'हम कॉरपोरेट वॉर को समझ बैठते हैं कि मीडिया सिस्टम के खिलाफ आवाज उठाता है। क्या वाकई ऐसा है...? बोफोर्स, स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ, कोल ब्लॉक्स—ये सब कॉरपोरेट वॉर की आपसी लड़ाई ही थी, जिसमें मीडिया पार्टी बना। और आप समझ बैठे कि मुल्क में मीडिया क्रांति ला देगा। तो आप बड़े नासमझ हैं।
पिछले दो दिनों से मैं देखना-समझना चाह रहा था कि किस टीवी चैनल ने, अखबार ने नेपाल के बाद भूकंप की सर्वाधिक जद में आए बिहार के सरहदी इलाकों में प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों (पीएमएस)
को निशाने पर लिया...? जांचा कि भूकंप के तुरत बाद कितने डॉक्टर पहुंचे...? कितनों में डॉक्टर की तैनाती नहीं है...? बिहार में चिकित्सा फंड में हुए गड़बड़झालों को लेकर वेबसाइट पर सीएजी की रिपोर्ट की पड़ताल की...? या फिर उन डॉक्टरों को नायक बनाया, जिन्होंने सुविधाओं के अभाव में भी ना जाने कितनी ही जिंदगियों को बचा लिया... यही वो दौर होते हैं जब कोई समाज वास्तविक नायकों को पहचान पाता है...खलनायक को भी...
और मेरी समझ में यह मीडिया खलनायकों को, नायक बना रहा है। और आप मुझे समझाना चाहते हैं कि सब कुछ ठीक चल रहा है...? आपको दिक्कत होती है जब मैं बोलता हंू तो...? क्यों भाई...?'
फेसबुक मित्र और पत्रकार सुमन्त भट्टाचार्य की कल रात की इस पोस्ट ने मीडिया के असल चेहरे पर विचार का बहाना दे दिया।
आजादी से पहले मीडिया ने अपने जो मकसद तय किए थे, आजादी बाद उन्हीं मीडिया पुरोधाओं को पटरी उतरते देखा गया। बहुत कम लोग थे जो मानवीय मकसद की पटरी पर कायम रहे। जो उतर रहे थे उनमें तब एक झिझक थी, उतरने की गति धीमी थी। लेकिन इन की दूसरी-तीसरी पीढिय़ों ने उतार में हड़बड़ी दिखाने में संकोच करना तक बन्द कर दिया। यही कारण है कि अन्य धंधेबाज जो अन्यथा मीडिया से झेंपते थे या अपने बूते का व्यवसाय इसे नहीं मानते थे, वे लोग भी धड़ल्ले से इसमें प्रवेश करने लगे। मीडिया में इस तरह से धंधेबाजों के प्रवेश ने मिशन को कोरा व्यवसाय बना दिया। ऐसे ही लोगों ने मीडिया में आकर स्थापित मीडिया हाउसों को चुनौती दी और जब तब पटखनी देते भी देखा गया। नहीं जानते मिशनरी के रूप में शुरू हुए मीडिया हाउसों ने इन नयी परिस्थितियों पर विचार करते इस तरह भी सोचा होगा कि इन धंधेबाजों को मीडिया में आ धमकने की गुंजाइश पटरी उतर कर खुद उन्होंने ही दी।
खैर, समाज या किसी भी व्यवस्था में इसकी गुंजाइश नहीं होती कि बीते हुए दिनों में लौट जाएं। टाइम मशीन जैसी कल्पना फिलहाल साहित्य और फिल्मों में तो है, असल में नहीं है। जहां है वहीं से भविष्य के लिए प्रस्थान करना होता है। इतिहास का बार-बार उल्लेख इसीलिए जरूरी है कि उससे सबक लेकर आगे का रास्ता तय किया जाता है और माना जाता है कि घड़ा हुआ इतिहास दिग्भ्रमित किए बिना नहीं रहता। मीडिया, खासतौर से सौ-सवा सौ साल की अखबारी दुनिया अपने समय के इतिहास का प्रामाणिक स्रोत है।
इन सन्दर्भों से उल्लेख इसलिए जरूरी लगा कि पटरी उतरा मीडिया, जिस तरह प्रायोजित प्रदर्शन और कार्यक्रम करवाता है, जोड़-तोड़ से खबरें बनवाता है, अपात्रों को पात्रों के रूप में सुर्खियां देता है। ऐसे सभी कृत्य आने वाली पीढिय़ों को दिग्भ्रमित करने की इतिहास रचना है। भविष्य की पीढ़ी किसी दूसरे ग्रह से नहीं आनी है, वह हमारी ही पीढिय़ा होंगी। पत्रकारिता के पर्यावरण को इस तरह दूषित करने से बाज नहीं आएंगे तो जिस तरह हमारी तथाकथित समृद्ध पीढ़ी प्रकृति को प्रदूषित करने में जुटी है उसी तरह आज के अधिकांश मीडिया को बौद्धिक प्रदूषण में संलग्न समझा जायेगा।
28 अप्रेल, 2015
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