Friday, July 10, 2015

मोदी और भाजपा की एक साल में गत

पिछले मई माह में मोदी सरकार के एक साल पूर्ण होने के आयोजनों के रंग में भंग पडऩे से खीज कर कालाधन लाने और प्रत्येक भारतीय के खाते में पन्द्रह-पन्द्रह लाख रुपये जमा होने के सवाल पर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कह ही दिया कि वो तो चुनावी जुमला था, जुमला मतलब धोखा बयानी। इस छोटे से जवाब से प्रकारान्तर से शाह ने ये सबक भी दिया कि चुनाव में किए गए वादों को वोट देने के बाद गंभीरता से कतई नहीं लेना चाहिए। भाजपा के चुनावी वादों में कालेधन के अलावा भ्रष्टाचार को खत्म करना, शासन-प्रशासन में पारदर्शिता लाने और पड़ोसी देशों को छप्पन इंच का सीना दिखाने आदि जुमले भी शामिल थे। इस तरह छिट-पुट किए गए अन्य सभी वादे भी फिर जुमले की ही गत को प्राप्त होते लग रहे हैं।
ललित मोदी के कहे से जब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज उघाड़ी हुईं तो कृत्य को मानवीयता ओढ़ाई गई और जब राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर आन पड़ी तो कहा गया कि यह आर्थिक भ्रष्टाचार नहीं है, और जब आर्थिक भी चौड़े आया तो व्यापार की आड़ ले ली गई। नैतिकता पर सवार होकर आई भाजपा ऐसे जवाबों में हांपती सी नजर आती है। भ्रष्टाचार के भी खांचे बनाना, नैतिकता और राष्ट्रनिष्ठा को दावं पर लगाना, उसके लिए भ्रष्टाचार की श्रेणी में ही नहीं आते।
समय ने मोदी सरकार और भाजपा को एक साल दिया। इधर एक साल हुआ उधर उघाड़ चौतरफा शुरू हो लिये। मध्यप्रदेश के व्यापमं घोटाले से संबंधितों की हो रही संदिग्ध मौतों और छत्तीसगढ़ में भी झांकते ऐसे ही घोटाले ने भाजपा को लगभग 'कांईं लगाऊं-कांईं लगाऊं' की स्थिति में ला दिया है। पितृ संस्था आरएसएस और सहोदर विश्व हिन्दू परिषद् और इन संगठनों से भाजपा में प्रतिनियुक्ति पर आए नेतागण अपने असल ऐजेंडों पर उतावलापन दिखाकर अलग से परेशानी खड़ी कर ही रहे हैं।
संप्रग की कड़ी आलोचना भाजपाई कुछ ऐसे करते थे कि उस राज में हो रहे घोटालों पर प्रधानमंत्री नहीं बोलते। वैसी ही अवस्था में कुछ-कुछ नरेन्द्र मोदी को भी देखा जाने लगा है। अब तो ये आभास होने लगा कि मोदी प्रधानमंत्री बनने को जब तत्पर हुए तब उन्होंने यही सोचा होगा कि गुजरात को हांकना और देश को चलाना लगभग समान है। अवाम जब पर्याप्त बहुमत के साथ मोदी को गुजराती कुएं से खींच देश के मैदान में ले आई, तब से ही मोदी डाफाचूक अवस्था में दीखने लगे हैं।
पड़ोसियों को अपने शपथ ग्रहण समारोह में बुलाना, साबरमती के किनारे झूला झुलाना और अपने को दुनिया का डॉन समझने वाले को बराक-बराक बुलाना ही अन्तरराष्ट्रीय कूटनीति होती तो मोदी का सीना छप्पन इंच का मान लिया जाता। लेकिन पाकिस्तानी हरकतें पहले से बढ़ी हैं, यही नहीं वह अब परमाणु आक्रमण की धमकी भी जब तब दिए बिना नहीं चूकता। चीनी झुला-झूल कर गये और मोदी को अपने यहां बुलाकर भले ही लौटाया हो, लेकिन उसे जब भी कुचरनी करनी होती है, बिन चूके करता है। बराक संबोधन से अंतरंग होने की चेष्टा को अमेरिकी राष्ट्रपति ने नजरअंदाज करते हुए जरूरत समझने पर मोदी को आईना भी दिखाया।
अभी जब मोदी फिर विदेश में हैं और संभवत: विदेश यात्राओं का रिकार्ड बनाने में लगे हैं तो कहीं इन यात्राओं पर 'असफल' का विशेषण ही नहीं जड़वा दें। अपने शासन के एक साल बाद ही भाजपा जैसी बदनामी की परिस्थितियों में अभी है वैसी गत में पहुंचने में मनमोहन नीत संप्रग सरकार को आठ साल लगे थे।
मोदी ने मनरेगा योजना पर संसद में बड़बोलेपन में कह दिया था कि वे इसे इसलिए बन्द नहीं करेंगे ताकि लोग इसे कांग्रेस शासन की असफलताओं के स्मारक के रूप में याद रखें। उसी मनरेगा को विश्व बैंक ने लोक कल्याण की योजनाओं में दुनिया में एक नम्बर पर माना है। इससे यह भी जाहिर होता है कि मोदी अपनी कार्यशैली को जिस होमवर्क का आधार बताते हैं, मनरेगा से उनकी अनभिज्ञता इस होमवर्क की पोल खोलने को पर्याप्त है।
बिहार चुनाव से पहले भाजपा यदि लोकसभा में जीत की इस खुमारी से नहीं निकली कि जनता ने उन्हें ही सब कुछ मान लिया है तो यह वहम उतरते देर नहीं लगेगी। भारतीय मतदाता लोकतांत्रिक देश के नागरिक के रूप में भले ही अनाड़ी हों, प्रतिकूल शासन को पलटने में वह पारंगत जरूर हो गया है।

10 जुलाई 2015

No comments: