Tuesday, March 3, 2015

आम आदमी की आकांक्षाओं को न टूटने दे आम आदमी पार्टी

दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत की आम-अवाम फिलहाल भौचक दौर से गुजर रही है। कांग्रेस की दूसरी-तीसरी या कहें भद्दी हो चुकी फोटोकॉपी भारतीय जनता पार्टी के केन्द्र के शासन में आने के बाद की गति यह है कि भाजपा जिन-जिन मुद्दों पर कांग्रेस पर अब तक थूकती रही उस थूके को चाटने में उसे अब कोई शर्म भी महसूस नहीं होती। ढेरों आशाएं जगा कर हड़पे प्रधानमंत्री पद पर बैठे कपटी मन के नरेन्द्र मोदी किस मंशा में हैं, समझ से परे है। फिलहाल तो वे संभवत: उस ऋण से मुक्त होने में लगे हैं जिनके धन के बूते मोदी अपने चुनाव अभियान को चला सके। शेष जो समय उनके लिए बच रहा है वह यह यदि थोड़ा ज्यादा है तो विदेश घूम आते हैं अन्यथा उनका बहुत-सा समय तो पोशाकें बदलने में ही लग जाता है।
शेष रही पार्टियों में वामपंथी पार्टियां अपनी ट्रे यूनियनों की नकारात्मक भूमिका के चलते हाशिए पर लगी तो तथाकथित समाजवादी पार्टियां बरास्ता परिवारवाद सामन्तवादी गंतव्यों तक पहुंचने में लगी हैं। मायावती जैसे नेताओं का प्रशिक्षण चतुराई भरा नहीं रहा या यूं कहें वे नेतृत्व देने की पूरी योग्यता हासिल नहीं कर सकीं, नतीजा जिन समुदायों के बूते उन्होंने हैसियत हासिल की वे खुद ही ठिठक गये।
अपनी साख को लगभग बट्टे खाते डलवा चुकी मनमोहनसिंह या कहें सोनिया गांधी के नेतृत्व की संप्रग-दो की सरकार से ऊबी जनता ने 2011 में अन्ना हजारे से उम्मीदें बांधी पर अन्ना का वैचारिक खूंटा इतना कमजोर था कि वह उन उम्मीदों के बोझ को संभाल नहीं सके। नेतृत्व यदि पूरी तरह सुलझा हुआ हो तो हश्र अन्ना आन्दोलन जैसा ही होता है। 1977 जैसा उद्वेलन बहुत बरसों बाद 2011-12 में ही देखा गया लेकिन अन्ना उसे देशहित में भुनाने में असफल रहे। इस बीच आम चुनाव लिए और भाजपा ने अपना नेतृत्व नरेन्द्र मोदी जैसे को देकर भारी सफलता अर्जित की। संप्रग रूपी कुएं से निकलने की हड़बड़ी में जनता भाजपाई खाई में गिरने को मजबूर थी, अन्य कोई विकल्प भरोसा भी नहीं बन सका!
अन्ना आन्दोलन की सीमाएं और आम आदमी पार्टी का आधार वैचारिक होने की बात 'विनायक' ने एकाधिक बार उठाई है। बावजूद इसके इन लोगों पर उन बहुत से  लोगों ने भरोसा जताया जो सचमुच बदलाव चाहते हैं, अन्ना के छिटकाने के बावजूद अच्छी मंशा वाले लोग आम आदमी पार्टी के साथ जुड़े।  इस पार्टी से बहुत उम्मीदें तो नहीं बनाई लेकिन इस पार्टी ने सहानुभूति जरूर हासिल कर ली।
अभी दो दिन से जैसी छीछालेदर खासकर खबरिया चैनलों में इस आम आदमी पार्टी की की जा रही है उससे इस बात की पुष्टि ही हो रही है कि इलैक्ट्रोनिक मीडिया का अस्तित्व ऐसी सनसनियों पर ही टिका है। आम आदमी पार्टी का फिलहाल कोई वैचारिक आकाश नहीं है लेकिन जो छिटपुट छितराए वैचारिक बादल दीख रहे हैं उनसे लगता है कि यह पार्टी किसी वैचारिक आधार को हासिल कर लेगी। ऐसी उम्मीदों को दिल्ली विधानसभा चुनावों में जनता द्वारा जताया भरोसा भी बल देता है। सामान्यत: माना जाता है कि जिम्मेदारी के साथ समझदारी भी लेती है। लेकिन यह क्या कि योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण जैसे लोगों ने जिम्मेदारी का भान कराने के लिए विचारगत और संगठनात्मक स्वरूप को पुख्ता करने के सुझाव दिए तो संजयसिंह और गोपाल पाण्डे जैसे नेता 'कहार' के रूप में बेनकाब हो लिए।
आम जनता और मीडिया को भी समझना चाहिए कि आम आदमी पार्टी लोकतांत्रिक व्यवस्था की पार्टी है और उसमें विचार भिन्नता है तो इसे लोकतांत्रिक लक्षण ही माना जाना चाहिए कि इसे किसी फूट के रूप में हवा देनी चाहिए। जहां तक समझ में आता है अरविन्द केजरीवाल से लेकर-मनीष सिसोदिया, आशुतोष, संजयसिंह और गोपाल पाण्डे भी किसी तर्कपूर्ण वैचारिक आधार की परिणति नहीं लगते। कुछ अच्छा करने की मंशा भले ही रखते हों लेकिन उस अच्छे को हासिल कैसे किया जा सकता है, उस तार्किक परिणति तक इनमें से शायद ही कोई पहुंच रखता है। आशुतोष ने तो कल इस प्रकरण पर जो प्रतिक्रिया दी वह बेहद बचकानी है। उन्होंने इसे प्रशांत भूषण की कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग से जोड़ कर अपनी छिछली राजनीतिक समझ का परिचय दिया जो चिन्ताजनक है।
इन दो दिनों की अरविन्द केजरीवाल की चुप्पी यदि लम्बी चली तो यह चुप्पी आम आदमी पार्टी में वही भूमिका निभा सकती है जो भले होते हुए भी मनमोहन सिंह की चुप्पी ने संप्रग-दो में निभाई। आम आदमी पार्टी को आम अवाम की उम्मीदों पर थोड़ा-बहुत भी खरा उतरना है तो मिल बैठकर योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण जैसे लोगों के साथ चर्चाओं का दौर चलाना चाहिए। बहसें करनी चाहिए और असहमति हो तो उसे तार्किक अंजाम तक पहुंचाना चाहिए कि छीछालेदर पर उतर आना चाहिए।  जनता में 'आप' ने नई उम्मीदें टिमटिमाई हैं तभी वह 'आप' के साथ हुए, कि कुएं से निकल कर खाई में गिरने की मजबूरी में किसी अन्य के साथ। ये उम्मीदें टूटी तो लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति जो निराशा का माहौल पनपेगा उससे निकलने में 1977 के बाद जितने ही वर्ष फिर लग सकते हैं।

3 मार्च, 2015

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