Friday, March 27, 2015

विश्वकप क्रिकेट में कल भारतीय टीम की हार

क्रिकेट विश्वकप के सेमीफाइनल में भारतीय क्रिकेट कन्ट्रोल बोर्ड की टीम आस्ट्रेलिया की टीम से हार गई। भारतीय मीडिया ने इस खेल को जिस तरह चढ़ाया, उससे वे भारतीय जिन के पास इस खेल के जुनून को ओढऩे की सामर्थ्य है, उनमें से अधिकांशतविश्वकप के दौरान ऐसे ही दौरे में पाए गये। कल की हार पर जिस तरह प्रतिक्रिया देना चाह रहा था, फेसबुक देखा तो दो लेखक-पत्रकार मित्रों ने लगभग वैसी प्रतिक्रिया बेहतर ढंग से देकर काम आसान कर दिया। उन प्रतिक्रियाओं को जिस तरह फेसबुक वॉल पर शेयर किया उसी तरह यहां भी किए देता हूं।
'अपना काम कीजिए दोस्त। क्रिकेट खेल में इतना उत्तेजित होने की जरूरत नहीं है। खेल का रोमांच खेल में ही है इससे किसी की राष्ट्रीयता की जीत-हार का कोई ताल्लुक नहीं। क्रिकेट में भारत के जीत या हार जाने से नागरिकों के सामाजिक और आर्थिक जीवन पर रत्ती भर भी फर्क नहीं पडऩे वाला। इससे भारत के वर्तमान और भविष्य पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। खेल में प्रदर्शन को लेकर खिलाडिय़ों के व्यक्तिगत जीवन पर टिप्पणी करना खेल भावना के खिलाफ है, शर्मनाक है जिस तरह से एक अभिनेत्री को लेकर चटखारे लिये जा रहे हैं। अभी आठ मार्च को यही लोग स्त्री अस्मिता और स्वाभिमान की बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे। हैरतअंगेज है कि अनुष्का को लेकर कुछ स्त्रियां भी छींटाकशी कर रही हैं।'
कल शाम लगभग छह बजे आयी लखनऊ के मित्र हरेप्रकाश की इस प्रतिक्रिया के दो घण्टे बाद ही दिल्ली के मित्र प्रियदर्शन की इस प्रतिक्रिया ने शेष को भी अभिव्यक्त कर दिया--
'जो लोग क्रिकेट नहीं समझते, वही भारतीय क्रिकेट टीम की जीत पक्की मान रहे थे। और जो लोग रिश्तों को नहीं समझते हैं, वही विराट के प्रदर्शन के लिए अनुष्का पर ताने कस रहे हैं और चुटकुले बना रहे हैं। दरअसल यह बाजार है जिसने क्रिकेट को भी कमोडिटी में बदल दिया है और रिश्तों को भी। इस बाजार के साथ सिडनी तक जाकर मैच देखने की हैसियत रखने वाला एक अमीर इंडिया भी जुड़ा हुआ है जो अपनी बाकी पराजयों की भरपाई सिर्फ क्रिकेट की जीत से करना चाहता है। जब हार होती है तो उसका सहज शिष्टता बोध भी जैसे तार-तार हो जाता है।'
इस हार के बाद भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी विराट कोहली की मित्र अनुष्का शर्मा पर अंट शंट बहुत कहा जा रहा है। ऐसा कहने वाले मर्दवादी सोच के लोग हैं जो स्त्री की कैसी भी स्वतंत्रता को बर्दाश्त नहीं कर पाते। ऐसे लोगों के लिए इतना ही कहना उचित है कि जो जिसके पास नहीं होता, उसे दिखाने में वह केवल उत्सुक रहता है, बाजदफा अपना आपा देने से भी नहीं चूकता। खेल भावना से तो ऐसे लोगों का कोई लेना देना ही नहीं होता। क्रिकेट की बात करें तो साफ-सुथरे ढंग से खेले जाने वाले खेल में हार-जीत के कई कारण होते हैं जिनमें क्रिकेट की पिच, खिलाडिय़ों का उस दिन का मिजाज, सामने वाली टीम का प्रदर्शन, मैदान का माहौल, खेल में अचानक कुछ घटित से रणनीति में तात्कालिक बदलाव, यहां तक कि मौसम आदि की भी कुछ भूमिका होती है। इसलिए ग्यारह खिलाडिय़ों के साथ कई अन्य लोगों से बनी टीम के लिए किसी एक खिलाड़ी की महिला मित्र को लांछित करना 'मर्दपने' के स्खलन से उपजी खीज ही माना जाएगा।
