Monday, July 6, 2015

बुलाकीदास 'बावरा' के बहाने व्यवस्था विरोध की बात

कवि बुलाकीदास 'बावरा' के अस्सीवें जन्म दिवस पर आज उनकी तीन पुस्तकों का लोकार्पण होना है। 'बावरा' की सक्रियता के स्मरण के लिए पिछली सदी के आठवें दशक में लौटना होगा। आजादी बाद से ही वोट डालने की देश की आम धारा के विपरीत रहे बीकानेर में कांग्रेस ने 1967 में तब जगह बनाई जब अन्यत्र उसकी पैठ का क्षरण होने लगा। अन्यथा 1952 से लेकर 1962 तक के चुनावों में कांग्रेस को इस क्षेत्र के लूनकरणसर के अलावा कहीं चुनावी सफलता नहीं मिली थी। इसके कारणों का उल्लेख मुरलीधर व्यास और गोकुलप्रसाद पुरोहित के हवाले इसी कॉलम से आप पहले ही जान चुके हैं।
आजादी बाद से देश और सूबे में कांग्रेस का शासन था, इसलिए आजादी के समय बनी उम्मीदों के पूरा होने का दोषी भी कांग्रेस को माना जाएगा। बीकानेर में 1952 का विधानसभा चुनाव समाजवादी मुरलीधर व्यास भले ही हारे हों लेकिन इसके बाद शहर में व्यवस्था विरोध के बहाने कांग्रेस विरोध की अलख जगाने में वे सफल रहे। इसीलिए 1957 और 1962 के चुनाव वे जीत पाए थे। लेकिन बाद इसके वे हारे भी 1967 में तब जब पूरे देश में कांग्रेस विरोध का माहौल पनपने लगा था।
आठवें दशक में आपातकाल के दौर के अलावा तब शहर में कवि सम्मेलनों में व्यवस्था विरोध की वाणी मुखर थी। इनमें जनकवि हरीश भादानीशायर मस्तान, भीम पांडियाबुलाकीदास 'बावरा', लालचन्द भावुक और सरल विशारद जैसे कवियों के नाम प्रमुख रहे। भीम पांडिया और सरल विशारद वे बेधड़क थे जिन्होंने आपातकाल में भी मंचों से आपातकाल विरोधी कविताएं सुनाई जब कि पांडिया तो सरकारी सेवा में थे ऐसों की ही कविताओं के माध्यम से व्यवस्था विरोध के भाव का पोषण होता रहा है। 1977 में व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद में देश के दक्षिण उत्तर-पश्चिम को छोड़ शासन में आमूल बदलाव आया। शासन के इस बदलाव ने शासक बदलने की युक्ति तो अवाम को दे दी लेकिन व्यवस्था बदलने की उसकी उम्मीदें सिरे नहीं चढ़ी।
हुआ यह कि इसके बाद कांग्रेस के अलावा जो भी पार्टी सत्ता में आयी, उसने राज को उसी तरह चलाया ज्यों कांग्रेस चलाती आयी थी। बल्कि विरोधी पक्ष में रहने के चलते लालच और भूख इतनी बढ़ी हुई थी जिसे मिटाने में स्थापित व्यवस्था ही अनुकूल लगी और उसे ही ज्यों-की-त्यों या कहें बदतर तौर पर अन्य पार्टियों ने भी अवाम पर लादे रखा।
नारों, प्रदर्शन या कहें कवि सम्मेलनों के माध्यम से आक्रोश को हवा तो दी जा सकती है पर उसे तार्किक आधार नहीं दिया जा सकता। किसी भी विरोध का आधार यदि तार्किक नहीं होगा तो उसका दुरुपयोग होने की आशंका रहती ही है। हुआ भी वही, इस तरह के व्यवस्था विरोध का मानी कांग्रेस विरोध मान लिया गया और हर वह दल जो सत्ता हथियाना चाहता था वह कांग्रेस और व्यवस्था को आपस में गड्डमड्ड कर जनता को परोसने लगा। नतीजा रहा कि शासकों के बैनर तो बदलते रहे लेकिन व्यवस्था वैसी ही या कहें पहले से ज्यादा अमानवीय होती गई। ऐसा ही भ्रम कमोबेश आज भी काम कर रहा हैतभी, कांग्रेस जिन तौर तरीकों से शासन पर काबिज होती और उसे हांकती रही है, वैसे तौर-तरीकों के साथ अन्य दल चाहे वह भाजपा हो या राजद, समाजवादी पार्टी हो या जदयू या फिर दक्षिण प्रदेशों की पार्टियां, केन्द्र और राज्यों में उन्हीं नीतियोंं को बढ़ाती रहीं जिनका पोषण कांग्रेस करती रही है। वामपंथी शासन भी अपनी अलग छाप छोडऩे में कामयाब नहीं देखे गए। इसका प्रमाण तो हाल ही के लोकसभा चुनावों से दिया जा सकता है कि मोदी जिस कांग्रेस विरोध को व्यवस्था विरोध बता सफल हुए हैं भाजपा के इन 283 सांसदों में 110 से ज्यादा वे लोग जीते हैं जो लगभग चुनावों तक कांग्रेस में ही थे।
ठगे जाने या भ्रमित होने के अलावा जनता का हासिल नगण्य हैभ्रष्टाचार बदस्तूर जारी है, बड़े घोटालों का खुलना, और तो और वर्तमान राज में अपनी खाल बचाने के लिए समर्थ और बाहुबली अब मिनख मारने में संकोच नहीं कर रहे हैं। मानवीय मूल्य तो आजादी बाद ही ताक पर रखे जाने लगे थे, अब तो खुद मानव की ही बलि ली जाने लगी है। भाजपा राज में व्यापमं घोटाला इसका प्रणाम है, इसलिए जरूरत बजाय व्यवस्था विरोध के, शासन में बदलाव लाने की है। आज के लगभग सभी राजनीतिक दल वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था के केवल पोषक हैं बल्कि उन्हें इससे अपना लालच साधते ही देखा जा रहा है।

6 जुलाई, 2015

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