Saturday, April 18, 2015

मसर्रत के बहाने जम्मू कश्मीर की बात

देश के विशेष प्रदेश जम्मू-कश्मीर में अशांति बढऩे के सरंजाम जुटाए जाने लगे हैं। पिछले वर्ष के अन्त में यहां की विधानसभा के लिए हुए मतदान में पूर्ण बहुमत किसी पार्टी को नहीं मिला। लेकिन जिस तरह का जनादेश था उसमें कश्मीर क्षेत्र में पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी को ज्यादा सीटें मिली  हैं और जम्मू क्षेत्र में भारतीय जनता पार्टी को। परिणामों से लगभग स्पष्ट था कि शासन करने वाले नेशनल कांफ्रेस और कांग्रेस गठबंधन को मतदाताओं ने जनादेश नहीं दिया। जैसा-तैसा भी जनादेश था उसके मानी यही थे कि लगभग विपरीत विचारधारा वाली पीडीपी और भाजपा को मिलकर ही सरकार बनानी है। मौल-भाव की कई बैठकों के बाद एक मार्च को सरकार बन गई। पीडीपी के मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बने। उम्मीद थी फारूक अब्दुला की तरह मुफ्ती भी अपनी बेटी महबूबा मुफ्ती को आगे करेंगे, पूर्ण बहुमत के अभाव में संभवत: ऐसा कर पाए हों। लगभग अस्सी वर्षीय मुफ्ती ने शासन संभालते ही विवादास्पद बयान दिया जिसमें उन्होंने शान्ति से मतदान होने देने के लिए सूबे के अलगाववादियों और पाकिस्तान का आभार जताया। यह ऐसा बयान था जिसमें सर्वाधिक परेशानी सरकार में सहयोगी दल भाजपा को होनी थी। स्तब्ध भाजपा कुछ बोलने जैसी ही नहीं रही। अच्छी तरह घिरने के बाद भाजपा ने मुफ्ती के बयान से असहमति जताते हुए निन्दा की। 
मुफ्ती के बयान को उनके उदारमन की सचाई मानें या अनाड़ी राजनीतिज्ञ का प्रलाप या फिर उनकी किसी रणनीति का हिस्सा। लेकिन उस बयान में गलत क्या था। जम्मू-कश्मीर जैसे अशान्त क्षेत्र में इकसठ प्रतिशत मतदान का होना लोकतांत्रिक दृष्टि से कम सुखद नहीं है, पाकिस्तान और पाकिस्तानपरस्त दहशत फैलाने की यदि धार लेते तो क्षेत्र में उन्हें अनुकूलताएं इतनी हैं कि मतदान प्रतिशत को अच्छा-खासा प्रभावित कर सकते थे। बावजूद इसके मुफ्ती को इस बयान से बचना चाहिए था।
इसके बाद दूसरी बड़ी घटना पाकिस्तानपरस्त मर्सरत आलम की रिहाई की थी। पिछले माह हुई उनकी रिहाई के बाद भी काफी हंगामा हुआ। सरकार का कहना था कि उसे न्यायालय ने रिहा किया तो आलोचकों का मानना था कि सरकार की ढीली पैरवी के चलते ऐसा हुआ। पहले तो पाठकों को इसकी जानकारी देना जरूरी है कि भारतीय मीडिया का बड़ा हिस्सा मसर्रत को अलगाववादी लिख रहा है जो सही नहीं है। जम्मू कश्मीर के लोग तीन धाराओं में बंटे हुए हैं। एक वह समूह है जो भारत और पाकिस्तान दोनों से आजादी चाहता है--इनके भी दो धड़े हैं। एक वह जो इसके लिए लगातार प्रयत्नशील है और दूसरा वह जो ऐसा चाहता तो है लेकिन अनुकूलताएं बनने की इन्तजार में है। एक अन्य समूह वह है जो अब मान चुका है कि उसे भारत के साथ ही रहना है। और तीसरे प्रकार में सैय्यद अली शाह गिलानी और मसर्रत आलम जैसे लोग हैं जिन्हें लगता है कि कश्मीरियों के हित पाकिस्तान के साथ सुरक्षित हैं। इन्हें केवल पाकिस्तान से शह मिलती है बल्कि जम्मू-कश्मीर में बदमजगी बनाये रखने के लिए ऐसों को सारे सरंजामों की पूर्ति भीकी जाती है। इसलिए ऐसे लोगों को पाकिस्तानपरस्त कहना ही ज्यादा उचित होगा कि अलगाववादी। ऐसा कहकर जम्मू-कश्मीर के उस जनसमूह को जो आजादी का पक्षधर है उन्हें अनायास इनमें शामिल कर देते हैं, जो पाकिस्तानपरस्त नहीं है।
