Monday, August 10, 2015

बिहार चुनाव कहीं हिसंक धुलंडी न हो जाए

बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं। पिछले पचीस वर्षों में शुरू के पन्द्रह वर्ष लालूप्रसाद यादव फिर उनकी पत्नी राबड़ीदेवी का शासन था और इन दस वर्षों में हाल के लगभग दो वर्ष छोड़ दें तो जनता दल युनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी की संयुक्त सरकार रही। मुख्यमंत्री जदयू के नीतीश कुमार तो उपमुख्यमंत्री रहे भाजपा के सुशील मोदी। कांग्रेस यहां अपना अस्तित्व बचाए रखने को ही संघर्षरत है। लोकसभा चुनावों की बागडोर नरेन्द्र मोदी को दिए जाने पर 2013 के अंत में जदयू ने भाजपा से गठबंधन तोड़ लिया था। चूंकि पार्टी का अकेले बहुमत नहीं था सो नीतीश ने जनता पार्टी समय के पुरानी साथी लालूप्रसाद यादव और कांग्रेस का बाहरी समर्थन लेकर सरकार को बनाए रखा है।
1977 बाद से चौतरफा दरवाजा हुईं पार्टियां कब किसके विरोध में होती हैं और कब किसको समर्थन देती-लेती हैं ये बड़े उलझाड़ से कम नहीं है। कभी वामपंथी और धुर दक्षिणपंथी पार्टियां एक साथ किसी पार्टी को समर्थन देती दीखेंगी तो कभी आपस में लट्ठमलट्ठा होते भी। एक दूसरे को पानी पीकर कोसने वाले कब गलबहियां लिए घूमने लगते हैं और कब ताल ठोकने लगें इस पर अब कोई अचम्भा नहीं होता। बिहार में चारा घोटाले के आरोपी जिन लालूप्रसाद का मुकाबला भाजपा-जदयू मिलकर करते थे वही जदयू लालू के साथ है तो गुजरात दंगों के बाद केन्द्र की राजग सरकार से इस्तीफा देने वाले लोक जनशक्ति पार्टी वाले रामविलास पासवान को अब उन्हीं नरेन्द्र मोदी में कोई दोष नहीं दिखाई देता। उन्होंने केवल पिछला लोकसभा चुनाव भाजपा से मिलकर लड़ा बल्कि लगभग तय है कि आगामी बिहार विधानसभा चुनाव भी मिलकर लड़ेंगे। भाजपा का जनसंघी वर्जन, राजद, जदयू और लोजपा के लोग 1977 में कांग्रेस के खिलाफ एकजुट थे ही।
यद्यपि चुनाव आयोग ने चुनावी तारीखों की विधिवत घोषणा नहीं की है लेकिन बिहार चुनावी रंग में रंगा नजर आता है। भाजपा ने विधानसभावार एक-एक चुनावी रथ सड़कों पर उतार दिए हैं, प्रधानमंत्री मोदी मुजफ्फरपुर के बाद कल गया में चुनावी रैली कर चुके तो जदयू-राजद-कांग्रेस का गठबंधन भी पूरी तरह सक्रिय हो गया है।
बिहार के चुनाव खून-खराबे के लिए तो बदनाम हैं ही जातिवाद के हिंसक रूप के साथ लालूप्रसाद यादव के बाद बकवादी भी हो गया है। हाल तक लालूप्रसाद यादव के ही अनर्गल बयान सुने जाते थे लेकिन लगता है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस मामले में लालू को पीछे छोडऩे की ठान ली है। मुजफ्फरपुर के उनके अठन्नी छाप भाषण की काफी आलोचना हुई लेकिन कल उनके गया में दिए चवन्नी छाप भाषण को चिंताजनक माना जाने लगा है। वे अपने पद की गरिमा का खयाल बिलकुल नहीं रख पा रहे हैं बल्कि जो आत्मविश्वासी तेवर 2013 के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में और पिछले वर्ष के लोकसभा चुनावों के दौरान उनके थे वह लगभग नदारद हैं। होना तो यह चाहिए था कि उनको शासन संभाले डेढ साल हो रहा है ऐसे में उन्हें अपने शासन की उपलब्धियां गिनवानी चाहिए थी, यदि कोई हैं तो। बजाय इसके वे लालू के तौर-तरीकों से भी नीचे उतर आए। पार्टी नामों पर संक्षिप्ताक्षरों की भद्दी व्याख्या जो उन्होंने मुजफ्फपुर से शुरू की उसे कल गया में भी आगे बढ़ाया। नहीं पता कि प्रधानमंत्री ने खुद के पर्यवेक्षण के लिए कोई टीम बना रखी है या नहीं। ऐसी जरूरत यदि वे नहीं समझते हैं तो भूल कर रहे हैं। क्योंकि ऐसी अनर्गलता में वे लालूप्रसाद से नहीं जीत पाएंगे और बिहार में चुनाव हिंसक धुलंडी में बदलते देर नहीं लगेगी। लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव जीतना जरूरी तो होता है लेकिन जीतना ही सब कुछ नहीं होता। जो ऐसा नहीं मानते उन्हें अन्तत: हारना होता है।

10 अगस्त 2015

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