Saturday, June 13, 2015

डीएनए में घुलती लापरवाही

प्रशासन, निजी क्षेत्र और यहां तक कि समाज को भी पिछले तीस-चालीस वर्षों में लापरवाही की लत लीलती जा रही हैहर काम को चलताऊ तरीके से करना, कुछ गड़बड़ हो रही हो तो तब तक ध्यान देना जब तक कि सिर पर ही ना जाए। इसी के नतीजे में आए दिन ऐसी दुर्घटनाएं होती हैं जिन्हें थोड़ी-सी सावधानी या तत्परता बरत रोका जा सकता है। कल की ही बात करें तो राजस्थान के टोंक जिले के सांस गांव में बरातियों से भरी बस हाइ वोल्टेज के लटके तारों की चपेट में गई और उसमें सवार बरातियों में से 16 की दर्दनाक मौत हो गई। शेष कमोबेश सभी घायल हुए हैं।
भारत में आजादी का मानी लापरवाही समझ लिया गया। इसलिए पुराने लोग अभी तक ऐसे मामलों पर अंग्रेजों और राजे-नवाबों के राज की याद करते हैं। ऐसा कहते हुए वे भूल जाते हैं कि तब सरकारी सम्पत्ति को सार्वजनिक नहीं माना जाता था। वह शासकों की होती थी और उसकी केवल शृंखलाबद्ध निगरानी होती थी बल्कि उसमें खयानत करने वाले को सजा भी मिलती थी।
देश के आजाद होने के बाद जो सबसे पहली छूट धीरे-धीरे हमने ली वह यह कि जो सरकारी सम्पत्ति है वह किसी की नहीं या उसे खुर्द-बुर्द करने में किसी का क्या जाता है। जब बने बनाए को खुर्द-बुर्द किया जा सकता है तब सार्वजनिक कुछ नया बनाने में या रखरखाव करने में कुशलता और दक्षता की जरूरत ही क्या।
सरकारी से सार्वजनिक हो चुकी सभी तरह की चल-अचल सम्पत्तियों को नुकसान पहुंचाने, हड़पने या उसके प्रति लापरवाही बरतने आदि पर सजा के नियम-कायदे, कानून सभी हैं, लेकिन इनका असर नहीं है। आजादी बाद शासकों द्वारा अपने लिए या अपनों के हित के लिए सार्वजनिक सम्पत्ति के प्रति लापरवाही को नजर अन्दाज किया जाने लगा। ऐसे में प्रशासन को भी क्या पड़ी थी। सो हुआ यह कि मान लिया गया कि सरकारी या सार्वजनिक सम्पत्तियों का धणी-धोरी कोई नहीं है और जो हैं उन्हें प्रलोभन देकर सजाया जा सकता है।
दरअसल हुआ यह है कि सार्वजनिक शब्द का हम प्रयोग तो करने लगे पर उसके सही अर्थ को हमने अंगीकार करना तो दूर कभी समझने की भी जरूरत नहीं समझी। सार्वजनिक का शब्दकोशीय अर्थ बहुत स्पष्ट है और यह शब्द बजाय लापरवाह होने के जिम्मेदार बनाता है। सार्वजनिक के मानी हैसबसे संबंध रखने वाला, सबके लिए उपयुक्त, सबके काम आने वाला।
आजादी के तुरंत बाद आम भारतीय इन अर्थों को आत्मसात् कर लेता तो सबसे बड़ी अनुकूलता यह होती कि भ्रष्टाचार की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती। अन्यथा इस सबके अभाव में हो यह रहा है कि इस तथाकथित आधुनिक युग में हम अमानवीय होते जा रहे हैं, जिसका हमें लखाव तक नहीं है।
कल करंट से हुई बस दुर्घटना या ऐसी अन्य सभी घटनाएं अन्तत: होती इसीलिए हैं कि प्रत्येक सरकारी उपक्रम के प्रति हम सब लापरवाह हो गए हैं। वर्तमान के एक जुमले में बात करें तो लापरवाही हमारे 'डीएनएÓ में घुल गई है जिसके दुष्परिणाम कभी भी किसी को भी भोगने पड़ सकते हैं।
आज की अधिकांश समस्याएं भ्रष्टाचार से ही प्रसूत हैं और लापरवाही इसका बाइ-प्रॉडक्ट है। अब लगभग स्वीकार्य हो चुके भ्रष्टाचार को 'सार्वजनिक' जैसे शब्द के भावार्थ से समझेंगे तभी शायद समाधान अनावृत होने लगेंगे।

13 जून, 2015

2 comments:

Www.nadeemahmed.blogspot.com said...

आपके संपादकीय एक किताब आनी जरुरी ह सर

Www.nadeemahmed.blogspot.com said...

आपके संपादकीय एक किताब आनी जरुरी ह सर