Monday, May 11, 2015

विरोध और प्रदर्शनों के बहाने कुछ खरी-खरी

प्रदेश के सरकारी स्कूलों के समय में बढ़ोतरी के फैसले के विरोध में शिक्षक संघ उद्वेलित हैं। पिछले कई दिनों से शिक्षकों के भिन्न-भिन्न संगठन विभिन्न तरीकों से विरोध जता रहे हैं। अलावा इसके कर्मचारियों के विभिन्न संगठन कहीं कार्यालय के स्थानांतरण के विरोध में तो कहीं कार्यालय समाप्त करने के विरोध में आन्दोलन करते रहते हैं। आज से पचीस-तीस साल पहले तक सरकारी कार्मिकों के ऐसे आन्दोलनों और विरोध प्रदर्शनों को सरकार और समाज दोनों ही गंभीरता से लेते थे। इस बीच आज केवल सरकार बल्कि समाज भी इनके किए-धरे पर आंख देते हैं कान। सरकार कुछ करती भी है तो कारण दबाव होकर कुछ अन्य ही होते हैं, बाजदफा तो होता यही है कि सरकार वैसा करने की गुंजाइश रखती ही है। सरकारी कार्मिकों के अधिकांश नेताओं के बारे में सुना है कि वे अकेले में नेताओं और उच्च अधिकारियों के सामने अपने नेताई-अस्तित्व के लिए गिड़गिड़ाते हैं।
बारह-पन्द्रह वर्ष पहले सुनते थे कि इन शिक्षकों के बावन-चौवन संघ थे, जिनके बनने का एक कारण यह भी था कि उनके पदाधिकारियों को 'हरामखोरी' की गुंजाइश मिल जाए। ऐसे नेताओं को देखकर अधिकांश शिक्षक और कर्मचारी भी नीयत खराब करने लगे। हुआ क्या? इन चालीस वर्षों में जहां अन्य सरकारी महकमों का ढंग-ढाळा खराब हुआ वहीं सरकारी स्कूलों की प्रतिष्ठा लगभग समाप्तप्राय हो गई। इसी दौरान राजनेता भी ऐसे लिए जो केवल व्यक्तिगत हित साधने में विश्वास रखते हैं। उन्हें आम-आवाम से कोई लेना-देना नहीं होता। शिक्षक संगठन और कर्मचारी संघ भी अधिकांशत: उनके स्वार्थ साधने के औजार बन रह गये। इस बीच जो चतुर शिक्षक और कर्मचारी थे वे ड्यूटी से फरलो कर अपने-अपने धन्धे जमाने में मशगूल रहे। जिले का ही सर्वे करवाया जाए तो एक-चौथाई के लगभग निजी स्कूल ऐसे होंगे जिनकी स्थापना सरकारी शिक्षक ने सरकारी तनख्वाह लेते हुए की। ऐसे उदाहरण भी मिलेंगे जिसमें उनके सहशिक्षकों ने केवल अनैतिक सहयोग किया बल्कि सरकारी स्कूलों की साख खत्म इसलिए होने दी कि वहीं के उनके साथी का निजी स्कूल चल सके। ऐसे ही अन्य कार्मिकों के भी निज-धंधों की स्थापना की पड़ताल की जाय तो ऐसा ही माजरा देखने को मिलेगा।
सरकारी उपक्रमों के भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता आदि-आदि को शासन-प्रशासन अपने स्वार्थों में या बला टालने की नीयत से नजरअन्दाज करता रहा है। लेकिन जनता की नजरअन्दाजी आजादी बाद से देश में हैरत-अंगेज रही। आजादी से पहले सरकार अंग्रेजों की थी, इसलिए सरकारी संपत्ति और हर उपक्रम को, सरकारी मानने की सोच थी, उस सोच को आजादी बाद भी दोहराते रहे। आजादी से पहले तब भी सरकारी संपत्ति अंग्रेजों की थी, सरकारी उपक्रमवे इस देश की सपंत्ति थे, इसलिए प्रत्येक भारतीय के थे, ऐसी सोच सिरे से ही गायब रही। अफसोस इस बात का ज्यादा है कि मीडिया और समाज को जागरूक करने वाले और अन्य सभी अभियानों में ऐसे प्रयास कभी देखे नहीं गये कि जनता को इस तरह प्रशिक्षित किया जाए कि वह सार्वजनिक सम्पत्ति और उपक्रमों को बजाय सरकारी मानने के अपना माने और सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों को 'दाता' नहीं अपना सहयोगी।
अब भी मीडिया आम-आवामसरकारी कर्मचारियों और शिक्षकों से उनके आन्दोलनों पर पलट कर नहीं पूछता कि इन सरकारी स्कूलों की गत खराब करने के खुद-आप कितने जिम्मेदार हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम एक-एक करके या तो बन्द या निजी क्षेत्र के हवाले किए जा रहे हैं शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन में दोनों तरह की सेवाएं अभी समानांतर चल रही हैं, लेकिन कितने दिन? इन सार्वजनिक सेवाओं का अस्तित्व रहेगा भी, कह नहीं सकते। निजी क्षेत्र की सेवाएं केवल और केवल समृद्धों के लिए साबित हो रही हैं। देश की आबादी का बड़ा हिस्सा या तो निम्न मध्यम वर्ग है या निम्न वर्ग जिनसे इस तरह सार्वजनिक क्षेत्र की ये सेवाएं छिनती जा रही हैं। इसके लिए आम-आवाम की नजरअंदाजी की यह सोच और अच्छी तनख्वाहें और सुविधाएं भोगने वाले सरकारी अधिकारी और कर्मचारी भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। इन अधिकारियों और कर्मचारियों के संघ लगभग गिरोहों के रूप में काम करने लगे हैं। ऐसा कहना कृपया अतिशयोक्ति में ही मानें।

11 मई, 2015

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