फेसबुक पर आयी उक्त दो पोस्टें बहुत कुछ कह देती हैं। अपने यहां तीस-चालीस वर्ष पहले तक क्रिकेट भी अन्य खेलों की सी हैसियत पाए था, बल्कि तब हॉकी के प्रति आकर्षण ज्यादा था। तब के पांच दिवसीय इस बोझिल खेल को धीरे-धीरे सर्कस शैली में तबदील किया जाने लगा। पचास-पचास ओवरों के विश्वकप मैच और टीवी पर सीधे प्रसारणों के चलते क्रिकेट धीरे-धीरे सब खेलों को लीलने लगा। क्रिकेट कमैंटरी के श्रोताओं से लाइव टीवी के दर्शक बने लोग इसके आभासी खरीदार हो गये। अनाप-शनाप पैसा आने लगा। बिना पुरुषार्थ  आने वाले इस धन के आकर्षण में सत्ता-सामर्थ्य के बूते राजनेता और सम्पन्न लोग प्रभावी हो गए। धन और सत्ता सामर्थ्य को अपनी बुराइयों के साथ ही आना था। क्रिकेट संघों के सफेदपोश गिरोहों के साथ नकाबपोश बुकी भी मिले। अब स्थिति यह हो गई है कि इन सफेदपोशों और नकाबपोशों में यह होड़ सी लगी रहती है कि धन का गोलमाल ज्यादा कौन करेगा। इसी प्रतिस्पर्धा ने जब नूराकुश्ती का रूप लिया तो फिक्सिंग भी शुरू हो गई। फिक्सिंग संक्रमण के छींटे टी-ट्वैन्टी के आइपीएल से लेकर विश्वकप तक पर पडऩे लगे।  इनका प्रबन्धन ऐसा है कि  कमोबेश सामर्थ्यवानों का आकर्षण कम ही नहीं होने देते।
भारतीय क्रिकेट कन्ट्रोल बोर्ड, जिसके बैनर से जाने वाली टीम को भारत की टीम कहा जाता है और जिसके एक प्रकल्प के रूप में क्रिकेट को टी-ट्वैन्टी के रूप में तमाशे में तबदील किया जा रहा है। इस बोर्ड में जितनी आवक-जावक बेशुमार धन की है अब उतनी ही घमासान भी मची है। नेताओं और समर्थों के वर्चस्व के चलते इस पर किसी सेंसर का सोच ही नहीं सकते। अन्यथा सांप और नेवले की भूमिका में दीखने वाले कांग्रेसी और भाजपाई यहाँ गलबहियां डाले दिखेंगे। एक व्यक्ति जो इन सबके माथे बांधने जैसा इनके बीच का ही चतुर और शातिर ललित मोदी है, जिसे ये सभी समर्थ देश से बाहर किए हुए हैं। ललित मोदी की होशियारी का अन्दाज इसी से लगा सकते हैं कि उसने आइपीएल टी-ट्वैन्टी के माध्यम से क्रिकेट को शुद्ध बाजारू बना कर लगभग नोट छापने की इण्डस्ट्री में तब्दील कर दिया। क्रिकेट के ये सारे गैंगस्टर ललित मोदी को लेकर लगभग सी-कम्पा में हैं और उन्हें लगता है कि यह लौट आया और खुला रहा, या तो बीसीसीआई को कब्जा लेगा, इसमें सफल नहीं हुआ तो देश में समान्तर क्रिकेट बोर्ड स्थापित करने में सफल हो जायेगा। क्रिकेट की जो गत होनी है उसे रोकने की मुहिम कम से कम भारत से तो शुरू नहीं होगी, दूसरे देश कोई पहल कर बीड़ा उठाएं तो अलग बात है। वैसे अपने देश में सुधारे की मुहिम जल्द से जल्द शुरू होनी चाहिए अन्यथा घुट रहे अन्य सभी खेल धीरे-धीरे दम तोड़ देंगे।
अन्त में एक पहेली पाठकों पर ही छोड़ते हैं कि नरेन्द्र मोदी को राजनीति का ललित मोदी कहा जाय या ललित मोदी को क्रिकेट का नरेन्द्र मोदी। उम्मीद करते हैं फैसला पाठक मनन करके देंगे, हड़बड़ी में नहीं।

27 मार्च, 2015

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