Friday, April 17, 2015

धर्म और जाति

फेसबुक मित्र पुखराज चौपड़ा ने एक पोस्ट में अपनी जिज्ञासा रखी कि 'साहित्य, फिल्म, व्यापार, सरकार, अखबार, विपक्ष आदि सभी की आलोचना हो सकती है तो धर्म और जाति की क्यों नहीं। लोग उबल क्यों जाते हैं।' चौपड़ा की इस पोस्ट में किसी चतुराई का आभास नहीं हुआ तो विचारने का मन हुआ। पहला जो जवाब कौंधा वह यही था कि धर्म और जाति दोनों ही आधारहीन हैं। आधारहीन यानी जिनका नैसर्गिक, तार्किक और वैज्ञानिक आधार नहीं है। धर्म का मानी यहां रूढ़ ही लें, ना कि शब्दकोशीय।
मनुष्य के क्रमिक विकास में जाने कब इस बात की जरूरत हुई कि इस चराचर जगत से इतर कोई शक्तिपुंज होना चाहिए। लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं को इसकी जरूरत पड़ी। शुरुआती आराध्य प्राकृतिक थे, क्योंकि वही नित्य और सत्य हैं। भारतीय भू-भाग की बात करें तो वेद इसके प्रमाण हैं। आस्था के तब के इस अनुभूत को निर्मल मन की उपज या चतुराई की प्रारम्भिक अभिव्यक्ति मान सकते हैं। मनुष्य ने ईश्वर की कल्पना अपनी अक्षमताओं को आड़ देने के लिए ही की। यानी जिस पर बस नहीं या जिस पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकी उसका कारण अपने पर क्यों ले। मनुष्य ज्यों-ज्यों चतुर होता गया त्यों-त्यों इस आधारहीन स्थापना को पुष्ट करने में लगा रहा। वैसे ही जैसे एक झूठ छुपाने को कई सारे झूठ बोलने होते हैं। इसी के चलते विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों के केवल क्रिया-कलापों में बदलाव आते गये बल्कि पूरी तरह भिन्न धारणाओं के साथ धर्म-सम्प्रदाय भी बनते गये।
गांधी शुरू में ईश्वर को सत्य कहते थेलेकिन बाद में उन्होंने उलट कर सत्य को ही ईश्वर माना। इस तरह गांधी एक तरह से धर्म के रूढ़ अर्थों से अपने को निकाल तो लेते हैं लेकिन उनका संस्कारी मन 'ईश्वर' शब्द को संभवतः नकार नहीं पाता।
धर्म में कुछ दम होता तो इतने धर्मों, धर्मग्रन्थों, प्रवचनकारों, बाबाओं-धर्मगुरुओं और तथाकथित धार्मिक टीवी चैनलों पर लगातार दिए जाने वाले उपदेशों और प्रवचनों के चलते समाज में नकारात्मकताएं और बुरी बातों का ग्राफ गिरना चाहिए था। हो इससे उलट रहा है। यहां तक कि इन सबके यहां प्रतिष्ठा वहीं पाते हैं जो इनके कहे के ठीक उलट आचरण करते हैं। धर्म की स्थापनाएं और ईश्वर यदि सत्य होता तो ऐसा नहीं होता। यानी धर्म के आधारों को चाहे अलौकिक ही मानें, लेकिन वे हैं मनुष्य की चतुराई की उपज ही और इसीलिए आधारहीन हैं। इस तरह धर्म और संप्रदाय कोई अलग व्यवस्था होकर सामाजिक व्यवस्था का ही एक अंग है। धर्म को समाज व्यवस्था से अलग मानना भी चतुराई ही है।
इसी तरह चौपड़ा ने जो दूसरी बात जाति पर की उसे पहले से सामाजिक माना जाता रहा है। यह कब से है, उसे एक बार छोड़ देते हैं। लेकिन इसका उद्भव जिस वर्ण व्यवस्था से माना जाता है वह कहने को तो आदर्श व्यवस्था थी, लेकिन इसे भी मनुष्यों की चतुराई की उपज ही माना जाना चाहिए। क्योंकि इसमें एक समूह खुद अपने को अच्छी चर्या का और दूसरों को निम्न और निम्नतर चर्या योग्य मान लेता है। समानता की मानवीय अवधारणा पर चोट यहीं से शुरू हो जाती है। बाद में चतुराई में ज्यों-ज्यों चालाकी ने प्रवेश किया त्यों-त्यों वर्ण-व्यवस्था जाति व्यवस्था में तबदील होती गयी और मनुष्य समाज शोषक और शोषितों का जमावड़ा होकर रह गया।
आज मनुष्य अपनी ही बनाई इन समाज व्यवस्थाओं का शिकार है। जो इन व्यवस्थाओं से लाभान्वित हो रहे हैं या जो इन व्यवस्थाओं से पीडि़त हैं, वे आपसी वैमनस्य भुगत रहे हैं। इससे मुक्ति जल्द ही संभव नहीं दीखती। क्योंकि इनसे लाभान्वित होने वाले इसे अपना हक मानने लगे, चाहे वे उच्च जातीय दम्भ वाले हों या धर्म से पोषण पाने वाले।
विज्ञान इससे छुटकारा दिला सकता है, अन्तत: दिलाएगा भी वही। लेकिन हम इस विज्ञान को नकारने से बाज नहीं आते हैं। जितना स्वीकारते हैं, वह अपनी सुविधा के लिए ही। उस स्वीकृति में भी व्यापक मानवीय दृष्टिकोण का अभाव है। मनुष्य विज्ञान को भी धर्म और जाति वाली फितरत से ही स्वीकारता है। उसी का परिणाम है कि सुख के सभी साधन और क्रिया-कलाप अन्तत: दुख के कारण बनते नजर आते हैं। मनुष्य अपनी फितरत नहीं बदलेगा तो भुगतना उसी को होगा। हम यह भूल जाते हैं कि हमारे द्वारा जुटाए सरंजामों को भुगतना हमारी आने वाली पीढिय़ों को होगा। ऐसे विवेक का होना हमारे सभ्य होने का नकार है।

17 अप्रेल, 2015

No comments: