Monday, June 8, 2015

पड़ोसी देशो के सीमा-विवाद

देश की तथाकथित राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा केन्द्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद कितने यू टर्न लेगी कह नहीं सकते। ताजा उदाहरण प्रधानमंत्री मोदी की पिछले दो दोनों की बांग्लादेश यात्रा में हुए समझौते का दिया जा सकता है। इस समझौते में इकतालीस साल से लंबित सीमा विवाद को सुलझा लिया गया है। यह समझौता बहुत पहले हो जाना चाहिए था लेकिन भाजपा के विरोध के कारण नहीं हो सका था। मनमोहन सरकार ने इस समझौते संबंधी विधेयक की पूरी तैयारी कर रखी थी। ये विधेयक उस श्रेणी में आता है जिसे संसद में दो-तिहाई बहुमत से ही पारित किया जा सकता है। भाजपा ने तब इस संबंध में प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के घर पर बुलाई बैठक में साफ मना कर दिया था कि हम बांग्लादेश के साथ भू-संबंधी इस विधेयक का पुरजोर विरोध करते हैं। उस बैठक में भाजपा की ओर से लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथसिंह, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली शामिल हुए थे। विधेयक के तैयार मसौदे के बावजूद अल्पमत के चलते मनमोहन सरकार मन मसोस कर रह गई।
मोदी की सरकार आयी। विधेयक के अपने उस मसौदे पर कांग्रेस ने सकारात्मक रुख अपनाया, पारित हो गया। मोदी और भाजपा अब इसका श्रेय लेने से नहीं चूक रहे हैं। ये बताने का मकसद इतना ही है कि ये विधेयक तब यदि राष्ट्र के हित में नहीं था तो अब कैसे हो गया? इस समझौते में विवादित 162 गांवों का निपटारा करना था जिनमें से  111 गांव बांग्लादेश को दिए गए और 51 गांव भारत ने लिए हैं। इसे तय करने के अपने जमीनी आधार थे जिनमें बदलाव संभव नहीं थे। अच्छा ही हुआ कि भाजपा ने अपने अडिय़लपन पर यू टर्न लेकर उलझाड़ खत्म कर दिया।
भाजपा क्या इसी तरह चीन के साथ सीमा विवाद को सुलझाने की इच्छाशक्ति दिखलाएगी। कांग्रेस इस भय से इस विवाद से बचती रही है, क्योंकि समझौता होने पर नक्शे में सीमा रेखा इधर-उधर होनी है। वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के इर्द-गिर्द की यह सीमा रेखा चीन अपने नक्शों में अलग बताता रहा है और भारत अलग। दरअसल दोनों देशों के बीच लगभग बीस किलोमीटर चौड़ा यह गलियारा निर्जन और पहाड़ी बीहड़ है, जिसे सदियों तक रेखांकित ही नहीं किया गया। अंग्रेजों से पहले ये भारत खण्ड खण्ड था और अमीबा की तरह जुड़ता-टूटता रहता था। ( राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह दावा कि कभी यह अखण्ड भारत था कोरी आत्ममुग्ध कल्पना ही है) अंग्रेज जब भारतीय भू-भाग को क्राउन के अन्तर्गत लाए तो उन्हें हिमालय के इस पहाड़ी बीहड़ से आर्थिक रूप से कुछ हासिल नहीं होना था, इसलिए उनकी कोई रुचि नहीं थी। देश आजाद होने के बाद कागजों में खिंची लाइनों के अनुसार सीमा की सार-संभाल हुई तो पता लगा वहां चीन भी अपना दावा कर रहा है। तब चीन की विस्तारवादी मानसिकता को भारत द्वारा कागजों पर खींची ये लाइनें स्वीकार्य नहीं थी। 1962 का युद्ध हुआभारत पूरी तरह तैयार नहीं था। चीन संभला हुआ था, भारत को करारी हार का मुंह देखना पड़ा। इस युद्ध के नतीजे ये हुए कि वह निर्जन पहाड़ी बीहड़ दोनों देशों की 'नाक' हो गया। चीन तो अपनी जाने लेकिन तब से भारत इसके लिए क्या-क्या खो चुका हैउसका हिसाब लगाने और आंकड़े देखने पर उसे अडिय़लपने के परिणामों में ही माना जायेगा।
