Wednesday, June 3, 2015

यादों की रुत के आते ही सब हो गए हरे/हम तो समझ रहे थे सभी जख़्म भर गए

समय के शायर शीन काफ निज़ाम का ये शेर आज तीन जून को प्रासंगिक लगा। स्वर्ण मंदिर के नाम से प्रसिद्ध अमृतसर के हरमन्दिर साहब में आज ही के दिन ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार शुरू हुआ। तब जरनैलसिंह भिंडरावाला की अगुवाई में खालिस्तान की मांग करने वाले गुमराह लोगों ने स्वर्ण मंदिर परिसर को अपने कब्जे में लिया हुआ था। ये लोग पाकिस्तान की मदद से पंजाब और उससे लगे क्षेत्रों में आतंकी कार्रवाइयां भी यहीं से संचालित कर रहे थे।
इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। भारतीय सम्प्रभुता को चुनौती बने इन लोगों से निबटने के लिए वह धैर्य इतना खो चुकी थी कि मंदिर परिसर को मुक्त करवाने के लिए सेना के कई सिख अफसरों को भी केवल इसके लिए राजी कर लिया बल्कि इस ऑपरेशन की कमान भी मेजर जनरल शुबेगसिंह और ले. जनरल केएस बरार को सौंपी। धैर्य खोना इसलिए कहा कि इंदिरा गांधी को यह खयाल ही नहीं रहा कि हरमन्दिर साहब सिखों के लिए पवित्रतम स्थान है और इसे मुक्त सैनिक कार्रवाई से नहीं धैर्य से करवाया जाना चाहिए था। उधर गुमराह लोगों को इसका आभास था कि एक--एक दिन ऐसा होना है। अत: हथियारों का बेशुमार असला तो उन्होंने इकट्ठा कर ही रखा था, खाने-पीने का सामान भी इतना था कि वे कई दिनों तक मुकाबला कर सकते थे। सरकार धैर्य से काम लेती और नाकेबन्दी कर उन्हें हतोत्साहित होने देती तो सिखों को यह स्थाई घाव नहीं मिलता। हो सकता था कि नाकेबन्दी से हल करने में महीनों लग जाते। रही बात जनहानि की तो खुद मेजर जनरल शुबेगसिंह 83 जवानों सहित शहीद हुए और 492 लोग खेत रहे। नाकेबन्दी से इसे सुलझाया जाता तो समय जरूर ज्यादा लगता लेकिन सिखों की भावनाएं इस तरह आहत नहीं होती। उस समय मात्र एक नेता चन्द्रशेखर को छोड़ सभी दलों के नेता मय दल इन्दिरा गांधी के साथ थे और उनके तरीके की भी प्रशंसा कर रहे थे। चन्द्रशेखर ने तभी कह दिया था कि देश को इसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी और चुकाई भी। चार महीनों में ही इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। इससे भी बुरा यह हुआ कि इंदिरानिष्ठों और तथाकथित राष्ट्रप्रेमियों ने दिल्ली सहित देश के कई हिस्सों में सिखों की संपत्तियों को जलाया-नष्ट किया, सिखों को मारा, सिखों की बहू-बेटियों के साथ दुष्कर्म किए गए।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में शासक को धैर्यवान होना चाहिए तथा कुछ ऐसा-वैसा करके अमर होने की आकांक्षा नहीं पालनी चाहिए। इंदिरा गांधी ने 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में चल रहे गृहयुद्ध में सीधा हस्तक्षेप किया, सेना भेजी और उसे पाकिस्तान से अलग करवा कर बांग्लादेश के रूप में मान्यता दी। मानते हैं उस गृहयुद्ध के चलते हजारों शरणार्थी भारत में जमे थे, मानवीयता के नाते उनकी सेवा किए जाने तक तो ठीक, वहां के विद्रोहियों को मदद देना और फिर सैनिक हस्तक्षेप करना कूटनीति के हिसाब से सही भले कहा जाय, शेष किसी भी लिहाज से सही नहीं था। नतीजतन पाकिस्तानी आवाम में आज भी यह मलाल है कि भारत ने उनके दो टुकड़े करवाए। ऐसा मलाल जब नकारात्मकता ओढ़ता है तो खालिस्तान की अवधारणा को शह मिलती है और कश्मीरी अलगाववादियों को संबल। 1971 में इंदिरा गांधी बांग्लादेश के निर्माण की आकांक्षा नहीं पालती तो संभवत: पंजाब में हम तब भुगतते और ही कश्मीर में अब तक।
इतिहास आत्ममुग्ध होने के लिए नहीं, सबक लेने के लिए होता है। इंदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी ने भी सबक नहीं लिया और 1987 में प्रधानमंत्री रहते श्रीलंका के गृहयुद्ध में शान्ति सेना भेजकर इंदिरा गांधी वाली गलती को दोहराया। तीन साल तक हमारी सेना वहां उलझी रही, 1200 सैनिकों को खोया और तमिलों में बदले की भावना के चलते 1991 में खुद राजीव गांधी को ही अपनी जान गंवानी पड़ी। पार्टी के रूप में कांग्रेस का बड़ा नुकसान यह कि वह आज तक तमिलनाडु में अपना सामान्य अस्तित्व भी नहीं बना पायी।
एक साल के शासन के बाद देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भी समझ गया होगा कि देश चलाने के लिए छप्पन इंच के सीने की नहीं देश, समाज और पड़ोसियों को समझने की और उनसे संबंधित समस्याओं को बिना धर्म, जाति, सामथ्र्य का खयाल किए मानवीय आधारों पर धैर्य से सुलझाने की जरूरत होती है। ऐसा नहीं समझेंगे तो अन्तत: भुगतेगा देश ही, और यह भी कि 'रुत' हर 'याद' की आती है।

3 जून, 2015

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