Monday, March 9, 2015

महिला दिवस का औचित्य

हिन्दू समुदाय के एक बड़े हिस्से की 'पुत्रवती' महिलाएं विक्रम संवत् के भाद्रपद कृष्णा की द्वादशी को बछ बारस का व्रत और गाय का पूजन करती हैं। पिछले कुछ वर्षों में गाय की जो गत हुई है उसमें इस दिन-विशेष को महत्त्व देना किसी कौतुक से कम नहीं।
ठीक इसी तरह वैश्विक स्तर पर महिला दिवस भी हम भारतीयों के लिए किसी कौतुक से कम नहीं है। भारतीय समाज में, जाहिर है, जब भारतीय समाज की बात करते हैं तो उसके अधिकांश की ही बात कर रहे होते हैं-और यह भी संभव है कि कहे से उलट उदाहरण अपवाद रूप में मिले। भारत में स्त्रियों की हैसियत उनके समाज के पुरुषों की हैसियत से तय होती है। पुरुष उच्च वर्ग का है तो उसकी हैसियत प्रथम श्रेणी के नागरिक सदृश होगी। यह इसी में शामिल है कि इसी समाज की औरतें दोयम दर्जे की नागरिक के रूप में जीवन यापन करती हैं। अब अन्दाजा लगाएं कि जिस समाज में पुरुषों का दर्जा ही पांचवें-सातवें तक होता है ऐसे में उन समाजों की स्त्रियों की हैसियत क्या होगी?
स्त्रियों की ऐसी स्थिति कमोबेश पूरी दुनिया में ही है लेकिन बात हम अपने देश के सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने की करें तो हमारा समाज जिस तरह की पारिवारिक इकाइयों से बना है, यह उस ढांचे की ही देन है कि स्त्रियों की हैसियत समाज में पुरुषों की हैसियत से कम ही मानी जाती है। आदर्श की बातें और आपवादिक उदाहरणों को दरकिनार करके बात करेंगे तो कल गये महिला दिवस में महिलाओं का महत्त्व उतना भर ही है जितना बच्छबारस जैसे त्योहार पर गायों का होता है- पूरे वर्ष तो उसे जो भोगना होता है, भोगती ही हैं।
ठीक इसी तरह समाज की कुछ विशेष महिलाओं के सम्मान की औपचारिकता निभा ली जाती है, सरकार की रोडवेज में आने-जाने की नि:शुल्क सुविधा का उपभोग कर लेती हैं। ऐसे दिखाऊ सम्मान अंगुली पर गिनने योग्य संख्या की स्त्रियों का ही होता है। वहीं रोडवेज में नि:शुल्क यात्रा करने वाली अधिकांश स्त्रियां वह होती हैं जिनका परिवार आर्थिक रूप से किराया देने में सक्षम होता है। शेष बड़े हिस्से की स्त्रियां जरूरी वजह होने पर भी यात्रा नहीं कर पाती हैं तो किसी एक निश्चित दिन बिना वजह यात्रा करना उनके लिए कैसे संभव होगा?
यह सब बातें इसलिए कही जा रही हैं कि स्त्री को समाज में पुरुषों के बराबरी की हैसियत हासिल होनी चाहिए। ऐसा वर्तमान सामाजिक पारिवारिक ढांचे में लगभग असंभव है। क्योंकि पीढिय़ों के शुद्ध खून का भ्रम और इसीलिए स्त्रियों से यौन शुचिता का 'अनुचित' आग्रह उनको बराबरी का दर्जा दिलाने में बड़ी बाधा है। बीसवीं शताब्दी के विज्ञान और विश्वव्यापी होती लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाओं ने काफी उम्मीदें जगाई हैं। विज्ञान द्वारा आविष्कृत गर्भ निरोधक साधनों ने जहां स्त्री को राहत की सांस दी वहीं डीएनए जैसी जांच का व्यापकीकरण स्त्री को कई तरह के लांछनों और दबावों से मुक्त करता है। इस तरह के बदलावों की गति इतनी धीमी है कि स्त्री की सामाजिक स्थितियों में बदलाव आने में अभी कई दशक लगेंगे। लेकिन, यह कतई नहीं मानें कि यह बदलाव विश्व महिला दिवस मनाने भर से आने वाला है।
जो भी बदलाव रहे हैं उनका मुख्य श्रेय लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के विकास और विज्ञान को दिया जाना चाहिए। विश्व पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जायेगा कि यथास्थितिवादी समाज ना लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करता है और ना ही वैज्ञानिक सिद्धियों में- ऐसे लोगों के सभी प्रयास और करतूतें इन बदलावों को जब तब चुनौती देने से नहीं चूकते। उदाहरण के लिए रोहित शेखर का मामला ले, ये कभी कांग्रेसी दिग्गज रहे नारायणदत्त तिवारी की संतान हैं। डीएनए और न्यायिक आधार पर इसे तय करवाने में रोहित को बड़ी लम्बी लड़ाई लडऩी पड़ी। यह लड़ाई उनकी मां उज्ज्वला शर्मा क्या इन सामाजिक परिस्थितियों में लड़ सकती थी? विज्ञान यदि डीएनए टेस्ट जैसी सुविधा नहीं देता तो हो सकता है रोहित इसे साबित करने में ही विक्षिप्त हो जाते कि उनके जैविक पिता नारायणदत्त तिवारी ही हैं और तब भी यह साबित नहीं हो पाता। हां, स्त्री होने के नाते उज्ज्वला कलंकित जीवन जीने को मजबूर जरूर हो जातीं। दूसरा बड़ा कारण स्वयं समाज व्यवस्था है, कमियों के बावजूद जिसे हम छिन्न-भिन्न नहीं होने देना चाहते, रिश्तों का मोह भावात्मक ब्लैकमैलिंग से कम नहीं होता, और तो और स्वयं स्त्रियां भी इससे मुक्ति नहीं चाहती, जबकि यह तय है कि स्त्रियों को पूरी बराबरी वर्तमान पारिवारिक-सामाजिक ढांचे में कतई संभव है नहीं!

9 मार्च, 2015

2 comments:

Unknown said...
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Unknown said...

एक प्रश्न उठता है कि अगर परिवार संस्था में शोषण,उत्पीडन,असुरक्षा और गैरबराबरी है तो किस संस्था में स्त्री की मुक्ति है?
पश्चिम के "लीव इन रिलेशनशिप में'सुरक्षा और बराबरी है?पीडा नहीं है? परिवार का विकल्प क्या है?
कई सवाल लेख पढ जन्म लेते हैं जिसमें यह प्रमुख है कि लेखक स्त्रियों की बराबरी और मुक्ति चाहते हैं और यह तभी सभंव होगा जब समाज संवेदनशील हो ।जब पिछडों,वंचितों,शोषितों की मुक्ति होगी तभी स्त्री की भी मुक्ति होगी और एक स्त्री अपनी विशेष भूमिकाओं को निभाते हुए सहज जीवन जी सकेगी।