Thursday, July 16, 2015

आज की पाती राहुल गांधी के नाम

'राहुल गांधी आकार ले रहे हैं? ये कहना जल्दबाजी भी हो सकती है। वजह भी है, पिछले चुनावों में नायकत्व का एहसास वे अपने कार्यकर्ताओं में ही नहीं जगा पाए थेबांहें चढ़ाकर बोले, बिल का ड्राफ्ट भी फाड़ा, फिर भी मध्यम वर्ग को रिझा नहीं पाए। बहुत सी वजहें रहीं गिनानें बैठें तो...पर कथित अध्ययन-अवकाश से लौटे राहुल थोड़े बदले दीखे, संसद में बोलते वक्त ये नहीं लग रहा था कि बहुत ही कम सांसदों वाली कांग्रेस की अगुवाई कर रहे हैं। हालांकि, ऐसा भी नहीं था कि राहुल ने कुछ करिश्मा कर दिया हो पर शायद जुमलों की राजनीति समझ आने लगी है। संप्रग सरकार के 10 सालों में कैमरे से दूर रहने वाला शख्स अब कैमरे पर बतियाने लगा। समय के बदलाव को राहुल शायद देर से ही सही, समझ रहे हैं। भारतीय राजनीति में लोग वादे निभाने वालों से ज्यादा कद्र अपने बीच होने वाले की करते हैं, फिर चाहे वो भाषणों की लफ्फाजी करने वाला ही क्यों हो। अच्छे दिनों के सपनों के बीच मोदी मीडिया के इस काल में किसानों या अन्य वर्गों की हकीकत से रू-बरू होने के राहुल के कमतर नहीं कहे जा सकते। खास तौर पर राजस्थान जैसे प्रदेश में जहां अभी आम चुनाव नहीं होने हैं।
आज के राहुल मीडिया फ्रैंडली हो चले हैं। इस दौरे की बात करें तो बीकानेर संभाग के किसान ही क्यों...ये सवाल कांग्रेस के भीतर चल रही राजनीति की ओर भी इशारा करता है। इस इलाके से ज्यादा पिछड़े किसान राजस्थान के बहुतेरे इलाकों में हैं। अशोक गहलोत, सचिन पायलट और रामेश्वर डूडी तीनों ही सक्रिय हैं, राहुल के दौरे के लिए भी और...आप समझ गए ना किस वास्ते सक्रिय हैं। खैर, अभी इस सब पर लिखना जल्दबाजी होगी। लेकिन हां, इस बार राहुल गांधी को चौकन्ना भी रहना होगाकेवल उम्र युवाओं को नहीं लुभा पाती, ये उनसे बेहतर कौन जानता है? हालांकि, राजस्थान के लिए कांग्रेस का सेनापति चुनने में अभी कुछ वक्त है पर इस तथ्य को ध्यान में रखना राहुल और कांग्रेस, दोनों के लिए अहम है।'
पत्रकार मित्र लक्ष्मण राघव के किंचित् सम्पादित उक्त अंश की मूल पोस्ट कल फेसबुक और वाट्सएप पर साझा की गई थी। राहुल गांधी आज पड़ोस के श्रीगंगानगर जिले के सूरतगढ़ और हनुमानगढ़ के दौरे पर हैं। कल जयपुर के अपने कार्यक्रम के लिए उन्हें रेलगाड़ी से बीकानेर होते हुए जाना है। रात ग्यारह बजे के लगभग गुजरने वाली इस गाड़ी के बीकानेर स्टेशन पहुंचने पर स्थानीय कांग्रेसी उनका स्वागत करेंगे।
