भोर के साथ ही आज बीकानेर शहर के उत्तर-पश्चिम
क्षितिज पर उमड़े बादलों ने दस्तक देते हुए बरसना शुरू कर दिया। तेज हवा के साथ बरस
रहे बादलों पर ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता, सो थोड़ी देर बरस निकल लिये। शहर के लिए बारिश के मामले में सुकूनी माना जाने
वाला सावन इस वर्ष अधिक मास के चलते ईसवी सन् की एक अगस्त से आना है। मौसम
विज्ञानियों की मानें तो मानसून को बीकानेर दो-तीन जुलाई तक पहुंचना है। मनीषी डॉ.
छगन मोहता द्वारा अनुभूत किए की बात करें तो मानसून मुम्बई में दस्तक देने के
दसवें दिन बीकानेर को हरियाने पहुंच जाता है। कहें तो ‘सावण बीकानेर’ जैसी काव्य पंक्ति को सार्थक करने के लिए सावण पूर्व की ये बारिशें यहां के
तालाब और तलाइयों को इतना तो भर ही देती हैं कि शहरी पुरुष गोठ के बहाने इनके
इर्द-गिर्द मजमें लगाने को प्रेरित हों। खेतिहर ग्रामीण जहां अपने खेतों की बिजाई
और संभाल में व्यस्त हो लेते हैं वहीं शहरी स्त्रियां विभिन्न मेलों के बहाने रंजन
की कामना करती हैं। यह जानना सुखद आश्चर्य है कि भादों सुदी चौदस को तब शहर से
कुछ दूर देवीकुण्ड सागर में सुनार जाति की स्त्रियों के रंजन के लिए मेला भरने की
परम्परा रही है।
समुद्र से दूर इस इलाके के कई तालाबों और कुओं के
नाम सागर शब्द से पूर्ण होना इस सन्तोष का प्रमाण है कि यहां के लोगों के लिए यही
समुद्र थे। जैसे तालाबों में सूरसागर, देवीकुण्ड सागर, नृसिंह सागर, रघुनाथसागर, तो कुओं में अलख सागर, रतन सागर आदि-आदि। डॉ. ब्रजरतन जोशी की पुस्तक ‘जल और समाज’ के हवाले से बात करें तो पिछली सदी की शुरुआत तक बीकानेर की पानी सम्बन्धी
सभी जरूरतें पूरी करने के लिए कुओं के अतिरिक्त शहर में और शहर के इर्द-गिर्द पन्द्रह
तालाब और पैंतीसे’क तलाइयां थीं। पिछले सौ वर्षों में शहर की आबादी संभवत दस गुना हो गई होगी
लेकिन उक्त उल्लेखित पचास तालाब और तलाइयों में से अब पांच भी शेष नहीं हैं। तब
क्षेत्र में बरसने वाले पानी को आज की तरह बेकार नहीं बहने दिया जाता था, समर्थ लोग जहां घरों
की बावड़ियों और कुंडियों में इसे सहेज लेते थे वहीं शेष क्षेत्र में बरसे पानी का
रुख इन तालाबों व तलाइयों की ओर होता था।
आजादी के साठ साल बाद ‘जल संरक्षण’ के नाम पर अनुदान और भवन निर्माण की इजाजत में शामिल शर्तों के माध्यम से ये
काम बेमन से होता तो देखा जाता है लेकिन नलों के माध्यम से घरों तक या जरूरत होने
पर पहुंचने वाला पानी ‘जल संरक्षण’ के जरूरी काम को मन लगाकर करने नहीं देता। इसका नुकसान यह भी हो रहा है कि
कुओं का पानी लगातार नीचे जा रहा है। पहले ‘जल संरक्षण’ जैसा अकादमिक नाम तो नहीं था लेकिन छोटे तालाब जिन्हें तलाई कहा जाता था, का एक मकसद इन कुओं
को ‘चार्ज’ करना भी होता था, इसीलिए उनका तल
कच्चा रखा जाता था।
जिस रफ्तार से हम आधुनिक और शहरी होते जा रहे हैं
उसी रफ्तार से हम अपने से दूर भी होते जा रहे हैं। ‘तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जायेगा’ अतिशयोक्ति में कहे जाने वाले इस जुमले को हकीकत होने में लगता है अब ज्यादा
बरस नहीं लगेंगे। अन्तरराष्ट्रीय-अन्तरराज्यीय सीमाओं से गुजरने वाली नदियों के
पानी के लिए तनाव होना अब तो जब-तब सुनते ही हैं।
आत्ममुग्धता में अपने शहर की ही बात करें तो कभी यहां से गुजरती
सरस्वती नदी की आकांक्षा हम भले ही पालें पर चौफेर पसरते शहर ने
लगभग सभी तालाबों और तलाइयों के आगोर क्षेत्र को लील लिया है। कभी-कभार कुछेक को
सहेजने की कोशिशें होती भी हैं तो बन्दरिया के उस बच्चे के समान ही, जिसने प्राण त्याग
दिए हों और बन्दरिया उसे चिपकाए फिरती है। तालाबों और तलाइयों के प्राण इनकी
आगोरों में ही बसते हैं। आगोर तालाब के इर्द-गिर्द के उन संरक्षित क्षेत्रों को
कहा जाता है जिन पर बरसने वाला पानी बहकर तालाब-तलाइयों तक पहुंचता है। शहरी
क्षेत्र के तालाबों और तलाइयों के लगभग सभी आगोर बसावट में आ गए हैं, कुछ बचे भी हैं तो
विकास का शहरी मॉडल इन्हें बचे रहने नहीं देगा। वैसे रंजन के लिए भी तालाबों की
जगह सिमट कर अब टीवी वाले कमरे तक या सामर्थ्य हो तो नई पनपी रिसॉर्ट संस्कृति तक
पहुंच बनाने लगी है।
इस बार आषाढ़ दो हैं। सावन का इंतजार कुछ ज्यादा
करना होगा। हालांकि सावन की उडीक अब करता ही कौन है।
15 जून, 2015
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