Monday, March 30, 2015

रेल फाटकों के समाधान का कच्चा-पक्का चिट्ठा--एक

बीकानेर की सबसे बड़ी कोटगेट और सांखला फाटक की समस्या पर इन दिनों लगातार चर्चा होने को सुखद कहा जा सकता है। विधानसभा में विधायक गोपाल जोशी ने जहां इसे प्राथमिकता से उठाया वहीं मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी तकनीकी विश्वविद्यालय की मांग के साथ इन रेल फाटकों की समस्या पर सक्रिय हुई और बीते शुक्रवार को इनके लिए घोषित बीकानेर बन्द को नेतृत्व भी दिया। कांग्रेसी दिग्गज 1980 के बाद से बीकानेर शहर का विधानसभा में आठ में से पांच बार प्रतिनिधित्व कर चुके डॉ. बी.डी. कल्ला को भी जमीनी राजनीति की सुध आयी और वे अपने बीकानेर प्रवास के दौरान इन मुद्दों हेतु सड़क पर लिए  बल्कि यदा-कदा सोशल साइट फेसबुक पर इन्हें उठाने भी लगे हैं।
मीडिया के दोनों आयामों अखबार और टीवी में इन रेल फाटकों की समस्या का अनुसरण किया जाने लगा और राजस्थान पत्रिका तो पिछले कई दिनों से एक कॉलम के माध्यम से पाठकों के दिये सुझाओं-समाधानों को जगह भी देने लगा है।
फेसबुक पर भी कई लोग इस समस्या से जहां उकताहट प्रकट करने लगे वहीं कई उत्साही अपने समाधानी विकल्प सुझाने लगे हैं। इनमें भाजपा व्यापार प्रकोष्ठ के विष्णु पुरी सर्वाधिक सक्रिय देखे जा रहे हैं। इन माध्यमों से रहे बहुत सारे समाधानी विकल्पों की बात करें तो इनमें अपनी-अपनी कमियां हो सकती हैं, ऐसे में देखना यह होगा कि ऐसा समाधान जो ज्यादा सुविधाजनक और व्यावहारिक हो, चर्चा द्वारा निर्णय कर उसी पर एक स्वर में कायम रहें। तब तो किसी तय समय में समाधान की शुरुआत संभव है। अन्यथा हम विकल्प ही तय नहीं कर पाएं तो शासन-प्रशासन को तो कोई अड़ी है और ही बायड़ कि वह विवादों के चलते कुछ करे।
डॉ. कल्ला सहित कई अब भी बाइपास को एक समाधान मान रहे हैं। नहीं जानते कि ऐसों को इस योजना के प्रारूप का भान है कि नहीं। होगा ही लेकिन ऐसे में उसे छुपाकर बात करना जनता के साथ छल ही है। रेल बाइपास की बात सबसे पहले 1976 में जारी बीकानेर शहर के मास्टर प्लान से सामने आयी थी। उसमें सुझाव था कि शहर के बीच से गुजरने वाली रेल लाइन को हटाकर शहर के पश्चिम-दक्षिण में नई रेल लाइन डाली जा सकती है इसमें वर्तमान बीकानेर रेलवे स्टेशन को हटाकर दो नये स्थानों के प्रस्ताव दिए गए जिनमें एक घड़सीसर में सुझाया गया और दूसरा मुक्ताप्रसाद नगर के पास। इसके बाद जननेता रामकृष्णदास गुप्ता ने रेल बाइपास की मांग को लेकर पिछली सदी के आखिरी दशक के मध्य में लम्बे समय तक आन्दोलन चलाया,  कोटगेट पर उनके कई दिनों के धरने के बाद मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत और रेलमंत्री सी.के. जाफर शरीफ बीकानेर आए और रेल बाइपास पर सहमति जता कर आन्दोलन को खत्म करवा गये। इसके बाद 1998 में प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी और डॉ. बी.