Tuesday, July 21, 2015

स्मार्ट न सही बीकानेर, सेमी-स्मार्ट तो बने

केन्द्र की वर्तमान सरकार ने जिन वादों पर यह चुनाव जीता इनमें से एक देश के सौ शहरों को स्मार्ट सिटी बनाना भी था। इन सौ शहरों के चयन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इस धन-थथेड़ु योजना में राजस्थान के तीन-चार शहर शामिल होने हैंबीकानेर का नम्बर शायद ही पाए।
आजादी बाद देश ने जिस आर्थिक मॉडल को अपनाया उसे विकास का शहरी मॉडल भी कह सकते हैं क्योंकि उस आर्थिक मॉडल में शहरी विकास की संभावनाएं ही निहित थी। यह अलग मसला है कि वह विकास व्यवस्थित हो रहा है या अव्यवस्थित। चूंकि आर्थिक तंत्र अपनी जरूरत के हिसाब से शहरों को विकसित कर रहा था इसलिए विकास पूर्व का कोई सुनियोजित खाका कभी विकसित ही नहीं किया गया। ऐसे में हुआ यह कि शहर पसरे तो बहुत लेकिन उनमें सामान्य शहरी सुविधाएं भी नहीं देखी जाती हैंचण्डीगढ़, नोएडा आदि के विकास को अपवादस्वरूप ले सकते हैं।
राजस्थान के स्वायत्त शासन विभाग के प्रमुख सचिव कल बीकानेर में थे। उन्होंने अपने विभाग की भावी योजनाओं पर संबंधित पक्षों से चर्चा की। यद्यपि उन्होंने स्मार्ट सिटी शब्द का प्रयोग तो किया लेकिन वे यह बताने में असमर्थ रहे कि प्रधानमंत्री जिन सौ शहरों को स्मार्ट बनाना चाहते हैं इनमें बीकानेर भी होगा या नहीं। वैसे भी अपने 'सुस्त' जनप्रतिनिधियों के चलते इस तरह की उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही माना जायेगा। केन्द्र सरकार बीकानेर को 'स्मार्ट' या कहें 'चुस्त' शहरों की योजना में शामिल करे करे पर प्रदेश की सरकार संभागीय मुख्यालयों को 'चुस्त' बनाने के नाम पर धन की व्यवस्थाओं में हाल-फिलहाल लगी है। इस तरह की योजनाओं के बिना ऊपरी धन की व्यवस्था भी तो नहीं होती। खैर, इस रीत के यही गीत हैं।
अगले तीन महीनों में यह शहर एलइडी लाइटों से जगमगाने लगेगा। पूरे शहर को जगमगाने के लिए निजी कम्पनी को काम सौंप दिया गया है। उम्मीद करनी चाहिए कि जगमगाए चाहे नहीं, शहर के सभी मार्ग शाम का अंधेरा घिरने पर रोशन रहने लगेंगे और सुबह सूर्योदय के साथ ही इन लाइटों को बन्द कर दिए जाने से बिजली की समुचित बचत होने लगेगी। एक को ढकने पर पिछला उघडऩे की तर्ज पर फिलहाल तो यह देखा गया कि एक तरफ लाइट सुचारु की जाती है, इतने में पिछली ठीक हुई गड़बड़ाने लगती है। टाइमर लगने के बाद बजाय समयबद्ध चालू-बन्द होने के, टाइमर अपने टाइमटेबल अलग बनाकर चलने लगे हैं। जाहिर है इन लाइटों के लिए कैबलें तय मानकों की डाली जाती हैं और ही टाइमर अच्छी क्वालिटी के लगाए जाते हैं। बीस-तीस साल पहले जब जलाने-बुझाने का यह काम व्यक्तियों के जिम्मे था तब कुछेक लापरवाह और हरामखोरों को छोड़ दें तो अकसर गोधूलि के लगभग ये रोडलाइटें जलतीं और भोर होने के साथ ही बुझ भी जाती थीं। चूंकि धीरे-धीरे सरकारी और सार्वजनिक सेवाओं में लापरवाह और हरामखोरों का अनुपात बढ़ता गयाऐसों ही ने इस तरह अपनी आगामी पीढिय़ों के लिए इन सरकारी और सार्वजनिक सेवाओं में अवसर के द्वार कितने सीमित कर दिए इसका इन्हें अन्दाजा ही नहीं होगा। अंदाजा करते तो कम-से-कम अब तो ये अपनी ड्यूटी के प्रति जिम्मेदार होते।
खैर! जो लाइटें सुचारु हैं या ऐसी थोड़ी बहुत गड़बड़ वाली जिन्हें सुधारा जा सके। उन्हें हटाना सार्वजनिक धन की बरबादी ही है। लेकिन इन उतारी गई लाइटों और सम्बन्धित सामान का निस्तारण इस तरह से हो कि उसका या तो अन्यत्र कहीं उपयोग हो या उसके एवज में रकम सरकारी खजाने में जमा हो। ऐसा कुछ होता नहीं है, देखा यही जाता है।
इसी तरह सीवरेज के तीसरे चरण की भी बात आई है। शहर है तो सब सुविधाएं भी होनी चाहिए लेकिन जो पुराने शहर में पैंतीस-चालीस साल पहले सीवर डाली गई उसे संभालने की जिम्मेदारी भी सरकार की है। पुरानी को संभालने के चलते आए दिन गन्दा पानी जहां-तहां पसरा रहता है। ऐसे में स्वायत्त शासन सचिव ने शहर को 2016 तक 'खुले में शौच से मुक्त' करने की मंशा जताई है उसका हश्र क्या होना हैकयास लगा सकते हैं। सभी घरों में शौचालय तो भले ही बनवा दें मगर शहर की सीवरेज व्यवस्था दुरुस्त नहीं रहेगी तो 'शौच' सड़कों, गलियों और चौक-चौबारों में पसरने पर कैसा लगेगा, इसकी कल्पना भी कर लेनी चाहिए। शहर स्मार्ट या कहें चुस्त तभी दीखेगा जब सभी तरह की सार्वजनिक सेवाएं दुरुस्त रहेंगी अन्यथा एलइडी से रोशन शहर पसरे सीवरेज के गन्दे पानी में और भी भद्दे रूप में दीखेेगा।

21 जुलाई, 2015

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