इस खबर को और राघव की पोस्ट को दुबारा पढऩे पर गांधी का स्मरण हो आया। पिछली शताब्दी के शुरू में वे जब मानवीय मूल्यों के लिए दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रहरत थे तभी अपने को लगभग नेतृत्वविहीन पा रहे भारतीय स्वाधीनता आन्दोलनकारियों ने गांधी से आग्रह किया कि वे देश लौट आएं और इस आन्दोलन को अपना नेतृत्व दें। इस आग्रह पर गांधी को लगा कि उनकी जरूरत यहां है और वे लौट आए। जीवन के शुरुआती सक्रिय दौर से विदेशों में रहे गांधी को यहां आने पर एहसास हुआ कि वे अपने देश के बारे में जानते ही क्या हैं? ऐसी अनभिज्ञता में आजादी जैसे बड़े अनुष्ठान को पूर्ण नहीं किया जा सकता। इसलिए गांधी ने भारत लौटते ही तय किया कि वे आवागमन के सुलभ साधनों से पूरे देश का भ्रमण कर जमीनी हकीकत को जानेंगे-समझेंगे। अधिकांशत: यात्राएं उन्होंने रेलगाड़ी से कीं। दक्षिण अफ्रीका में प्रथम श्रेणी से फेंके जाने के बाद से ही गांधी ने संकल्प ले लिया था कि वे रेलयात्रा सामान्य श्रेणी के डब्बे में ही करेंगे, इसे उन्होंने आजीवन निभाया भी।
इस घटना का उल्लेख इसलिए जरूरी लगा कि अधेड़ होते राहुल ने जाना कि राजनीति करने के लिए तौर-तरीके बदलने होंगे, अपने देश और समाज को समझना होगा। इस सीख के लिए वे बहुमासीय अज्ञातवास पर भी रहे। लौटने पर थोड़ा बदलाव नजर भी आया लेकिन जैसा कि लोक में कहावत प्रचलित है कि सीखने की भी एक उम्र होती है और जिस वय को सीखने का माना गया, उसे राहुल बहुत पहले पार कर चुके हैं। सलाहकार उनके या तो टोकने-समझाने की कूवत नहीं रखते या उन्हें इस की छूट नहीं है। इसे कांग्रेसियों की आत्महीनता ही माना जायेगा कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना वे अपने को श्रीहीन मानते हैं।
अज्ञातवास से लौटने के बाद राहुल के कुछ नवाचारों में पहले से अलग तरह की सक्रियता देखी गई है। वे किसानों से तथा थड़ी-रेहड़ी वालों से मिलने पहुंचते हैं। लेकिन देखा गया है लक्ष्य ठीक नहीं चुनते। जैसा कि मित्र लक्ष्मण राघव के लिखे का भाव है कि उन्हें राजस्थान ही आना और यहां के किसानों से मिलना था तो सिंचित क्षेत्र होने के चलते अपेक्षाकृत समृद्ध श्रीगंगानगर-हनुमानगढ़ जिलों को ही उन्होंने क्यों चुना। प्रदेश में ऐसे कई बारानी क्षेत्र हैं जहां के खेतिहरों की स्थितियां राहुल को ज्यादा सिखा-समझा सकती हैं। सीखने-समझने का मकसद शायद है भी नहीं। दिखावा है, वह भी अधकचरा अन्यथा किसी गांव-गवाड़, ढाणी को घण्टों में नहीं दिनों में ही समझा जा सकता है। यहाँ अभावग्रस्त क्षेत्रों में राहुल दो-चार दिन गुजारने आएं। उनके पास और काम है भी क्या, इन राजनेताओं की दिनचर्या के लिए ही शायद यह कैबत बनी है कि 'टके का काम नहीं, मिनट की फुरसत नहीं'
राहुल गांधी शायद दिखावा भी ढंग से नहीं कर पा रहे हैं अन्यथा वे रेलगाड़ी के सामान्य श्रेणी से जयपुर जाते और देर रात तक हर गांव-ढाणी या स्टेशन को टाटा करते तो वे यहां की फिजां को अपने ज्यादा अनुकूल बना सकते हैं। लेकिन ऐसे बड़े लोग जिस नियति को हासिल है उससे अपनी नीयत को भला डगमगाने कैसे दें।

16 जुलाई, 2015

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