Thursday, May 14, 2015

बालश्रम कानूनों में संशोधन पर हाय तौबा क्यों

बालश्रम कानून में संशोधन के साथ ही इसके पक्ष-विपक्ष में चर्चाएं शुरू हो गईं। इस संशोधन में चौदह की उम्र के बाद के किशोर-किशोरियों को कुछ प्रावधानों के साथ आजीविका के लिए काम करने, करवाने की छूट दी गई है। देश में अब तक लागू इस संबंध के कानून विकसित देशों के हिसाब से थे, जिन्हें किसी भी रूप में अपने देश में व्यावहारिक नहीं माना जा सकता। सामाजिक-आर्थिक विषमताओं के चलते आधी आबादी के लिए जीने की न्यूनतम जरूरतों को जुटाना जहां बेहद मुश्किल हो और जहां बचपन व किशोरवय में पढ़ने-खेलने-कूदने की अनुकूलताएं ना हों वहां ऐसा कानून बोझ से कम नहीं।
कल के पारित संशोधन पर एतराज जताने वाले देश में पहले यह व्यवस्था करवाएं कि प्रत्येक परिवार को न केवल रोजगार उपलब्ध रहेगा बल्कि पहनने और सिर छुपाने की न्यूनतम सुविधाएं भी सभी को मुहैया होंगी। जब तक ऐसा नहीं हो पाता, तब तक विकसित देशों वाले कानून ढोंग से कम नहीं कहलाएंगे। कौन माता-पिता या अभिभावक नहीं चाहेगा कि उसकी संतान अन्य सुविधायुक्त परिवारों के बच्चों की तरह स्कूल जाए, पढ़े-लिखे, खेले-कूदे। लेकिन इस चाह की पूर्ति के लिए भी परिस्थितियां अनुकूल होनी जरूरी हैं। उन्हें भी दो समय पेट भरने को धान चाहिए, तन ढकने को कुछ कपड़ा और कुछ निजता और धूप-बारिश, ठंड से बचने के लिए चौभींता व छत चाहिए, फिर वह चाहे घास-फूस की ही क्यों न हो। अलावा इसके घर परिवार के ऐडैभी व्यक्ति को निकालने होते हैं। ऐसे में उसे अपने उस कुटुम्ब की आर्थिक जरूरतें सहेजने के लिए वह सब करने को मजबूर होना भी पड़ता होगा, जिनके लिए समृद्ध उसे हिकारत से देखे बिना नहीं रहते। हो सकता है वह इन परिस्थितियों में कुंठित भी हो, उस कुंठा के चलते वह लड़ाई-झगड़ा भी करे, अपने परिजनों को मारे-पीटे भी, शराब भी पीने लगे और हो सकता इस सबके बीच परिवार का खुद मुखिया या कोई अन्य अपराध की ओर प्रवृत्त भी हो जाए।
इन सबका उल्लेख उनके किए का औचित्य सिद्ध करने के लिए नहीं बल्कि उन परिस्थितियों को बताना भर है जो प्रकारान्तर से इसी समाज व्यवस्था की देन हैं। हो सकता है, समृद्ध और तथाकथित समझदार इसके लिए अपने को जिम्मेदार न माने और कहे कि रोजगार बहुत हैं, करने वाले नहीं मिलते। ऐसे में वे भूल जाते हैं कि प्रत्येक मनुष्य का आत्म-सम्मान होता है और अपनी रुचि-इच्छा भी। वैसे भी ऐसों के पास चुनने के विकल्प खास नहीं होते। हो सकता है उसे नियोजक का व्यवहार और तौर-तरीका न जमे, हो सकता कार्य की प्रकृति उसे न रुचे। ऐसी परिस्थितियों को अपने पर लागू करके देखें कि ऐसे वैकल्पिक समझौते किस कीमत पर किए जाते हैं, या उनके एवज में वसूलते क्या हैं।
देश में लगभग आधी आबादी ऐसी है जो उपेक्षित है। इसके लिए पूरा समाज अब और भी ज्यादा जिम्मेदार इसलिए है कि बाजारवाद के इस दौर में हम जिनकी कठिनाइयों पर विचारना भी छोड़ चुके हैं। भाग्यऐसा अनुकूल शब्द मिला हुआ है, जिसकी आड़ में ऐसे लोगों पर ठिठकना भी छोड़ चुके हैं।
बड़े लोगों के अनुकूल इस शासन, समाज और अर्थव्यवस्था में ऐसे वंचित परिवारों को इस कानून के माध्यम से थोड़ी अनुकूलता मिली है तो सुकून ये है कि इस ओर विचारा तो गया। वैसे भी इस कानून में जब यह संशोधन नहीं थे तब कौन-सा इसे सख्ती से लागू किया जाता था। लगभग सभी जगह शिथिलताएं थीं और वंचित परिवारों के किशोर-किशोरियां अपने परिजनों की न्यूनतम जरूरतें जैसे-तैसे पूरी करवाने में सहयोग करते ही थे। आदर्श कानून व्यवस्था की आकांक्षा रखने वाले पहले आदर्श समाज और आदर्श अर्थव्यवस्था में सभी के लिए अनुकूलता बनाएं, अन्यथा उनका विरोध ढोंग ही कहलाएगा।

14 मई, 2015

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