अब चूंकि राष्ट्रवादियों की सरकार आयी है, और फैसला लेने का मादा रखने वाले मोदी इसका नेतृत्व कर रहे हैं सो कम-से-कम अरुणाचल प्रदेश के मुद्दे के अलावा कश्मीर से लेकर नेपाल तक की भारत-चीन सीमा पर कोई अन्तिम समझौता कर हमेशा के इस बेहद खर्चीले सिरदर्द से छुटकारा पा लेना चाहिए। उन रेखीय बदलावों को भी हाल ही के बांग्लादेश के समझौते के बाद कागजों में भारत-बांग्लादेश सीमा रेखा में आए बदलावों की तरह ही पकड़ नहीं पाएंगे। हो सकता है वैसा ही कुछ भारत-चीन समझौते के बाद हो। और जो थोड़ा-बहुत कुछ इधर-उधर होता है तो भी ये समझदारी ही मानी जायेगी कि देश को इतने खर्चीले स्थाई सिरदर्द से मुक्ति मिल जायेगी। राष्ट्रवाद कीे प्रतिष्ठा अब तो तभी होगी जब समृद्धि के साथ-साथ सीमाओं पर शान्ति भी रहे। इसलिए थोथे राष्ट्रवाद से मुक्त हो लेना चाहिए।
इसी तरह भारत-पाकिस्तान के बीच जम्मू-कश्मीर का मामला है। गुजरात, राजस्थान और पंजाब से लगती सीमा तारबन्दी के चलते चाक-चौबन्द है और कोई विवाद भी नहीं है। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर का हिस्सा और भारतीय कश्मीर के बीच की नियंत्रण रेखा (एलओसी) के इस तरफ पिछले दो दशकों से भी ज्यादा समय से अशान्ति है जिसको शह पाकिस्तान के हिस्से वाले कश्मीर से बराबर मिलती रही है। प्रधानमंत्री रहते अटलबिहारी के ऐसे दुस्साहस की सुगबुगाहट सुनी गई थी कि शिमला समझौते की राजनीतिक भावना के अनुसार दोनों देश नियंत्रण रेखा को ही असल सीमा रेखा मान लें। कहा जाता है कि तब नवाज शरीफ और अटलबिहारी ऐसा लगभग तय भी कर चुके थे लेकिन पाकिस्तानी सेना को यह मंजूर नहीं था। तब के पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ ने करगिल घुसपैठ इसीलिए करवाई कि यह डील सिरे नहीं चढ़े। इसे राजनीतिक भावना इसलिए कहा कि इस डील को स्वाभिमानी कश्मीरी कतई स्वीकार नहीं करते। वह समझौता हो जाता तो कश्मीरियों की प्रतिक्रिया का अन्दाजा लगाना कठिन है। कश्मीर समस्या का हल आम कश्मीरियों की भावना से निकाला जाना सभी के लिए हितकारी होगा।
अरुणाचल प्रदेश पर चीन के दावे को मुल्तवी रखकर शेष सीमा विवाद को सुलझाना चीन से ज्यादा भारत के हित में होगा, यह विवाद कश्मीर जितना पेचीदा नहीं है। मोदी ऐसा संभव कर पाते हैं तो वे अपने कार्यकाल में और कुछ उल्लेखनीय कर पाएं या नहीं भारत-चीन के सीमा विवाद को सुलझाना उल्लेखनीय जरूर हो जायेगा। यह दुस्साहस इसलिए भी संभव होगा क्योंकि इसे राष्ट्रवादी जो अंजाम दे रहे हैं।

8 मई, 2015

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