Thursday, May 28, 2015

गोवंश-मांस के बहाने मानवीय गरिमा की बात

दूसरे की आस्था, विश्वास और रुचियों की अभी बड़ी चर्चा है। माध्यम बना है कुछ माह पूर्व महाराष्ट्र शासन द्वारा गोवंश (भैंस, पाडे, बैल और बछड़े) को काटना, मांस बेचना और खाने को अपराध की श्रेणी में लाना। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने लोकसभा चुनाव अभियान में जिन मुद्दों पर मतदाताओं को प्रभावित किया उनमें एक 'पिंक रिवोल्यूशन' भी था जो मांस से संबंधित है। लेकिन उनकी सरकार बनने के बाद भिन्न तथ्य सामने यह आया कि पिछले एक वर्ष में गोवंश मांस के निर्यात में पन्द्रह प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। एक तथ्य यह भी है कि भारत मांस निर्यातक देशों में शीर्ष में आता है। देश ही क्यों जब पूरी दुनिया ने ही व्यापार को मनुष्यों का प्रमुख कार्यकलाप मान लिया जिसमें सफलता की मानक विदेश मुद्रा को हासिल करना है। ऐसा निर्यात से ही संभव है। निर्यात फिर चाहे वस्तुओं का हो, मानव श्रम या बौद्धिक संपदाओं का, जो जितना ज्यादा करेगा वह उतनी ही ज्यादा विदेशी मुद्रा को हासिल करेगा।
  भारत विविधताओं वाला देश हैयहां खान-पान, रहन-सहन, पोशाक-पहनावा, रीति-रिवाज, बोल-चाल, धर्म-कर्म और आस्थाएं इतने प्रकार की मिलती हैं कि इन्हें सूचीबद्ध करना ही लगभग असंभव है। वैज्ञानिक उपलब्धियों से भरी पिछली दो-एक सदियों से शहरियों को समझदार और गांव वालों को गंवार मान लेने के चलन और धारणा ने पिछली सदी के अंत तक इतना जोर पकड़ा कि यह मान लिया गया कि विकास का शहरी मॉडल ही आदर्शतम है और शहरी समर्थों को अन्य सभी को हांकने का हक हासिल है। गांव की प्रतिष्ठा लगातार कम होती गई, वे ग्रामीण भी जो किसी किसी रूप में समर्थ हो लिए हैं, उन्हें भी शहरी बाशिन्दा हो लेना पड़ा है। बौद्धिक, ज्ञानवान और सूचनाओं में संगोपन सामथ्र्य के मानक नहीं रहे, ज्यादा से ज्यादा इन्हें सम्मानित चौखटों में थरप दिया जाता है। समर्थ हैं वे जिनके पास कोई ना कोई सत्तारूप है, यथाशासन, प्रशासन, धनबल, बाहुबल, संपत्ति बल आदि, ऐसों का किया अन्तिम और कहा ब्रह्मवाक्य हो लिया है। ऐसे समर्थ कहते और करते वही है जिससे खुद या उनके हित चिन्तकों के स्वार्थ सधते हों।
गोवंश की ही बात करें तो देश की आबादी में बहुत से लोग इसे माता कह कर बुलाते हैं, यद्यपि इसका कोई शास्त्रोक्त आधार नहीं, हो तो भी शास्त्रों को अन्तिम क्यों माना जाय। यह जिस देश-काल-परिस्थिति में रचे गये उनका सनातन महत्त्व क्या है और वे आज कितने प्रासंगिक हैं, यह विचारवान जानते हैं। हां, आस्था का मामला हो सकता है लेकिन वह आस्था कैसी जो अन्य से टकराहट मोल ले। गोमांस भक्षण का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है, उसकी बात छोड़ दें। इन हजार-बारह सौ वर्षों में जब से विदेशियों की आम दरफ्त यहां बढ़ी है, या कहें 'विधर्मियोंÓ ने यहां घुसपैठ की उससे पहले से गोवंश मांस विभिन्न खाद्यों में एक रहा है। शाकाहार-मांसाहार बहस का अलग मुद्दा है और दोनों पक्षों के अपने तर्क-तथ्य और प्रमाण हैं, इसमें अभी नहीं पडऩा। समुद्र किनारे के लोग समुद्री खाद्य खाते हैं जिनमें अपने यहां मछली प्रमुख है, जिसे बंगाली तो मांसाहार मानता ही नहीं है। पड़ोसी देश चीन और अपने ही पूर्वोंत्तर के प्रदेशों में किस-किस तरह के समुद्री और जमीनी जीवों का मांसाहार प्रचलित है अपनी कल्पना से ही परे है। मतलब हवा-पानी के बाद भोजन जीवित रहने की सबसे जरूरी क्रिया है जो जहां सहज मिलता हो, खाने में प्रचलन उसी का हो जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में उल्लेखनीय रहे सावरकर गाय को मां नहीं मानते, गांधी मानते और गोमांस भक्षियों से त्यागने का कहते हैं। अकबर जैसा शासक गोमांस पर शासकीय प्रतिबंध लगाता है। ऐसी सभी बातें निजता का हनन है फिर ऐसा कहने वाले गांधी ही क्यों हो। समुद्र से दूर वास करने वाले दलितों और पिछड़ों यानी गरीबों को सुलभ गोवंश मांस रहा है और आज भी है। ऐसे में समूहविशेष की आस्था के नाम पर इस खाद्य से उन्हें वंचित करना मानवोचित कार्य नहीं है। अलावा इसके देश में लाखों लोगों के लिए गोवंश मांस का क्रय-विक्रय आजीविका का भी साधन है। ऐसे समय में जब रोजगार और आजीविका के अवसर लगातार सीमित होते जा रहे हैं तब ऐसे गैर मानवीय विचार-निर्णय करने का औचित्य समझ से परे है। रही बात बौद्धिक विलास की तो बात इस पर होनी चाहिए कि प्रत्येक मनुष्य गरिमा के साथ गुजर-बसर कैसे कर सके, मंथन उस पर कीजिए कि उन पर जिन्हें बिना सभी आयामों पर सोचे हमने मान लिया कि वही एक अंतिम सत्य है।
जिस तरह आस्था निहायत व्यक्तिगत मसला है उसी तरह कौन क्या खाता-पीता, पहनता और रहता है, यह भी निहायत व्यक्तिगत मसले हैं। ऐसी निजता तभी कायम रह सकती है जब हम कैसे भी क्रियाकलापों से अन्योंं की निजता में हस्तक्षेप होने दें।

28 मई, 2015

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