Thursday, June 11, 2015

दिल्ली में केजरीवाल मंडल

गत फरवरी से, जब से दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी तब से ही केजरीवाल के लिए प्रतिकूलताओं का अंबार लगा हुआ है। यूं भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन प्रतिकूलताओं के लिए अधिकांशत: जिम्मेदार अरविन्द केजरीवाल सहित पार्टी नेता स्वयं ही हैं। वैचारिक तौर पर उलझे इन उत्साही और अति उत्साही लोगों के अनाड़ीपन ने केन्द्र की लगभग अलोकतांत्रिक मानसिकता वाली सरकार को कुचरनी करने की पूरी गुंजाइश दे दी। इसकी आशंका मतदान पूर्व अनुमानों में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने से पहले ही 'विनायक' ने अपने संपादकीय में कुछ इस तरह व्यक्त की थी।
आम आवाम केवल कांग्रेस से बल्कि भारतीय जनता पार्टी से भी नाउम्मीद है, लेकिन कुएं और खाई के दो ही विकल्प हों तो बारी-बारी से एक को चुनना मजबूरी हो जाता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी उम्मीदों को हरा करने में तो सफल होती दीखती है लेकिन उन पर खरी भी उतरेगी, लगता नहीं है। क्योंकि उसकी कार्ययोजना इसी भ्रष्ट व्यवस्था के अन्तर्गत ही बनी बनाई है।
दूसरी बड़ी बाधा दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी होना है जिसके चलते इसे पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता। ऐसे में अपनी पिछली गलतियों से सबक लेकर और अधकचरी सोच में परिपक्वता लाकर केजरीवाल कुछ करना भी चाहेंगे तो मोदी जैसे मन के मैले शासक उनके लिए प्रतिकूलता पैदा कर सकते हैं।
दिल्ली के शासन में केन्द्र का बड़ा हस्तक्षेप गृहमंत्रालय के माध्यम से हो सकता है जिसे मोदी से कुछ उदार राजनाथसिंह देख रहे हैं। ऐसे में हो सकता है वे मोदी के दिल्ली ऐजेन्डे को ज्यों का त्यों लागू नहीं होने दें।
केजरीवाल के लिए बड़ी चुनौती दिल्ली की जनता भी हो सकती है जो उनसे इतनी उम्मीदें लगा बैठी है जिन्हें साधना उनके लिए लगभग नामुमकिन होगा। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि दुबारा मुख्यमंत्री बनने पर केजरीवाल जनता को इतना निराश नहीं होने देंगे कि देश का मतदाता कांग्रेस और भाजपा को अपनी नियति मानने लगे।
काश! इस तरह की आशंकाएं निर्मूल साबित होती तो केवल दिल्ली के मतदाताओं के लिए सुकून की बात होती बल्कि लोकतंत्र को मजबूती भी मिलती।
'आप' के नेताओं के विवाद लगातार सामने इसलिए रहे हैं कि उन्होंने शुचिता के उच्च मानकों की दुदुंभि बजा कर ही अपार बहुमत हासिल किया है। जनता ने भी ऐसा करके खुद नहीं सुधरेंगे की तर्ज पर सारी उम्मीदें अपने इन नेताओं से पाल लीं। नतीजा, इसी जनता से आए नेताओं की कभी फर्जी डिग्रियों का मामला सामने आता है तो कभी घरेलू हिंसा का और कहीं चारित्रिक लांछनों का।
अन्ना आन्दोलन जब परवान पर था तब 'विनायक' ने बार-बार गांधी का जिक्र किया। उन्हीें गांधी का जो यह मानते रहे कि साध्य यदि शुद्ध हासिल करना हो तो उसे हासिल करने के साधन भी शुद्ध होने चाहिए। आजादी के इतिहास से वाकिफ सब जानते हैं कि गांधी ने अपने इसी आग्रह के चलते 1922 में चौरी चौरा की घटना के बाद असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया था। कहा जाता है कि उस समय लगभग चरम पर पहुंचे आजादी के इस आंदोलन को गांधी ने इसलिए वापस ले लिया कि ऐसा यदि पूरे देश में होने लगा तो बहुत बुरा होगा। गांधी इन तरीकों से आजादी नहीं चाहते थे। पाठकों की जानकारी के लिए याद दिला दें कि आन्दोलन के दौरान वर्तमान उत्तरप्रदेश के चौरी चौरा कस्बे में 4 फरवरी 1922 को उग्र आंदोलनकारियों ने ब्रिटिश पुलिस चौकी को घेर कर आग लगा दी थी जिसमें 22 पुलिसकर्मी जिन्दा जल मरे थे।
केजरीवाल और उनके साथियों ने गांधी के नाम पर अन्ना के नेतृत्व में आन्दोलन तो किया लेकिन गांधी के भाव को पूरी तरह समझा नहीं। अब लगता है कि केजरीवाल और उनके साथियों ने तो बिलकुल भी नहीं समझा। अन्यथा इस भ्रष्ट व्यवस्था से लडऩे के लिए साधनों की शुद्धता के वे उतने ही आग्रही होते जितने कि गांधी रहे। गांधी यह भी मानते है कि सार्वजनिक जीवन में काम काने वाले का आचरण बेलाग होना चाहिए, यदि इस पर अमल किया जाता तो 'आप' नेताओं को आज जिन प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ रहा है, नहीं करना पड़ता।  यदि करना पड़ता भी तो आत्मविश्वास नहीं डगमगाता।
अंत में दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग पर : दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग को जैसा मौका इन दिनों मिला है वैसा कम ही को मिलता है। जो कुछ भी वे कर रहे हैं उससे जहां उनके असल आका अंबानी खुश हो रहे होंगे वहीं कांग्रेस और भाजपा जैसे अपने पुराने नए दोनों नियोजकों की सेवा भी एक साथ वे बजा पा रहे हैं।
इस तरह से रोमेश भण्डारी और हंसराज भारद्वाज जैसों को अच्छा कहलवाने का श्रेय अलग से हासिल हो ही जाना है।

11 जून, 2015

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