डी. कल्ला मंत्री बने तो इस समाधान को पहली बार व्यावहारिक स्वरूप दिलवाया। ऐसा कल ही डॉ. कल्ला ने 'विनायक' को पत्र द्वारा बताया है। उनका कहना है कि एशियाई विकास बैंक के ऋण के आधार पर 61 करोड़ की योजना का पूरा खर्चा राज्य सरकार द्वारा उठाने की शर्त पर रेल मंत्रालय ने सहमति दे दी थी। कल्ला आरोप लगा रहे हैं कि 2003 में वसुन्धरा सरकार आई तो इस योजना सम्बन्धी रेलवे के मेमोरेन्डम और अण्डरस्टेंडिंग को दबाए रखा और सरकार के जाते-जाते कांग्रेस सरकार द्वारा रेलवे मंत्रालय को इस पेटे दी गई एक करोड़ रुपये की पेशगी को वापस मंगवा कर पटाक्षेप कर दिया।
एक समाधान, सुझाव ये भी हो सकता है कि रेल लाइन भी हट जाए और स्टेशन भी यहीं रहे। तो रेलगाड़ी कोई बस तो है नहीं जहां मरजी आए जैसे ले गये। इस स्टेशन पर गाड़ी आकर लौटेगी तो इंजन को भी आगे-पीछे करना होगा। ऐसे में कम से कम आधा घंटा और अतिरिक्त लगेगा। यानी यहां से गुजरने वाली हर गाड़ी का समय सवा से डेढ़ घंटा बढ़ जाना है। मेड़ता रोड होकर जयपुर की ओर जाने वाली गाडिय़ां यह परेशानी पहले ही भुगत रही हैं।
इस बीच 2008 में कांग्रेस की सरकार गईलेकिन कल्ला ने यह नहीं बताया कि उन्होंने उस योजना को पुनर्जीवित करवाने के प्रयास किए या नहीं। या किए तो बात सिरे क्यों नहीं चढ़ी? कांग्रेसी राज में नगर विकास न्यास के मकसूद अहमद अध्यक्ष बने और कोटगेट फाटक पर अण्डरब्रिज बनाने की योजना ले आए जिसका इससे प्रभावित होने वाले व्यापारियों ने पुरजोर विरोध किया और बाइपास से समाधान की बात एक बार पुन: होने लगी।
1976 में प्रस्तावित उस बाइपास योजना में वर्तमान स्टेशन को हटाकर जिन दो स्थानों पर स्टेशन बनाने प्रस्तावित थे वे दोनों स्थान बसावट में लिए हैं। वहीं अब रेलवे इस समाधान पर दो विकल्पों के साथ सहमत है-- एक तो यह कि वर्तमान रेलवे लाइन कायम रहेगी और सवारी गाडिय़ों को यहीं से गुजारा जायेगा। बाइपास से केवल मालगाडिय़ां ही गुजारी जायेंगी। इस विकल्प में स्टेशन यहीं रहेगा, ऐसे में रेल फाटकों की समस्या का खास समाधान इसलिए नहीं मिलना क्योंकि वैसे भी इस रूट पर सवारी गाडिय़ां ही ज्यादा चल रही हैं, अधिकांश मालगाडिय़ों की दिशा बदल दी गई है। दूसरे विकल्प के तौर पर रेलवे का कहना है कि शहर से गुजरने वाली इस लाइन को हटाना ही है तो वर्तमान स्टेशन को नाल गांव ले जाना होगा। ऐसे में क्या शहर इसके लिए तैयार होगा। दूसरा, इस शहर से गुजरने वाली सभी गाडिय़ों का समय पैंतीस से पैंतालीस मिनट बढ़ जायेगा। यह सवारी गाडिय़ों के समय को लगातार कम करने के प्रयासों को भी झटका होगा।
एक और बड़ी अड़चन यह है कि रेलवे इस पूरी योजना में एक पैसा भी नहीं लगाएगा। जमीन अधिग्रहण और नई लाइन डालने का खर्चा तो राज्य सरकार को उठाना ही है--वहीं नाल में नये स्टेशन को विकसित करने का खर्च भी राज्य सरकार को वहन करना होगा। ऐसे में देखना यह होगा यहां के जनप्रतिनिधि क्या वर्तमान रेलवे स्टेशन को नाल ले जाने के लिए आम-अवाम को सहमत और योजना पर आने वाले भारी भरकम खर्च के लिए राज्य सरकार को तैयार कर लेंगे?

शेष रहे विकल्पों पर बात कल करेंगे।

No comments: