Friday, February 6, 2015

जरूरत वोट का महत्त्व समझने की है न कि उसकी ताकत

देश का आम-अवाम आजादी बाद के इन सड़सठ सालों में अपने वोट की ताकत को जान गया लेकिन इसका महत्त्व आज तक नहीं समझ पाया। वोट के महत्त्व को समझाने की कोई खास कोशिश देखी भी नहीं गई। गांधी रहे नहीं, विनोबा जमीनी कामों में लग गये और जयप्रकाश नारायण सम्भवत: नेहरू के संकोच में चुप कर गये। वैसे भी उन्होंने सक्रिय राजनीति से किनारा कर लिया था। जयप्रकाश सक्रिय भी तब हुए जब परिस्थितियां ऐसी बनी कि बजाय वोट का महत्त्व बताने के, उसकी ताकत का भान कराने की जरूरत थी।
मतदाता ताकत को तो भलीभांति समझा हुआ है। 1977 के बाद जब जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर उसने कांग्रेस और उसकी शक्तिशाली इन्दिरा गांधी को सत्ता बदर कर दिखाया। उसके बाद यह भ्रम टूट गया कि लोकतंत्र में शासन किसी की बपौती हो सकता है।
चुनावी मिजाज की बात आज इसलिए कर रहे हैं कि जहां राजस्थान में पंचायत राज चुनावों के जिला परिषदों और पंचायत समिति सदस्यों के लगभग परिणाम आ गये वहीं देश की राजधानी दिल्ली चुनावी ताप से तप रही है। कल 7 फरवरी को वहां मतदान होना है, चूंकि राजधानी है इसलिए न केवल खबरिया चैनल और अखबार बल्कि सोशल साइटें भी दिल्ली चुनावों से इस तरह रंगी हैं जैसे देश का यह कोई महत्त्वपूर्ण चुनाव हो। कुछ अरविन्द केजरीवाल ने तो कुछ दबाव में आयी भाजपा ने माहौल को चरम तक पहुंचा दिया। दिल्ली चुनावों की डिबेट से लेकर आम सभाओं तक में पार्टी प्रवक्ता यहां तक कि अब तो स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर असफल होने की आशंकाएं दीखने लगी हैं। हां, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को अपनी कार गुजारियों पर भरोसा है। न केवल कल की आम सभाओं बल्कि खबरिया चैनलों के साक्षात्कारों में शाह अपनी हाव-भाव को सहेजे रहे। लेकिन इस बार लगता है, दिल्ली का चुनाव जातीय आधार पर निर्णय नहीं देने वाला, वहां का मतदाता आर्थिक आधार पर वर्गों में बंट गया है। उच्च, उच्च मध्यम और मध्यम वर्ग का बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ जाता दीख रहा है तो मध्यम वर्ग के एक हिस्से के साथ निम्न मध्यम और निम्न वर्ग आश्‍चर्यजनक ढंग से उच्च जातीय वर्ग के अरविन्द केजरीवाल से उम्मीदें पाल बैठा लग रहा है। मतदाताओं का इस तरह का फंटवाड़ा अब तक कम ही देखने में आया।
लेकिन जैसा कि शुरू में कहा, मतदाता ऐसा वोट के महत्त्व को समझ कर नहीं वोट की ताकत को समझकर कर रहा है अन्यथा वह किसी एक से ऊब कर विकल्प बनने भर से आश्‍वस्त कर देने वाले की ओर नहीं पलटता। भाजपा और कांग्रेस की आर्थिक नीतियों, शासन चलाने के दोनों के तौर-तरीकों में कोई बड़ा अन्तर नहीं है। इन दोनों ही बड़ी पार्टियों से देश की असल समस्याओं से निबटने की कोई उम्मीदें भी नहीं। बावजूद इसके पिछले चुनावों में मोदी के भ्रम में आने का बड़ा कारण कांग्रेस से ऊब ही था। पिछले सवा साल में राजस्थान के मतदाताओं के रुझानों को देखें तो यह स्पष्ट भी होता है। दिसम्बर, 2013 के विधानसभा चुनावों में दोनों पार्टियों के वोटों का जो अन्तर 12 प्रतिशत था वह 2014 के लोकसभा चुनावों में 25 प्रतिशत पहुँच गया। (यह स्पष्ट करता है कि मतदाता की ऊब केन्द्र की कांग्रेस सरकार से थी।) यह अन्तर उसके बाद से लगातार घट रहा है। लोकसभा के लिए मतदान के सात महीनों बाद ही यह घटकर 11 प्रतिशत रह गया। हाल ही में हुए पंचायतों के चुनावों में दोनों पार्टियों के लिए मतदान के परिणामों से अनुमान लगाया जा रहा है कि कांग्रेस और भाजपा के बीच यह अन्तर मात्र दो-ढाई प्रतिशत ही रह रहा है। इससे पता चलता है कि मतदाता विकल्प की तलाश में नहीं है, वह या तो ऊब कर पलटता है या भरोसे पर खरा न उतरने पर। अन्यथा मोदी विकल्प होते तो उन पर किया भरोसा इतनी जल्दी नहीं टूटता।
वोट का महत्त्व मतदाता समझता तो वह अपनी समस्याओं के समाधान देने वाले विकल्प का सृजन करता। उच्च और उच्च मध्यम वर्ग ऐसा करने में सक्षम है लेकिन उसे विकल्प की जरूरत नहीं, अरविन्द केजरीवाल जैसे विकल्प बनकर उभरे हैं वह इन्हीं वर्गों के लिए हैं। इसीलिए उनके ऐजेण्डे में असल समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं है। वैसे भी यह उच्च वर्ग मतदाता के रूप में इतना छोटा समूह है कि यदि वह अलग-थलग हो तो उपस्थिति उल्लेखनीय नहीं रह जाती।
आश्‍चर्य है कि जिस बड़े मतदाता समूह के पास वोट का संख्याबल है वह अपने व्यापक और स्थायी हकों के लिए सावचेत नहीं है और जिनके पास संख्याबल नहीं है वे बड़ी चतुराई से भ्रमित कर उस बल का इस्तेमाल अपने स्वार्थों के लिए कर रहे हैं। पिछले सड़सठ वर्षों से यही हो रहा। अन्यथा गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण और जीवन-यापन की न्यूनतम जरूरतों की समस्या देश में आज नहीं होती। जरूरत वोट का महत्त्व समझने की है न कि उसकी ताकत।

06 फरवरी, 2015

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