देश की आजादी के समय रियासतों का भारत या पाकिस्तान में विलय हुआ था उस समय जम्मू-कश्मीर ने अपना अलग अस्तित्व बनाए रखना तय किया और ऐसा हो भी गया था। 1948 में पाकिस्तानी कबायलियों ने कश्मीर घाटी पर हमला बोल दिया, जिसकी भनक कश्मीर के राजा हरिसिंह को थी और ही उनके सुरक्षाबलों की तैयारी थी। अचानक आए इस संकट के समय उन्हें भारत की ओर देखना पड़ा। भारत ने सेना भेजकर सहयोग किया। लेकिन ऐसा कब तक चलता। जम्मू कश्मीर शासन को लगा कि उसे पाकिस्तान की ऐसी हरकतों के मुकाबले की क्षमता हासिल करते समय लगेगा और उतने समय तक भारत की सेना का वहां रहना संभव नहीं होगा। राजा हरिसिंह और जम्मू कश्मीर के लोकप्रिय नेता शेख अब्दुला जो उस समय कश्मीर में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू करवाने को सक्रिय थे, ने आपस में और भारत सरकार के साथ कई बैठकों में तय किया कि सीमाई सुरक्षा और भारतीय मुद्रा जैसे जरूरी मुद्दों के अलावा शेष सभी शासनिक-प्रशासनिक व्यवस्थाओं में भारत का कोई खास हस्तक्षेप नहीं रहेगा। इन प्रावधानों को धारा 370 में सम्मिलित कर जम्मू कश्मीर का भारत में विलय हुआ था। अलगाववादियों को यानी जम्मू कश्मीर की आजादी चाहने वालों को उनके साथ 1948 में घटित इस सबका भारी मलाल है, और उनकी इच्छा यही है कि उन्हें आजाद कश्मीर मिले। इस सब का जिक्र इसलिए किया गया है ताकि हम शेष भारतीय इसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का खयाल रख अपनी प्रतिक्रियाएं दें। क्योंकि जम्मू और कश्मीर अन्य प्रदेशों और रियासतों की तरह भारत का हिस्सा नहीं है। क्योंकि उसका विलय मजबूरी की परिस्थितियों में विशेष शर्तों के साथ हुआ था। अतिराष्ट्रवादी नारों अति आकांक्षाओं से हम वहां की परिस्थितियों को बदतर ही कर रहे होते हैं।
कश्मीरी पंडितों के मामले को हमें उदार कश्मीरियों की दृष्टि से समझना चाहिए। उनका यह कहना है कि पाकिस्तान की शह से वहां बढ़ी दहशतगर्दी के शिकार केवल पंडित ही नहीं वहां के मुसलमान भी हुए हैं। इसके प्रमाण में आतंकवादी घटनाओं में मारे गये कश्मीरियों के आंकड़े बताते हैं कि वहां के मुसलमान वहां के हिन्दुओं की तुलना में ज्यादा मारे गये। यद्यपि कश्मीर के मुद्दे को हिन्दू-मुसलमानों का मुद्दा बनाकर वे गलत ही कर रहे हैं। लेकिन उदारवादी कश्मीरियों का मानना है कि कश्मीरी पंडितों के मुद्दे का जवाब दूसरे तरह से बनता ही नहीं है। उनका कहना यह भी है कि कश्मीरी पंडित अपना घर छोड़कर गये ही क्यों ? हम तो कहीं नहीं गये और हम मर ही रहे हैं तो कश्मीरी पंडित भी यहां हमारे साथ रहते और मिलकर परिस्थिति का मुकाबला करते। इससे पाकिस्तानपरस्त कमजोर ही होते। कश्मीरी पंडितों के पलायन को वे पाकिस्तानपरस्तों की जीत मानते हैं।
अब बात मसर्रत पर खत्म करते हैं। मसर्रत के मामले में शेष भारतीयों को और केन्द्र सरकार को भी वहां की चुनी हुई सरकार पर भरोसा करना चाहिए। आखिर इकसठ प्रतिशत लोगों ने वहां मतदान किया है, जो देश के अन्य हिस्सों में होने वाले मतदान के बराबर ही है। और वह भी उन परिस्थितियों में जब वहां अशान्ति के बादल हर समय मंडराते रहते हैं। केन्द्र की सरकार और गृहमंत्री राजनाथसिंह भी तथाकथित राष्ट्रवादियों और घेरने की मंशा रखने वाले विपक्षियों (भाजपा भी विपक्ष में इसी भूमिका में रहती आई है) के दबाव में आकर प्रतिदिन वहां की सरकार को निर्देश देना छोड़ें, कभी सलाह मशवरे की जरूरत हो तभी दें, लेकिन उसे प्रचारित करें। यदि ऐसा खुले आम चलेगा तो पाकिस्तानपरस्त कश्मीरियों को भ्रमित करने से नहीं चूकेंगे कि भारत की सरकार कश्मीरियों के साथ गुलामों सा व्यवहार करती है, वैसे भी वे भ्रमित करते ही रहते हैं। इसीलिए शेष भारतीयों और केन्द्र की सरकार से उम्मीद की जाती है कि जैसे परिवार के किसी संक्रमित के साथ सावधानी बरतते हैं वैसी ही सावधानी जम्मू और कश्मीर के साथ बरतेगी। असल राष्ट्रवादी होने का भी तकाजा यही है।

18 अप्रेल, 2015

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