Thursday, April 23, 2015

गजेन्द्रसिंह की घटना : संवेदनहीन और तमाशबीन होते हम

राजस्थान के दौसा जिले के गांव नांगल झामरवाड़ा के गजेन्द्रसिंह कल्याणवत ने कल देश के चौराहे जन्तर-मन्तर पर अपनी बलि देकर सचेत करने की कोशिश की कि यह देश न केवल संवेदनहीन होता जा रहा है बल्कि बड़ी तेजी से तमाशबीनों की भीड़ में तबदील भी हो रहा है। भू-अधिग्रहण बिल के खिलाफ जन्तर-मन्तर पर आयोजित आम आदमी पार्टी की किसान रैली में यह वाकिआ घटित हुआ।
गजेन्द्रसिंह क्या थे, उनकी मंशा क्या थी आदि-आदि बताने-जताने वाले कल घटना के बाद से ही सोशल साइट्स पर सक्रिय हैं। उस बहस और चर्चा में शामिल न होकर देखना यह है कि देश में यह सब हो क्यों रहा है। ऐसा आत्महंता दुस्साहस आदमी करता आया है। जैसे भांति-भांति के लोग हैं वैसे ही ऐसे कृत्यों के तर्क और प्रयोजन भी अलग-अलग सामने आते हैं। अपने गली-मुहल्ले या गांव-शहर में आए दिन होने वाली ऐसी घटनाओं को जिस तरह हम लेने लगे हैं, गजेन्द्रसिंह का कृत्य उनसे भिन्न कैसे है। पेड़ पर लटकने से पहले गजेन्द्रसिंह ने अपनी मंशा लिख जो कागज फेंका उससे कुछ हासिल नहीं कर सकते। लेकिन हमारे राजनेता और सोशल साइट पर सक्रिय समाज जो कुछ कह-लिख रहे वह विचारणीय है। इस घटना के बाद कांग्रेस, सत्तारूढ़ भाजपा और आम आदमी पार्टी तीनों को ही धिक्कारा जाने लगा है। सब अपने-अपने तर्कों और उदाहरणों से इन पर सवाल खडे़ कर रहे हैं। लेकिन इस तरह की चर्चा तक नहीं करना चाहते कि ऐसे मुकाम पर हम पहुंचे ही क्यों।
इस सरकार द्वारा लाए गये भू-अधिग्रहण के नये कानून का विरोध और इसी बीच बेमौसम की ओलावृष्टि और बारिश होने से फसलों में हुए नुकसान से सरकारें कठघरे में हैं। सरकारों का तर्क है कि हम जो कर रहे हैं वह किसान और आम-आवाम के हित में है। विरोधी मान रहे हैं ऐसा नहीं है।
बात दरअसल यह है कि आजादी बाद हमने विकास के शहरी मॉडल को आदर्श माना और उसी पर अपनी रीति-नीतियां बनाई। इस मॉडल से देश में एक तरह का विस्थापन का दौर शुरू हो गया जिसे 1947 बाद बंटवारे के समय हुए विस्थापन से भी ज्यादा भयावह कह सकते हैं। बंटवारे के समय का विस्थापन साफ दिखा है। लेकिन पिछले सड़सठ वर्षों से लगातार चल रहे इस विस्थापन को देख नहीं पा रहे हैं। जिस देश को गांवों का देश कहा जाता था, उस देश के ग्रामवासी अपना घर-गांव छोड़ कर शहर की ओर आने को मजबूर हैं। ग्रामवासियों को लगता है कि उनकी समस्याओं के समाधान की जादुई छड़ी शहर के पास ही है। वह शहर में आता है, अजनबी बन कर रहता है। शहर उसे उस तरह स्वीकारता नहीं जिस तरह गांव ने उसे रचा-बसा रखा था। धन कमाने  की शहरी फितरत में वह ग्रामीण भी शामिल होने की कोशिश में लगा रहता है। हमारे प्रधानमंत्री मोदी बसाने की बात तो एक सौ स्मार्ट शहरों की करते हैं लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि इस तरह से बसाना विस्थापन को ही न्योतना है। वे बसा पायेंगे या नहीं, कह नहीं सकते लेकिन खुद विस्थापित होकर जरूर दिल्ली आ बसे हैं।
पिछले सड़सठ सालों तक रही सरकारों ने यदि गांवों में आधारभूत और जरूरी सुविधाओं को विकसित करने के प्रयास किये होते तो संभवत: आज की बहुत-सी समस्याएं रहती ही नहीं। गांवों के लिए अब तक जो कुछ भी किया जा रहा है उसमें अनुकंपा या कहें दाता भाव अधिक और कर्तव्यबोध कम है। व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार ने इसमें उत्प्रेरक का काम किया। जो लोग कहते हैं कि गांवों के लोग भी भ्रष्ट हैं वह यह क्यूं भूल जाते हैं कि भ्रष्टाचार की गति गांवों से शहरों की ओर न होकर शहर से गांव की ओर की रही है। दूसरी बात यह कि विकास के इस शहरी मॉडल का उपउत्पाद तनाव है जिसका उत्प्रेरक हासिल करने की हवस को मान सकते हैं। चूंकि तमाशे ऐसे तनावों से एक बारगी मुक्त कर देते हैं इसीलिए तमाशबीन होने का अवसर हम नहीं छोड़ पाते।
गजेन्द्रसिंह की मृत्यु की घटना हमारे संवेदनहीन और तमाशबीन होने की पुष्टि करती है। देखना यह है कि इस घटना से उद्वेलित होकर इस पूरी व्यवस्था को बदलने के विचार की ओर अग्रसर होते हैं या भिन्न लेबल के एक से समूहों को ही अदल-बदल कर आजमाते रहेंगे।

23 अप्रेल, 2015

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