Tuesday, May 26, 2015

भाषिक हिंसा और भाषिक अवमानना

दूसरे समूहों या व्यक्तियों पर चुटकुले गढऩा, हेय मान कर उनकी मजाक उड़ाना या समूहगत-सम्बन्धसूचक गालियों का प्रचलन कोई नया नहीं है। ऐसी भाषिक अवमानना और हिंसा सदियों से चली आई है, बस लक्षितसमूह या तौर-तरीके बदलते रहे हैं। पुरानी कहावतें, मुहावरे आदि-आदि में अनेक उदाहरण हैं, जिनमें कई तो घोर आपत्तिजनक भी हैं। जिन व्यक्तियों और समूहों को लक्षित करके कहा गया वे या तो तथाकथित नीची जातियों के होते हैं या स्त्रियां या फिर परदेशी। इसमें सरदारों सहित उन सभी विस्थापितों को शामिल मान सकते हैं जिन्हें आजीविका के लिए अपनी जमीन छोडऩी पड़ती है। स्त्रियों के मामले में उसके पीहर पक्षवाले पुरुष-स्त्रियां भी लक्ष्य बनते रहे हैं।
आजादी बाद के कानूनों समानता के बूते आए व्यवहारगत परिवर्तनों से सामान्यत: ऐसी तथाकथित परम्परागत भाषा में दस्तावेजी बदलाव देखे जाने लगे हैं, हालांकि इन बदलावों की गति बहुत धीमी है। लेकिन फिर भी सामान्य बोलचाल में ऐसी भाषिक हिंसा और अवमानना बदस्तूर जारी है। गाली-गलौच आदि को तो सामान्यत: गलत कह दिया जाता है लेकिन मुहावरे, कहावतों और चुटकुलों की बात पर एतराज जताने पर लोगबाग चलन और परिहास की बात पर बचाव में उतर आते हैं। लेकिन ऐसे लोग इस पर चुप हो लेते हैं कि ऐसे चलन और परिहास को लक्षित वर्ग कभी उलटता क्यों नहीं है।
पिछले कई दिनों से स्त्रियों की ऐसी भाषिक अवमानना और हिंसा पर फेसबुक पर एक चर्चा चल रही  है—'वाट्सएप के चुटकुलों को पढ़कर लगता है मानो पति से पीडि़त, मजबूर, दुखी प्राणी संसार में कोई नहीं और शादी से बड़ी सजा भी कोई नहीं। कमाल है भई, घर तुम्हारा, तुम्हारे मां-बाप तुम्हारे साथ, बिना मेहनत किए बच्चे तुम्हारे नाम के, वंश तुम्हारा, कुल तुम्हारा, घर से बाहर की दुनिया सारी तुम्हारी, फिर दुखी, पीडि़त और मजबूर भी तुम ही?
ज्यादातर चुटकुले औरतों की जबान पर, उनके बोलने पर! मतलब इतना सब होने पर वो कुछ बोले नहीं, शिकायत करे, समाज की व्यवस्था उन्हें जो तकलीफ देती है, उनसे दुनिया भर के जो अधिकार छीन रखे हैं, वह उसे भाग्य समझ कर स्वीकार करे और परिवार के नाम पर चुप ही रहे। फिर हर दूसरा चुटकुला शादी पर। विवाह ही से इतना परेशां हो तो छुट्टी पाओ, मगर नहीं, दुनिया के सारे सुख भी चाहिए। इधर मां-बाप की सेवा करने के लिए, घर संभालने के लिए, बच्चों का ध्यान रखने के लिए, शादी-सगाई, सामाजिक समारोह अटैण्ड करने के लिए बगल में एक अदद बीवी भी तो चाहिए। माने सारी अंगुलियां घी में हों और सिर कढ़ाई में हो तो भी दुख ही दुख। हे भारतीय पितृ समाज में पले-पुसे पुरुष! तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता।'
फेसबुक मित्र कनुप्रिया द्वारा हलके-फुलके अंदाज में कही इस पोस्ट में आगे वे यह तकलीफ भी जाहिर करती हैं कि ऐसे चुटकुलों का कई स्त्रियां भी समान रूप से मजे लेती हैं। इस पोस्ट पर जो प्रतिक्रियाएं आयीं उन्हें पढ़कर कोई आश्चर्य नहीं है, अधिकांश पुरुषों ने प्रतिक्रिया में कुछ संजीदगी दिखाई तो कइयों ने कनुप्रिया से असहमति इस बिना पर जताई कि इन्हें क्यों परिहास में ही लिया जाय। कुछ ने यह पक्ष भी रखा कि सरदारों पर बहुत चुटकुलें हैं, सरदार खुद भी इनका मजा लेते हैं।
मजा लेने वाले सरदार उन स्त्रियों जैसे ही पराये बोध के अधीन होते हैं जिनका जिक्र कनुप्रिया ने ऊपर किया है। जो स्त्रियां अपने समुदाय पर बने चुटकुलों पर मजे नहीं लेती या जो समूह या व्यक्ति पराये बोध से आत्मबोध की ओर लौट आएं हैं वे ऐसी भाषिक हिंसा और अवमानना को बर्दाश्त नहीं करेंगे। आज युग ऐसे समूहों, व्यक्तियों और स्त्रियों के आत्मबोध में लौटने का है।

26 मई, 2015

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