Tuesday, May 19, 2015

हिंसा लिंगीय हो या जातिवर्गीय, है वह पौरुषीय ही

अरुणा शानबाग बयालीस साल से अचेतन में थी। पेशे से नर्स अरुणा को उसके कार्यस्थल पर ही उसी के सहकर्मी ने 'पौरुषीय हिंसा' का शिकार बनाया। कहते हैं उसे अरुणा से शिकायत इतनी ही थी वह उसे अस्पताल में चोरियां करने से रोकती थी। युवक दलित समुदाय से है, चूंकि घटना के बाद से ही अरुणा के अचेतन में चले जाने से दुष्कर्म का मामला कमजोर हो गया और सात साल की सजा के बाद अब वह यहीं-कहीं स्वतंत्र विचरण कर रहा होगा।
इसी प्रकार नागौर जिले के डांगावास की पिछले हफ्ते की एक वारदात है। चौबीस बीघा जमीन को लेकर दलित परिवार और एक समर्थ जातिवर्गीय परिवार के बीच विवाद था। नौबत यहां तक पहुंची कि गोली चली और समर्थ परिवार के नुमाइंदे की मौत हो गई। इस गोलीबारी की असलियत फिलहाल विवाद में है क्योंकि, दोनों ही तरफ से जो बयान आए, वे आपस में मेल नहीं खाते। असलियत वैधानिक तौर पर प्रामाणित भी होगी, ऐसा इसलिए नहीं कहा जा सकता कि अन्वेषण और न्यायिक प्रक्रिया में इतने छेद हैं कि सभी को बन्द करना लगभग असंभव है। उस गोलीबारी के बाद जो भी हुआ वह जघन्य था, जिसे अरुणा के साथ घटित पौरुषीय हिंसा की श्रेणी में ही देख सकते हैं। इसे पौरुषीय या आम सम्बोधन के तौर पर मर्दवादी मानसिकता भी कह सकते हैं जो संस्कारगत घोषित कमजोर से चुनौती मिलते ही भड़क कर हिंस्र हो जाती है।
अरुणा के साथ वह दलित सोहनलाल हिंस्र इसलिए हुआ कि वह औरत थी और औरत होते हुए पुरुष सोहनलाल के किए को चुनौती दे रही थी। यानी वह दलित समुदाय जो अन्यथा समर्थ जातियों की पौरुषीय हिंसा का शिकार होता रहता है, उसी के एक नुमाइंदे का पौरुष स्त्री की चुनौती से भड़क कर इतमीनान के साथ हिंसा को अंजाम दे देता है। उस स्त्री ने बयालीस साल तक अचेतन को भुगता, उसके लिए जिन्होंने भी जो किया, उन्हें धन्य कहने में संकोच कैसा। इस घटना को निहायत व्यक्तिगत बीमार मानसिकता की परिणति मानने वाले सामाजिक संरचना की पेचीदगियों को नजरअंदाज कर रहे होते हैं। मनुष्य द्वारा किए किसी भी अपराध के लिए समाज-व्यवस्था कम जिम्मेदार नहीं होती है।
सामर्थ्य का पहला आधार लिंग और दूसरा उच्च जातिवर्गीय है। सत्ता, धन और पद जैसे कारक भी इन्हीं में समाहित हैं। उपरोक्त दो घटनाओं के अलावा मनुष्य को असहज करने वाली प्रत्येक घटना से इसे समझा जा सकता है। सोहनलाल ने जो दुस्साहस अरुणा के साथ किया, वह लिंग सामर्थ्य का उदाहरण उसी तरह है जिस तरह पिछले सप्ताह डांगावास या देश में आए दिन होने वाली ऐसी घटनाएं उच्च जातिवर्गीय सामर्थ्य की हैं। स्त्री होकर जबान लड़ाती है, या 'नीच' होकर जबान लड़ाता है जैसे जुमले देश की आजादी और तथाकथित आधुनिकता के बावजूद आम बात हैं।
आरक्षण चाहे स्त्री का हो या कमजोर तबकों काइस आरक्षण का विरोध करने वाले संभवत: यह समझना ही नहीं चाहते कि असली लिंगीय और वर्गीय समानता बिना सुसंगत आरक्षण के संभव ही नहीं है। समाज में दोनों तरह की समानता लाने की मंशा नेक है तो स्त्रियों के आरक्षण को नकारना बन्द करना होगा। इसी तरह जातीय आधार दिए जाने के आरक्षण को भी युक्ति संगत बनाने की पैरवी करनी होगी। राजनीतिक लाभोंं के वशीभूत कुछ भी किया जाना सामाजिक बेईमानी है जो राजनीति करने वाले आजादी बाद से ही कर रहे हैं। इस ओर ध्यान नहीं देंगे तो पौरुषीय हिंसा के चलते अरुणाएं और दामिनियां मौत को हासिल होंगी और डांगावास में हाल ही घटित समर्थ जातिवर्गीय हिंसा भी। जातिगत आरक्षण का जो विरोध करते हैं वे इस बात को नजरअंदाज कर रहे हैं कि भारतीय समाज में ऐसा कोई सामाजिक संस्कार नहीं जिसका जातीय आधार हो। आपवादिक उदाहरण दें, वे ऐसा होने की ही पुष्टि करते हैं।

19 मई, 2015

No comments: