपड़े का फीता बंधा है। बजाय देवी के मॉडल इसलिए कहा कि भारतीय न्याय व्यवस्था में भरोसा तो जैसा तैसा फिर भी अभी कायम है लेकिन श्रद्धा लगभग समाप्त हो गई। बड़े और चर्चित मुकदमों की बात एक बार छोड़ भी दें, सामान्य से मुकदमे में न्याय पाना आसान नहीं रह गया है। सतत सावचेती, भरोसेमंद पैरवी, डटे रहने वाले गवाह और अडिग न्यायाधीश ना हो तो खरे मामलों के खिलाफ भी फैसले आते अकसर देखे जाते हैं। मतलब किसी एक के दो-चार मुकदमें भी गले पड़ जाए तो वह गया काम से। अकसर ऐसे जुमले सुनते हैं कि फलाना वकील भरोसेमंद नहीं, वह दूसरी तरफ से भी फीस ले लेता है, पेशकार बाबू मामले को इधर-उधर कर देता है, जज साहब चेम्बर प्रैक्टिस में भी संकोच नहीं करते, ये चेम्बर प्रैक्टिस तो नहीं करते पर अपनों के कहे सुने का लिहाज कर देते हैं। अच्छा-भला भरोसेमंद वकील भी आपने कर लिया तो हो सकता है आपका मुकदमा उसकी प्राथमिकता में ही हो। मामला सार्वजनिक सम्पत्ति या सरकारी पक्ष का हो तो सरकार की ओर से पेश होने वकील-विधि सलाहकार और अधिकारी बाबुओं को डिगाना अब बहुत मुश्किल नहीं रह गया। इसी के चलते सरकारी महकमे अकसर मुकदमें हार जाते हैं।
न्याय की ताकड़ी की काण के संबंध में ऊपर सुना-कहा यदि कुछ सच है तो बताएं कि तराजू लेकर, आंखों पर पट्टी बांधे खड़ी ऐसी महिला को देवी कैसे कहें जिसे काण का लखाव पडऩा ही बन्द हो गया। मॉडल कहना ज्यादा उचित इसलिए होगा कि मॉडल का तो धंधा ही इधर-उधर होकर आजीविका चलाने का है। आज एक उत्पाद को बढ़ावा देंगे और अनुबंध पूरा होने पर उसके प्रतिस्पर्धी उत्पाद की मॉडलिंग भी निस्संकोच कर लेंगे।
झूठ-साच की तो हद ये है कि केवल रंगे हाथों पकड़े जाने वाले बरी हो जाते हैं बल्कि सरेराह हत्या करने वाले बाइज्जत बरी हुए घूमते हैं। ड्यूटी और जिम्मेदारी के प्रति लापरवाहियों के चलते होने वाली दुर्घटनाओं के भी शिकार प्रतिदिन सैकड़ों होते हैं पर ढूंढ़ के बताएं कि ऐसों में से कितने गैर जिम्मेदार व्यक्ति सजा पाते हैं, बल्कि इनमें से कई तो इस आत्मविश्वास के साथ लौटते हैं कि ऐसी लापरवाहियों से बचाव की अटकल तो अब उनके पास गई है।
दैनिक अखबार के संपादकीय के रूप में रोज टिप्पणी करना 'श्मशनिया वैराग ' से कम नहीं होता। प्रत्येक दिन घटित पर प्रतिक्रिया देना और पिछले को भूलना इस पेशे की मजबूरी है या इसके लिए कुछ और बहाना भी कर सकते हैं।
आज की बात अठारह वर्ष पहले दिल्ली के उपहार सिनेमा हादसे पर उच्चतम न्यायालय के कल आए फैसले से प्रेरित है। सिनेमा हॉल में व्यवस्था की लापरवाही के चलते उनसठ लोग जिन्दा जल मरे थे, उन घायलों की तो कोई बात ही नहीं जो जिन्दा तो रह गये पर या तो अपंग हो गये या कुरूप। कहते हैं सात सौ की क्षमता वाले इस सिनेमा हॉल मेें हजार को ठूंसने के चक्कर में केवल आपात निकासी के मार्ग को बन्द कर कुर्सियां लगवा दी गईं बल्कि हादसे के समय सुचारु दरवाजों को बजाय खोलने के उलटा बन्द कर दिया गया। सिनेमा हॉल के नीचे ही लगे जेनरेटर में लगी आग ने पास के दो ट्रांसफार्मरों तक पहुंचते देर नहीं लगाई और देखते ही देखते सैकड़ों परिवारों का ताना-बाना बिखर गया। कहते हैं सिनेमा हॉल के दोनों मालिक बन्धु अरब-खरबपति हैं। अठारह वर्ष चले इस मुकदमें में उनको दो वर्ष की सजा और सौ करोड़ का जुर्माना उच्चतम न्यायालय तक आते-आते मालिकों के तेज से पिघलकर सजा तो पूरी तरह माफ हो गई और जुर्माना भी साठ करोड़ पर रह गया। ऊपर से यह कि यह जुर्माना पीडि़त परिवारों को मिल कर उस सरकार को मिलेगा जिसके निरीक्षकों की बेईमानी और लापरवाही के चलते जहां सिनेमा हॉल की क्षमता से तीन सौ दर्शक अधिक ठूंसे जाते थे वहीं आग-भगदड़ आदि की स्थितियों से बचाव के मानकों की अनदेखी की गई। इस मुकदमे के इस हश्र तक पहुंचने की पड़ताल में हो सकता है आंखें खोलने वाली सचाई हो, इसकी ही क्यों, हर उस मुकदमें की पड़ताल आखें खोलने वाली हो सकती है जिसका फैसला-सत्य और असल तथ्य से भिन्न आया हो। इसलिए काण वाली ताकड़ी हाथ में पकड़े जिस महिला ने आंखों पर काला फीता बांध रखा है उसे अब न्याय की देवी नहीं न्याय की मॉडल ही कहा जा सकता है।

20 अगस्त 2015

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