‘मैं एक ऐसे बीमार मानव का उपचार कर रहा हूं, जिसकी बीमारी का असर
उसके परिजनों और उसकी आर्थिक स्थिरता पर पड़ेगा’।
मेडिकल
साइंस के पिता कहलाने वाले हिपोक्रेटिस के हवाले से प्रचलित शपथ के आधुनिक पाठ की
उक्त पंक्तियों की वकत अब उतनी ही है जितनी सरकार में शासकों और न्यायालयों में
गवाहों द्वारा ली जाने वाली शपथों की होती है। फिर भी इसका उल्लेख किए बिना
डॉक्टरों से संबंधित बात करने का मन नहीं हुआ। पाठकों की सूचनार्थ बता दें कि
आयुर्विज्ञान या मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के साथ ही उक्त शपथ दिलवाई जाती है।
पीबीएम
अस्पताल पर ‘विनायक’ कई बार लिख चुका है। फिर से लिखने का मन आज इसलिए हुआ
कि बीकानेर में सूचना के अधिकार कार्यकर्ता गोवर्धनसिंह की अगुवाई में नागरिकों का
एक समूह संभाग के बड़े पीबीएम अस्पताल को लेकर जागरूक और सक्रिय हुआ है। ‘गेट वेल सून पीबीएम’ नाम के इस अभियान की
विधिवत शुरुआत 27 जुलाई को सुबह 7.30 बजे होगी। इस आयोजन के लिए उन सभी को बुलाया
गया है जिनका इस अस्पताल से काम पड़ता है या पड़ सकता है। किसी भी सार्वजनिक अभियान
को चेतन करने और चेतना बनाए रखने के लिए जो कुछ किया जा सकता हो, ये लोग भी कर रहे
हैं। इसी सिलसिले में कल उन्होंने तिरंगा यात्रा निकाली। ऐसे अभियान कितने चलते
हैं, या चल पाएंगे इस पर
संशय नहीं करना चाहिए वरन् इन्हें इसी रूप में लेना चाहिए कि ऐसे अभियान लोकतंत्र
में वेंटीलेटर की भूमिका निभाते हैं, ज्यादा चलें तो न केवल लोकतंत्र की सेहत सुधर जायेगी
साथ-साथ प्रकारान्तर से सार्वजनिक क्षेत्र के
उपक्रमों की सुध भी ले ली जायेगी।
जैसा
कि पीबीएम के पैंतीस-चालीस साल पहले के स्वस्थ दिनों की ‘विनायक’ कई बार याद इसी कॉलम
में करा चुका है, जिन्हें दोहराने की जरूरत नहीं है। पीबीएम अब खुद
बीमार है, इसके
मानी यह भी लें कि यह कभी स्वस्थ भी रहा था। वैसे तो शासन और प्रशासन ही अस्वस्थ
है, स्थिति यह है कि
शासन-प्रशासन, जिसे व्यवस्था भी कह सकते हैं, खुद यह व्यवस्था भी
अब अस्वस्थता में ही अपनी अनुकूलता मानने लगी है। तिमारदार यानी समाज या अवाम भी
यह मान बैठा है कि यह व्यवस्था स्वस्थ नहीं होनी है, अवाम की इस धारणा को झकझोरने का काम ‘गेट वेल सून पीबीएम’ जैसे अभियान कर सकते
हैं।
यह
तो हुई प्रासंगिक बात। अब उन कुछ धारणाओं पर चर्चा कर लेते हैं जो प्रचलित हैंजिन
करतूतों से पीबीएम अस्वस्थ हुआ है। यहां यह स्पष्ट कर दें कि संबंधितजन इसे आरोपों
के रूप में न लें, जो कोई भी इसके लिए अपने को जिम्मेदार नहीं मानता वह
इन धारणाओं से अपने को उतना ही मुक्त मान सकता है जितना देश की दुर्दशा के लिए
सामान्य नागरिक खुद को जिम्मेवार न मान कर तसल्ली कर लेता है।
यह
माना जाता है कि ये डॉक्टर यहां जमे रहने के लिए शासकों को मोटी रकमें पहुंचाते
रहते हैं और उस अतिरिक्त रकम की व्यवस्था हेतु उन्हें हिपोक्रेटिक शपथ को भूलना
होता है। इसके प्रमाण में दशकों से जमे कई वरिष्ठ डॉक्टरों को गिनवाया जा सकता है।
कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने अपना सेवाकाल यहीं से शुरू कर यहीं खत्म किया या करने
वाले हैं। शासकों में धन की भूख भी लगातार बढ़ रही है इसलिए उन्हें इसमें अनुकूलता
लगती है कि कोई तबादला नीति न बने। नीति बनने पर सभी उसी पर चलने लगेंगे तो उनके
धन के लालच को पूरा कौन करेगा। इस तरह यह लालच उस दुश्चक्र में तबदील हो जाता है
जिसका शिकार आम आदमी होता है। स्वास्थ्य मनुष्य के लिए ही क्यों जीव-जन्तुओं की भी
प्राथमिक जरूरत है। इस दुश्चक्र के चलते वह लगभग इससे वंचित हो गया है। समर्थों
की बात नहीं कर रहे हैं, जब अन्य सब-कुछ वह खरीद सकता है तो स्वस्थ होने का
भ्रम भी क्यों नहीं खरीद सकता। उसके लिए न केवल सरकारी सेवारत अच्छे डॉक्टर अपने
घरों पर हाजिर हैं बल्कि अब तो हर स्तर के सामर्थ्यवानों के लिए निजी अस्पतालों की
शृंखला भी है, जो अपनी-अपनी प्रतिष्ठा के अनुसार धन वसूलती हैं और
स्वस्थ बनाने का भ्रम बेचती हैं। भ्रम इसे इसलिए कहा कि स्वास्थ्य एक सामूहिक
अवधारणा है न कि कुल आबादी के पन्द्रह-बीस प्रतिशत सामर्थ्यवानों का सेहतमंद होना।
शेष सब यदि अस्वस्थ रहें तब उस समाज को सामूहिक तौर स्वस्थ कहा ही नहीं जा सकता।
निजी अस्पतालों में होने वाली लूट-खसोट की अपनी गाथाएं अलग हैं, उन पर भी पूरा
चालीसा लिखा जा सकता है।
खैर, पीबीएम अस्पताल को
लेकर जो धारणाएं कही-सुनी जाती हैं, उनका जिक्र बिन्दुवार कर लेते हैं, चूंकि यह गलत भी हो
सकती है, इसलिए
आरोप कहना उचित नहीं है।
—डॉक्टर आउटडोर में बैठना नहीं
चाहते। बैठते भी हैं तो मरीजों को देखते नहीं, पापा काटते हैं। इच्छा यही रहती है कि मरीज घर आ जाएं
और टोकन लेकर घंटों अपनी बारी का इन्तजार करें। मोटी फीस दें, बिना जरूरत की
जांचें करवाएं।
—माना जाता है निजी क्षेत्र की
लेबोरेटरी वाले उनके यहां मरीज भेजने वाले डॉक्टर को साठ प्रतिशत तक का कमीशन
मयलिखित हिसाब भिजवाते हैं। इन दिनों कमीशन की यह दर ज्यादा हो गई है तो उसे ही
सही माने। कहते हैं कुछ डॉक्टर तो इन सबका व्यवस्थित लेखा-जोखा भी रखते हैं।
—बहुत-सी जांचें वैज्ञानिक ढंग से
की ही नहीं जाती। कुछ में जांच की बिना प्रक्रिया अपनाए ही रिपोर्ट बना दी जाती
है। इन लापरवाहियों की जानकारी डॉक्टरों को होती भी है, तो जानकारियों का उपयोग बजाय मरीज को राहत प्रदान करने
के, लैब वाले से अपना
कमीशन या अन्य सुविधाओं का मौल-भाव बढ़ाने के लिए ही करते हैं।
—घर आए मरीज के रुक्के में उन कम्पनियों
की ही दवाइयां लिखते हैं जो उन्हें धन, उपहार और पर्यटन आदि-आदि की सुविधाएं ज्यादा देते हैं।
—ड्रेस कोड में मरीजों के साथ
अच्छे व्यवहार का निर्वहन जब डॉक्टर ही नहीं करते तो अधीनस्थों से उम्मीद करना
बेमानी हैलोक में कहावत है ना, गाड़ी तो चीलां ही चालसी।
—ऑपरेशन थिएटरों, सर्जिकल आउटडोरों और
कैज्युअलटी आदि में औजारों को समुचित स्टरलाइज नहीं किया जाता। संक्रमण से बचाव के
लिए मरीज को वजनी एन्टीबायोटिक्स देकर हिपोक्रेटिक शपथ का निर्वहन कर लिया जाता
है। अलावा इसके आपरेशन थिएटरों में दवाइयां व ग्लूकोज आदि अतिरिक्त मंगवाए जाते
हैं, जो बैकडोर से
दुकानों में पुन: बिक्री के लिए पहुंच जाते हैं। डॉक्टर ऐसा इसलिए होने देते हैं
ताकि अधीनस्थ अपना मुंह बन्द रखें।
—न केवल अस्पताल में बल्कि कुछ
विशेष जांचों के लिए मेडिकल कॉलेज में व्यवस्थित लेबोरेटरीज भी हैं, जांचकर्ता डॉक्टर व
सहायक भी हैंइन्हें प्रतिष्ठ क्यों नहीं किया जाता? कर दें तो कमीशनखोरी भी खत्म होगी, मरीजों की जेबें भी
खाली नहीं होंगी और निदान सही होगा तो जल्दी स्वस्थ भी होंगे।
—जिन डॉक्टरों की घरेलू प्रैक्टिस
नहीं चलती उनके दलाल सक्रिय रहते हैं। ये मरीजों और उनके तिमारदारों को लपकने और
गुमराह करने में माहिर होते हैं। डाक्टरों की तरह दया-हया इनमें भी नहीं देखी
जाती।
—अस्पताल की भौतिक दुर्दशा के लिए
इसके नियंताओं को जिम्मेदार माना जाता है। मरम्मत, निर्माण, मेडिकल और गैर मेडिकल सभी तरह की खरीददारियों के अलावा
सुरक्षा, सफाई, वाहन स्टैण्ड आदि
सभी के ठेके में इन तक कमीशन पहुंचता है। नतीजतन न काम अच्छा होता है और ना ही
उपकरण बढ़िया पहुंचते हैं। कमीशन पहुंचाकर नियंताओं की अंगुली पकड़ने वाला कलाई भी
पकड़ ही लेता है और बूकीया पकड़कर अस्पताल के लाभार्थियों का गिरेबां झालने में भी
संकोच नहीं करता।
—वाहन स्टैण्डों पर खुलेआम तय
भुगतान से दुगुना लिया जाता है। दर और दर के समय-निर्धारण की कोई सूचना स्टैण्ड पर
और दी गई पर्ची पर नहीं होती, होती भी है तो भ्रम पैदा करने वाली। सुरक्षाकर्मी कभी
या तो ड्यूटी पर मुस्तैद नहीं होते, होते हैं तो ले-देकर शिथिलता ही बरतते हैं और बाजदफा
अपरोक्ष रूप से डॉक्टर, दवा विक्रेता और लेबोरेटरीज की दलाली करते पाए जाते
हैं। सफाई का हाल तो और भी बुरा है। मानते हैं कि जनता स्वच्छता के प्रति लापरवाह
हुई है, गन्दगी
करते रहने से बाज नहीं आती। लेकिन इस बिना पर व्यवस्थित सफाई न रखने की छूट
ठेकेदार को नहीं मिल सकती, वह तो मात्र बहाना है। असल छूट ये कमीशन पहुंचाकर लेते
हैं।
—डॉक्टर अक्सर अधीनस्थों यथा
नर्सिंग-कर्मी, तकनीशियन और अन्य स्टाफ को भुंडाते हैं। अस्पताल के
नियंताओं सहित सब वरिष्ठ, कनिष्ठ डॉक्टर अपने लालच, अतिरिक्त सुविधाओं और अनुकूलताओं को दरकिनार कर दें तो
अधीनस्थ भी मरीजों और तिमारदारों के साथ गड़बड़ करने, गैर जिम्मेदार होने व दुर्व्यवहार करने की बात तो दूर
ऐसी मंशा भी छोड़ देंगे। भ्रष्टाचार और हरामखोरी की गंगा ऊपर से नीचे आती है, नीचे से ऊपर नहीं।
—मेडिकल शिक्षा सेवा के डॉक्टर
यदि अनुकूल पोस्टिंग का लालच छोड़ दें तो शासकवर्ग पैसे नहीं पहुंचाने पर उन्हें
वहीं तो भेज सकेगा जहां मेडिकल कॉलेज हैं, डॉक्टरों को बस आत्मसम्मान ही माथे बांधना है जो लालच
छोड़ने पर नि:शुल्क मिलने लगेगा।
अन्त
में रही बात मरीजों के तिमारदारों और परिजनों द्वारा आए दिन अधीनस्थ डॉक्टरों और
अन्य कर्मचारियों के साथ दुर्व्यवहार और हाथापाई करने की तो यह मामला सारा साख का
है। जनाब! आपने अपनी साख लगभग खत्म कर ली है। धरती के भगवान की छवि खिरने लगी है।
ऐसे में आप में से कोई ठीक भी हैं और होंगे तो भी माना जाने लगा है कि आप गड़बड़
हैं। इस बिगड़ी साख के खत्म होने के कारकों का जिक्र ऊपर विस्तार से किया है, कुछ रह भी गया होगा।
समझ भी आपकी पूरी है, लालच और तुच्छ अनुकूलताएं इसे व्यवहार में लाने से
रोकती हैं।
यह
तय मान लें कि जनता जिस दिन जागरूक हो गई उस दिन दुर्व्यवहार से वरिष्ठ डाक्टर और
नियंता भी नहीं बचे रहेंगे। आमजन में यह समझ आनी बाकी है कि अस्पताल की गड़बड़ियों
की जड़ इसके लालची नियंताओं और वरिष्ठ डॉक्टरों की ही देन है।
14 जुलाई, 2015
1 comment:
Great description sir
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